अमरपाल सिंह वर्मा
उत्तरप्रदेश में बरेली के पारिवारिक न्यायालय के अपर प्रधान न्यायाधीश ज्ञानेन्द्र त्रिपाठी ने हाल ही में तलाक के एक केस की सुनवाई के दौरान जो टिप्पणी की है, वह समाज मे बदलते पारिवारिक परिदृश्य की तस्वीर पेश करती है। न्यायाधीश ने टिप्पणी की है कि यदि कोई लडक़ी शादी के बाद एकांकी जीवन चाहती है तो उसे शादी के बायोडाटा में साफ लिख देना चाहिए कि उसे ऐसा पति चाहिए जो माता-पिता और परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त हो। यह मामला बदायूं के एक युवक और फरीदपुर की युवती से जुड़ा है। दोनों की शादी 2019 में हुई लेकिन युवती सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहती थी। लिहाजा,2020 से अलग रहने लगी। न्यायाधीश ने कहा कि आज कई लोग वृद्धाश्रमों और बंद फ्लैटों में अकेले रह रहे हैं जबकि संयुक्त परिवार अकेलेपन को दूर करता है। अदालत ने पति का तलाक दावा स्वीकार करते हुए दोनों को अलग रहने की अनुमति दे दी और कहा कि जो लड़कियां शादी के बाद संयुक्त परिवार को बोझ समझती हैं, वह पहले ही अपनी प्राथमिकता स्पष्ट करें क्योंकि यह सोच सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकती है।
एक जज की यह टिप्पणी हमारे घरों के हालात को प्रकट कर रही है। यह केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं है बल्कि इससे पता चलता है कि हमारे घरों के भीतर क्या बदल रहा है और रिश्तों में कैसी नकारात्मकता पैदा हो रही है। रिश्ते, खासकर ससुराल में, किस प्रकार दरक रहे हैं। एक जमाने में पति-पत्नी के बीच नोक- झोंक सामान्य बात हुआ करती थी मगर आज हालत यह है कि घर में छोटी-मोटी बात पर हुई बहस ही अदालत में पहुंचने लगी। पति-पत्नी की खटपट को पहले घर के बड़े-बुजुर्ग ही सुलझा दिया करते थे, वह अब अदालतों से भी नहीं सुलझ पा रही है। पारिवारिक न्यायालयों में जज के समझाने के बावजूद जोड़े तलाक से कम पर मानते ही नहीं हैं। जाहिर कि समाज एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां रिश्तों को संभालने की कला कमजोर पड़ रही है। हमारे संयुक्त परिवारों वाले पारंपरिक देश और समाज मेंं यह स्थिति दु:खी करती है।
पहले हमारे यहां दीवारें कम और अपनापन अधिक था लेकिन एकल परिवारों की चाह और चलन ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। नौकरी, कामकाज के सिलसिले में एकल परिवार समझ में आते हैं पर बिना वजह अलग रहने की जिद समझ से बाहर है। इसी जिद के कारण न केवल दादा-पौत्र, बुआ-भतीजे, चाचा-चाची, ताऊ-ताई जैसे रिश्ते खत्म हो रहे हैं बल्कि दाम्पत्य संबंध भी दरक रहे हैं। रिश्तों में जो धैर्य की भावना थी, वह तो कहीं खो गई लगती है। आज पति-पत्नी अपने लिए जगह चाहते हैं तो बुज़ुर्ग अपनी पुरानी जगह बचाए रखने के ख्वाहिशमंद हैं। दोनों की इच्छाएं ठीक हैं लेकिन टकराव तब शुरू होता है जब कोई भी अपनी जगह से एक कदम पीछे नहीं हटना चाहता। इसी से परिवारों में खाई पैदा हो रही है। बरेली कोर्ट के सामने आया यह मामला असल में उसी अदृश्य खाई का उदाहरण है। पत्नी को लगता है कि पति उसके साथ नहीं खड़ा। पति को लगता है कि पत्नी उसके परिवार को नीचा दिखाना चाहती है। सास-ससुर को लगता है कि बहू उनके घर पर अधिपत्य जमाना चाहती है। ऐसी भावनाएं आना स्वाभाविक है पर जब इस बारे में बात नहीं होती, परस्पर संवाद खो जाता है तो ये आक्रोश के रूप में फूटती हैं। नतीजा, परिवार के बिखराव के रूप में सामने आता है।
