कमलेश पांडेय
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, दिग्गज राजनेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का राजनीतिक सलाहकार चाहे जो भी हो, या फिर अपनी सियासत का सियासी निर्णय लेने वाले चाहे राहुल गांधी खुद ही क्यों नहीं हों, वह या ये कांग्रेस के नैतिक पतन, सियासी कमजोरी के सबसे बड़े सूत्रधार समझे जा सकते हैं। ऐसा इसलिए कि देश के नेता प्रतिपक्ष वाली सियासी गम्भीरता राहुल गांधी और कांग्रेस से नदारद है। अब तो यह भी कहा जाने लगा कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी के सवर्ण विरोधी बयानों से ही महागठबंधन को करारी मात मिली।
आपको याद होगा कि राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान सवर्ण विरोधी बयान दिए। उन्होंने कहा कि “मात्र 1 प्रतिशत सवर्ण आबादी सेना, न्यायपालिका और अफसरशाही नियंत्रित करती है।” उनके इस बयान ने सवर्ण (ऊंची जाति) समुदाय में नाराजगी पैदा की और महागठबंधन की सामाजिक संतुलन रणनीति कमजोर कर दी है।
चूंकि राहुल गांधी के पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पारसी हुए और विदेशी माता सोनिया गांधी ईसाई, इसलिए इंदिरा जी का फर्जी ब्राह्मणवाद भी राहुल जी को प्रभावित नहीं कर पाया। तीन दशक बाद मुसलमानों ने, दलितों ने, कुछ पिछड़ों ने विगत लोकसभा चुनाव 2024 में उनकी कांग्रेस व उसके इंडिया गठबंधन के साथ जुड़ने की अभिरुचि क्या दिखाई, राहुल गांधी उन पर फिदा हो गए।
एक कहावत है कि नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है। इसी प्रकार फर्जी जनेऊधारी ब्राह्मण राहुल गांधी ताबड़तोड़ सवर्ण विरोधी बयान देने लगे। वहीं, उनके लगातार पिछड़े वर्गों, दलितों और महिलाओं के पक्ष में दिए गए सशक्तिकरण के आक्रामक बयानों ने भी इस धारणा को मजबूत किया कि महागठबंधन ऊंची जातियों की उपेक्षा कर रहा है। चुनाव में इसका नकारात्मक असर हुआ। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा जिसमें गठबंधन मात्र 36 सीटों तक सिमट गया।
दूसरी ओर, एनडीए ने महिला, सवर्ण एवं गैर-यादव पिछड़ी जातियों को जोड़ने वाली व्यापक सामाजिक-राजनीतिक रणनीति से लाभ उठाया, जबकि महागठबंधन अपना परंपरागत वोट-बैंक भी समेटने में प्रभावी नहीं रहा। ऐसा इसलिए कि राहुल गांधी के जातिगत बयान, खासकर ‘कास्ट सेंसस’ और सवर्ण-विरोधी टिप्पणियां, भाजपा द्वारा ‘बांटो और राज करो’ राजनीति की तरह प्रचारित की गईं जिससे सवर्ण समुदाय का कांग्रेस समर्थित गठबंधन से और अधिक मोहभंग हुआ।
वहीं, मीडिया विश्लेषण में कम्युनिकेशन, सीट-शेयरिंग में गड़बड़ी और विपक्ष में सकारात्मक एजेंडा की कमी के साथ-साथ, इस जातीय विमर्श ने एनडीए के पक्ष में ध्रुवीकरण को तेज किया। कांग्रेस की कमजोर जमीनी उपस्थिति ने भी ऊंची जातियों और शहरी वोटर्स के विरोध को कम करने में विफलता दिखाई।
भाजपा के रणनीतिकारों ने राहुल गांधी के विवादित बयान का स्वरूप इस तरह से सवर्णों के सामने पेश करवाया कि मोदी विरोधी सवर्णों ने भी राहुल गांधी के नेतृत्व वाले गठबंधन से दूरी बना ली। भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने राहुल गांधी के बयानों को ‘सवर्ण-विरोधी’ कहकर मुद्दा बनाया और इसे स्वाभिमानी उच्च जातियों की अनदेखी की तरह पेश किया, जिससे गठबंधन के भीतर और बाहर दोनों तरफ असंतोष बढ़ा। इससे न सिर्फ सवर्ण बल्कि शहरी मध्यमवर्गीय मतदाताओं में भी नकारात्मक धारणा बनी, जो महागठबंधन के प्रदर्शन में गिरावट का एक प्रमुख कारण रहा। उम्मीद है कि राहुल गांधी इसे समझेंगे और अपनी रणनीति बदलेंगे।
