डॉ. संतोष झा
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण का मतदान 6 नवंबर को समाप्त हो गया जबकि दूसरे चरण का मतदान 11 नवंबर को निर्धारित है। मिथिला क्षेत्र में लगभग 60 विधानसभा सीटें हैं जो राज्य की राजनीतिक दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी पहली चुनावी रैली तेजस्वी यादव के साथ मिथिला की धरती से शुरू की थी। यह कदम महागठबंधन की एकता को मजबूत करने के साथ-साथ कांग्रेस के पुराने जनाधार को पुनर्जीवित करने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है जिसने 2020 में महागठबंधन के “विजय रथ” को रोक दिया था।
मिथिला क्षेत्र, जो दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, सहरसा, सुपौल और आसपास के जिलों को समेटता है, लंबे समय से बिहार की राजनीति का केंद्र रहा है। यहां की जनता शिक्षा, संस्कृति और विकास के प्रति जागरूक रही है लेकिन पिछले तीन दशकों में राजनीतिक समीकरणों के बदलाव ने कांग्रेस को इस क्षेत्र में हाशिए पर धकेल दिया।
मिथिलांचल: कांग्रेस की पूर्व आत्मा, अब खामोश मैदान
बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में कभी कांग्रेस का नाम ही राजनीति का पर्याय था। यह धरती पार्टी के झंडे, सत्ता, विचारधारा और विकास की पहचान हुआ करती थी लेकिन आज यही इलाका कांग्रेस के लिए राजनीतिक रेगिस्तान बन चुका है। जहां कभी ललित नारायण मिश्र, डॉ. जगन्नाथ मिश्र और भगवत झा आजाद जैसे दिग्गज नेता जनता के दिलों में बसते थे, वहां अब पार्टी कार्यकर्ता गिनती के रह गए हैं।
आजादी के बाद से 1980 के दशक तक मिथिलांचल कांग्रेस की आत्मा रहा। इस क्षेत्र ने बिहार को दो प्रभावशाली मुख्यमंत्री दिए—भगवत झा आजाद और जगन्नाथ मिश्र—जबकि केंद्र की राजनीति में ललित नारायण मिश्र का दबदबा था। इन नेताओं ने विकास, शिक्षा को बढ़ावा दिया और मिथिला की सांस्कृतिक चेतना को राष्ट्रीय पहचान दिलाई। दरभंगा राजपरिवार से जुड़े नागेंद्र झा और चित्तेश्वर ठाकुर जैसे नेता पार्टी की बौद्धिक रीढ़ थे।
स्कूल, कॉलेज, सड़कें और सिंचाई परियोजनाएं कांग्रेस की देन मानी जाती थीं। ललित नारायण मिश्र ने रेलवे के विस्तार से मिथिला को देश से जोड़ा जबकि जगन्नाथ मिश्र ने शिक्षा और सामाजिक न्याय के मुद्दों को आगे बढ़ाया लेकिन 1990 के बाद का राजनीतिक परिवर्तन इस गौरवशाली इतिहास पर ग्रहण लगाता चला गया।
मंडल राजनीति ने बदले समीकरण
1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति ने कांग्रेस की पारंपरिक जमीन खिसका दी। जब मंडल राजनीति ने उभार लिया, तब बिहार की सामाजिक संरचना में गहरा बदलाव आया। ब्राह्मण, कायस्थ, दलित और मुस्लिम समाज—जो पार्टी की रीढ़ थे, धीरे-धीरे भाजपा, लोजपा और राजद के खेमे में बंट गए। राजद ने यादव-मुस्लिम समीकरण साधा जबकि भाजपा ने सवर्ण वोटों में सेंध लगाई। कांग्रेस बीच की राजनीति में गुम होती चली गई।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस उस दौर में न तो नए सामाजिक समीकरणों को अपनाने में सफल रही, न ही अपनी विचारधारा को उस समय की बदलती राजनीति के अनुरूप ढाल सकी. यही उसके पतन का सबसे बड़ा कारण बना। मंडल के बाद ओबीसी और दलित वोटों का ध्रुवीकरण हुआ जिसका लाभ राजद और बाद में जदयू को मिला। कांग्रेस न तो जातीय समीकरण साध पाई और न ही सामाजिक न्याय के मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया। नतीजा, मिथिला में उसकी जड़ें कमजोर पड़ गईं।