न्यायाधीश की टिप्पणी आज के समय की बड़ी जरूरत पर जोर देती है। जब शादी-ब्याह की बात चलती है तो सारी बातें अच्छे से प्रकट नहीं की जातीं। लडक़ी एकांकी मिजाज की है तो यह बात खुलकर बता दी जानी चाहिए। शुरू में तो ऐसी बातों को या तो छुपा लिया जाता है या छोटा समझ कर बताने की जरूरत ही महसूस नहीं की जाती। बाद में यही छोटी बातें विकराल रूप धारण कर लेती हैं। सोशल मीडिया के दौर में आज हम जीवन को भी वर्चुअल समझ कर जी रहे हैं जबकि लाइफ और मोबाइल स्क्रीन में बुनियादी फर्क है, जिसे समझना होगा। हैरानी होती है, जब घर की समस्या पर परिजनों से संवाद करने के बजाय लोग सोशल मीडिया पर राय मांगते हैं। वहां झट से राय मिल भी जाती है कि झुकना मत। उसे छोड़ दो, अपने लिए जियो।
बड़ा सवाल है कि क्या पारिवारिक रिश्ते यूं ही छोड़े जा सकते हैं? क्या परिवार नामक संस्था को ऐसे ही खारिज किया जा सकता है? इस पर चिंतन करने की जरूरत है। माना, कई बार खटास मूड खराब कर देती है पर जिंदगी चटपटी भी तो होनी चाहिए। थोड़ी देर के लिए अहं को ताक पर रख दिया जाए और थोड़ी बातचीत, नरमी और धैर्य से काम लिया जाए तो हर समस्या का समाधान संभव है। लेकिन अफसोस है हमारे पास अगर सबसे कम कुछ बचा है तो वह धीरज ही है। जल्दबाजी दुर्घटनाओं का कारण बनती है, यह सब जानते हैं पर जल्दबाजी को छोड़ते नहीं हैं। सडक़ हो या घर, जल्दबाजी का परिणाम अच्छा नहीं निकलता। जब घर में बात बिगड़ रही हो तो थोड़ा त्याग करने से ही वह बनेगी। खुलकर संवाद ही समस्याओं का समाधान लाएगा। हम खुलेपन की बातें तो करते हैं पर रिश्तों के असली सवालों पर खुलकर बात करने से बचते हैं। यह रवैया समस्याओं को बढ़ा रहा है।
परिवारों में असहमति, विवाद, संघर्ष स्वाभाविक है। बुजुर्ग कहते थे जहां चार बर्तन होंगे तो टकराएंगे ही। आज इसी बात को समझने की आवश्यकता है। जहां संवाद कायम रहेगा, वहां रिश्तों को टूटने से बचाना संभव है। संवादहीनता के माहौल में मजबूत रिश्ते भी दम तोड़ देंगे। इस पर विचार करने की जरूरत है कि हम थोड़ी सी असहमति भी क्यों सहन नहीं कर पा रहे हैं? हम गलती को सुधारने पर जोर देने के बजाय यह साबित करने पर क्यों तुल जाते हैं कि गलती सामने वाले की है? बुज़ुर्गों और नई पीढ़ी के बीच का जो संवाद परिवार को जोडक़र रखता था, उसके खोने की क्या वजह है? इन सवालों पर विमर्श होगा तो जवाब भी मिल जाएंगे क्योंकि परिवारिक रिश्ते नियमों से नहीं चलते, मन से चलते हैं। अदालतें फैसले दे सकती हैं पर घरों की टूटन नहीं रोक सकतीं। एक जज आवश्यकता प्रतिपादित करने की जिम्मेदारी निभा सकता है पर उसे अमली जामा तो हमें ही पहनाना होगा। अगर परिवार मजबूत होगा तो समाज मजबूत होगा। एक मजबूत समाज ही देश को सशक्त बना सकता है।
अमरपाल सिंह वर्मा