एक खास बात और। वह यह कि सियासी शिल्पी नीतीश कुमार ने जिस ‘इंडी/इंडिया गठबंधन’ को अपनी राजनीतिक सेहत मजबूत करने के लिए कभी आकार दिया था, उसे संभालने या संभाले रखने की क्षमता भी राहुल गांधी-प्रियंका गांधी की टीम में नहीं दिखाई दे रही है। यही वजह है कि इंडिया गठबंधन के साथी दल निरंतर चुनाव दर चुनाव हार रहे हैं और इंडिया गठबंधन में भगदड़ मची हुई है। यह बात दीगर है कि क्षेत्रीय दलों की सामंती सोच भी इस स्थिति के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। फिर भी टीम राहुल गांधी की ज्यादा गलती है।
जरा गौर कीजिए, लोकसभा चुनाव 2024 के पहले कांग्रेस की कितनी बुरी हालत थी। दो-दो लोकसभा चुनावों में वह नेता प्रतिपक्ष के लायक भी नहीं बची थी। कर्नाटक, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश की बात छोड़ दें, तो कांग्रेस की हालत सब जगह पतली थी लेकिन क्षेत्रीय दलों ने इंडी/इंडिया गठबंधन बनाकर लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को मजबूती प्रदान की और तब जाकर वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी हासिल कर सकी।
यहां एक गौर करने वाली बात है। वह यह कि यदि राजद नेता लालू प्रसाद के इशारे पर राहुल गांधी ने बिहार के तत्कालीन महागठबंधन मुख्यमंत्री व जदयू के नेता नीतीश कुमार के खिलाफ चालें नहीं चली होतीं और उन्हें इंडिया गठबंधन का संयोजक बना दिया होता तो वह एनडीए की ओर पुनः नहीं लौटते। यदि ऐसा होता तो केंद्र में लोकसभा चुनाव 2024 के बाद इंडिया गठबंधन की सरकार बनती। इस प्रकार राहुल गांधी अपनी सियासी अदूरदर्शिता से पीएम बनने का एक स्वर्णिम अवसर गंवा दिये।
खैर, लोकसभा में नेता सदन के बजाय नेता प्रतिपक्ष तो बन ही गए लेकिन उसके बाद उन्होंने इंडिया गठबंधन को हांकना शुरू कर दिया। इससे उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव, दिल्ली के आम आदमी पार्टी प्रमुख, अरविंद केजरीवाल, महाराष्ट्र में शिवसेना यूबीटी प्रमुख उद्धव भाऊ ठाकरे और एनसीपी शरद पवार प्रमुख शरद पवार, बिहार के राजद नेता तेजस्वी यादव की नाराजगी बढ़ती गई।
वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुरू से ही कांग्रेस को भाव नहीं दे रही हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक इंडिया गठबंधन में निरंतर बढ़ते दरारों से परेशान हो गए। परिणाम यह हुआ कि यूपी उपचुनाव 2024 में अखिलेश यादव, हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024, में महा अगाड़ी गठबंधन (कांग्रेस, शिवसेना यूबीटी व एनसीपी शरद पवार का गठबंधन) के उद्धव भाऊ ठाकरे व शरद पवार, दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में अरविंद केजरीवाल, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव, आदि अपनी औकात में आ गए।
सिर्फ झारखंड विधान सभा चुनाव 2025 में झामुमो के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, और जम्मूकश्मीर विधानसभा चुनाव 2025 में नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस को अपनी लाज बचाने के मौके अपनी रणनीति से दिए। उधर, उड़ीसा के बीजू जनता दल के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी उसी भाजपा के हाथों अपनी सत्ता गंवा दी, जिसकी सहयोग वह पर्दे के पीछे से करते रहते थे।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव 2024 के बाद कांग्रेस नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने भाजपा को गहरा धक्का दिया, लेकिन एनडीए ने उसकी लाज बचा ली।फिर, यूपी विधानसभा उपचुनाव 2024, महाराष्ट्र, हरियाणा, उड़ीसा, विधानसभा चुनाव को जीतकर बीजेपी अपना उत्साह वापस पा ली और बिहार विधानसभा चुनाव 2025 जीतकर एनडीए ने अपनी सियासी बुलंदियों का परचम लहरा दिया।
