संदीप सृजन
भारत में जाति आधारित जनगणना का मुद्दा लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र रहा है। 1931 के बाद, भारत में व्यापक जाति जनगणना नहीं हुई है। 2011 की जनगणना में सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण (SECC) किया गया था लेकिन इसके आंकड़े पूरी तरह से सार्वजनिक नहीं किए गए। हाल ही में, केंद्र सरकार ने 2025 में होने वाली जनगणना में जाति आधारित गणना को शामिल करने की घोषणा की है। यह निर्णय सामाजिक न्याय और नीतिगत योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने के लिए लिया गया है।
जाति जनगणना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक जाति की जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शैक्षिक स्तर का सटीक डेटा एकत्र करना है। इससे सरकार को यह समझने में मदद मिलेगी कि कौन सी जातियां वास्तव में पिछड़ी हैं और किन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। क्रीमी लेयर और जाति जनगणना का संयुक्त प्रभाव भारत में ओबीसी आरक्षण नीति को नया आकार दे सकता है। यह प्रक्रिया कुछ प्रभावशाली ओबीसी जातियों के लिए चुनौतियां ला सकती है जिन्हें ओबीसी सूची से बाहर करने या क्रीमी लेयर के कारण लाभ से वंचित करने का दबाव बढ़ सकता है। दूसरी ओर, यह उन अति पिछड़ी जातियों के लिए अवसर प्रदान कर सकता है जो अभी तक आरक्षण के लाभ से वंचित रही हैं हालांकि इस प्रक्रिया में कई चुनौतियां हैं जिनमें आंकड़ों की विश्वसनीयता, राजनीतिक दुरुपयोग, और सामाजिक तनाव शामिल हैं। सरकार को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए पारदर्शी और समावेशी नीतियां अपनानी होंगी।
भारत में सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण नीति एक महत्वपूर्ण उपकरण रही है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण, जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को समर्थन प्रदान करता है, 1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था हालांकि हाल के वर्षों में क्रीमी लेयर की अवधारणा और जाति आधारित जनगणना जैसे मुद्दों ने ओबीसी आरक्षण नीति पर गहरा प्रभाव डाला है। क्रीमी लेयर और प्रस्तावित जाति जनगणना कई ओबीसी जातियों को प्रभावित कर सकती है जिसमें कुछ जातियों को ओबीसी सूची से बाहर करने की संभावना है।
अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) भारत सरकार द्वारा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को वर्गीकृत करने के लिए उपयोग किया जाने वाला एक सामूहिक शब्द है। मंडल आयोग (1980) ने अनुमान लगाया था कि भारत की कुल आबादी का लगभग 52% हिस्सा ओबीसी समुदायों का है। ओबीसी को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 27% आरक्षण प्रदान किया जाता है। इस वर्ग के भीतर असमानता को दूर करने के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा शुरू की गई।
क्रीमी लेयर उन ओबीसी व्यक्तियों या परिवारों को संदर्भित करता है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से अपेक्षाकृत समृद्ध हैं और इसलिए आरक्षण के लाभ के लिए प्राथमिकता के पात्र नहीं माने जाते। 1993 में सुप्रीम कोर्ट के इंद्रा साहनी मामले में दिए गए फैसले के बाद क्रीमी लेयर की पहचान के लिए मानदंड स्थापित किए गए। वर्तमान में, क्रीमी लेयर की आय सीमा 8 लाख रुपये प्रति वर्ष है, और इसमें उच्च सरकारी पदों पर कार्यरत व्यक्तियों के परिवार भी शामिल हैं। क्रीमी लेयर की अवधारणा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जो वास्तव में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। इस नीति ने कई ओबीसी जातियों के बीच असंतोष पैदा किया है, खासकर उन जातियों में जो आर्थिक रूप से उन्नत हो चुकी हैं।
क्रीमी लेयर की आय सीमा को समय-समय पर संशोधित किया जाता है। हाल के वर्षों में इसे 6 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रुपये किया गया है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जाति जनगणना के बाद क्रीमी लेयर के मानदंडों को और सख्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, आय के साथ-साथ शैक्षिक योग्यता, संपत्ति और सामाजिक स्थिति जैसे अन्य कारकों को भी शामिल किया जा सकता है। इस तरह के बदलाव उन ओबीसी जातियों को प्रभावित कर सकते हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हो चुकी हैं।कुछ जातियों ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी कोटे का बड़ा हिस्सा हासिल किया है। यदि क्रीमी लेयर के मानदंड सख्त होते हैं तो इन जातियों के कई परिवार आरक्षण के लाभ से वंचित हो सकते हैं।
कई ओबीसी जातियों को सूची से बाहर करने या क्रीमी लेयर के कारण लाभ से वंचित करने का सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी हो सकता है। उत्तर भारत में, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, यादव और कुर्मी जैसी जातियां राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं। यदि इन जातियों को ओबीसी सूची से हटा दिया जाता है तो यह उनके राजनीतिक प्रभाव को कम कर सकता है और क्षेत्रीय राजनीति में नए समीकरण पैदा कर सकता है। इसके अलावा यह कदम सामाजिक तनाव को भी बढ़ा सकता है। कुछ जातियां यह तर्क दे सकती हैं कि उन्हें सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है भले ही वे आर्थिक रूप से समृद्ध हों।
जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति से संबंधित कई चुनौतियां और विवाद हैं। जाति जनगणना एक जटिल प्रक्रिया है और इसके आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकते हैं। 2011 के SECC में तकनीकी खामियां पाई गई थीं जिसके कारण इसके आंकड़े उपयोगी नहीं माने गए। कुछ आलोचकों का मानना है कि जाति जनगणना का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ दल प्रभावशाली ओबीसी जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए नीतियों में बदलाव कर सकते हैं। जाति जनगणना से समाज में जातिगत आधार पर विभाजन बढ़ सकता है। यह सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा सकता है और सामाजिक तनाव को बढ़ा सकता है। यदि कुछ जातियों को ओबीसी सूची से हटाया जाता है तो यह कानूनी चुनौतियों को जन्म दे सकता है। प्रभावित समुदाय कोर्ट में जा सकते हैं, जिससे नीतिगत बदलाव में देरी हो सकती है।
जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति का भविष्य कई कारकों पर निर्भर करेगा। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जनगणना के आंकड़े पारदर्शी और विश्वसनीय हों। साथ ही, क्रीमी लेयर के मानदंडों को इस तरह से संशोधित करना होगा कि यह सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा दे। समाज को यह समझने की जरूरत है कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देना है। इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जा सकते हैं। जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति जरूरी है। यह सुनिश्चित करेगा कि नीतियां दीर्घकालिक और प्रभावी हों।
संदीप सृजन