मिथिलांचल में कांग्रेस की कमजोरी केवल बाहरी कारणों से नहीं बल्कि अंदरूनी संकीर्णता से भी उपजी। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता किशोर कुमार झा का कहना है कि, मिथिलांचल में पार्टी को कमजोर करने में “भीतरघात” की भूमिका रही है। उनके अनुसार, “जब मदन मोहन झा प्रदेश अध्यक्ष और मंत्री रहे, तब उन्होंने अपने समाज या क्षेत्र के नए चेहरों को आगे नहीं बढ़ाया जिससे संगठन जड़ हो गया।” नेतृत्व की इस जड़ता ने कार्यकर्ताओं के उत्साह को खत्म कर दिया और पार्टी स्थानीय मुद्दों से कट गई।
2020 का झटका और 2025 की उम्मीद
2020 विधानसभा चुनाव में मिथिलांचल ने महागठबंधन को करारा झटका दिया। दरभंगा, मधुबनी, सहरसा और समस्तीपुर जैसे जिलों में एनडीए को मजबूत बढ़त मिली। कांग्रेस महागठबंधन में सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई लेकिन इस बार कांग्रेस की सक्रियता, राहुल गांधी का सीधा संवाद और स्थानीय मुद्दों पर फोकस से माहौल बदलता दिख रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस की यह रणनीति “स्थानीय पहचान और राष्ट्रीय मुद्दों”के समन्वय पर आधारित है। मिथिला की जनता शिक्षा, पलायन, बेरोजगारी, किसान और स्वास्थ्य के सवालों से जूझ रही है और राहुल गांधी ने इन्हीं बिंदुओं को नीतीश-भाजपा सरकार की असफलता के प्रतीक के रूप में उभारा है। बेरोजगारी और पलायन मिथिला के युवाओं का सबसे बड़ा दर्द है। राहुल ने वादा किया कि कांग्रेस सत्ता में आई तो एक करोड़ नौकरियां देगी और पलायन रोकने के लिए स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा दिया जाएगा।
विश्लेषक मानते हैं कि “अगर महागठबंधन इस लय को बनाए रखता है तो 2025 का चुनाव मिथिला की माटी से नई राजनीतिक कहानी लिख सकता है।” मिथिलांचल में कांग्रेस का पतन सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि भविष्य की चुनौती है। जगन्नाथ मिश्र और ललित नारायण मिश्र की धरती अब राहुल गांधी को परख रही है—क्या वे कांग्रेस को फिर से “मिथिला की पार्टी” बना पाएँगे? राहुल गांधी की सक्रियता और तेजस्वी यादव की युवा ऊर्जा अगर स्थानीय नेतृत्व के साथ मिलकर काम करे तो कांग्रेस न केवल अपनी खोई जमीन वापस पा सकती है बल्कि बिहार की सत्ता की दौड़ में मजबूत दावेदार बन सकती है।
लेकिन चुनौतियां कम नहीं। एनडीए की मजबूत संगठनात्मक मशीनरी, नीतीश कुमार की स्थानीय स्वीकार्यता और भाजपा की ध्रुवीकरण रणनीति अभी भी बड़ा खतरा है। कांग्रेस को अगर सफल होना है तो उसे न केवल महागठबंधन की एकता बनाए रखनी होगी बल्कि अपने कार्यकर्ताओं में नया जोश भरना होगा। मिथिला की जनता अब परिणाम देखना चाहती है—वादों से ज्यादा काम।
डॉ. संतोष झा