यह सब इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, शिव सेना यूबीटी नेता उद्धव भाऊ ठाकरे, एनसीपी शरदपवार नेता शरद पवार,आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल आदि अपने अपने सियासी जिद पर कायम रहे और एकदूसरे को मजबूत बनाने के बजाय उन्हें कमजोर करने की चालें चलीं। परिणाम समाने है। इससे राहुल गांधी को सबक लेनी चाहिए। उनके विरोधियों को भी यह समझना होगा कि कांग्रेस को कमजोर करके वे कभी मजबूत नहीं हो सकते हैं।
एक बात और। इंडिया गठबंधन के पास मुद्दों का घोर अकाल है। भाजपा को अछूत पार्टी बनाने से लेकर सांप्रदायिक पार्टी ठहराने की होड़ में कांग्रेस व क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्र को कमजोर करने वाली राजनीति शुरू कर दी जो अब उनके लिए घातक बन चुकी है। यह ठीक है कि 80 प्रतिशत हिंदुओं का विरोध करते करते ये लोग लगभग 15-20 प्रतिशत मुस्लिमों को अपने पास जोड़ पाए हैं लेकिन इस वोट बैंक पर भी सभी अपना अपना कब्जा चाहते हैं।
लोकसभा चुनाव 2024 में संविधान बचाने के लिए जो दलित कांग्रेस व क्षेत्रीय दलों की ओर लौटे थे, वो पुनः भाजपा से जुड़ गए। अखिलेश के पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) गठबंधन की हवा भाजपा ने निकाल दी है, क्योंकि उसने यूपी में जिस वैकल्पिक पिछड़ा, दलित, अगड़ा ( वैकल्पिक पीडीए) गठबंधन का आह्वान किया और एक रहोगे तो सेफ रहोगे का नारा दिया (बंटोगे तो कटोगे की सभ्य भाषा), वह बिहार विधानसभा चुनाव में अपना जलवा दिखा चुका है।
यह राष्ट्रीय दुर्भाग्य का विषय है कि कांग्रेस व क्षेत्रीय दल वामपंथी नक्सलवाद और इस्लामिक आतंकवाद को मुद्दा बनाने से हिचकते हैं क्योंकि इससे उनका मुस्लिम/यादव यानी माय समीकरण कमजोर होता है। वहीं, दलित/मुस्लिम यानी दम समीकरण भी असरदार नहीं बन पाता है। अब बीजेपी ने भी महिला/यूथ यानी वैकल्पिक माय समीकरण को हवा दे दी है, जो बिहार विधानसभा चुनाव में सफल हुआ। वहीं, उसने दलित और पसमांदा मुसलमानों को जोड़कर व वैकल्पिक दम समीकरण को मजबूती दे दी है। विपक्ष से रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान के नारे छीन चुकी है। बिजली, सड़क, पानी के मुद्दे छीन ली। वहीं, विपक्षी दलों की तरह फ्रीबीज मुद्दों को छीनकर विपक्ष को पंगु बना चुकी है।
उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी सियासी मूर्खता की सारी हदें पार कर दी हैं। जिन मुद्दों पर जोर देने के चलते कांग्रेस का सियासी पतन हुआ, वह उन्हीं मुद्दों पर फिदा हो रहे हैं। जिन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की कब्र खोदी, उन्हीं से गठबंधन कर रहे हैं। उनके पिता जी के नाना जवाहर लाल नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण थे। उनके दादा फिरोज गांधी पारसी हैं। इससे राहुल गांधी भी पारसी हुए। ऐसे में उनके सवर्ण विरोधी रूख से कांग्रेस के अलावा उसके सहयोगी दलों से भी सवर्ण नाराज हो गए। बिहार विधानसभा चुनाव में इसकी स्पष्ट झलक दिखी।
कमलेश पांडेय