दक्षिणा रहस्य

अम्बर रक्तिम वर्ण हो चला रथ रवि का अस्ताचल को
लौट रहा हलधर का टोला, पुष्ट स्कंध पर धरि हल को
गोखुर से उड़ती रज रम्या, खग-मृग सब चले नीड़ को
गुरु माता बैठी आंगन में, अभ्यन्तर लिए पीड़ को

तभी द्रोण आये कुटिया में दिखी निस्तब्धता छाई
गुरु माता इतनी तन्मय थी, आहट तक ना सुन पाई
निज नारी देख विषण्णानन द्रोणाचार्य अधीर हुए
मन में कर अनर्थ आशंका उद्वेलित, गंभीर हुए

हस्त धनु इक ओर रख दिया, निकट किया भार्या आसन
अश्रू पूरित कपोल कृपि के,  देखा मन दुख का शासन
तब निज कर ले दारा कर को, कुरु-गुरु ने दो हस्त गहे
“किस संताप संतप्त देवी तुम?”, धीरे से मधुवचन कहे

कर स्पर्श विस्मित, विकंपित कृपि की कृश कोमल काया
ज्यों रमणी पुष्पलता कम्पित, कानन मलयानिल माया
“क्षमा नाथ आगमन आपका कैसे मैं ना जान सकी”
कह इति वचन अर्घ्य अर्पण को, कृपि तत्क्षण हो‌ गई खड़ी

बैठो प्रिय! क्यों विषाद विदिरण आज तुम्हारा मुख मंडल
किस पीड़ा प्रदग्ध हुई तुम, क्यों बहता नयनों में जल
किस पापी की मृत्यु निकट है, किस मानव की मति डोली
“ऐसा कुछ भी नहीं नाथ है” कृपि स्वर मंद-मंद बोली

सोच रही, कैसा एकलव्य गुरु भक्ति का था पायक
गुरु प्रतीमा चरणों में रह साध रहा अपने सायक
कितनी लगन, रत दृढ प्रतीज्ञा, निज साधन पर था निर्भर
सीखा उसने वो भी सब था जो अर्जुन को भी दुष्कर

गुरु श्रद्धा, जिज्ञासा, चेष्टा, विषय त्याग, एकाग्र ध्यान
ब्रह्मचारी, निद्रा निग्रही, कह वेद विद्या विज्ञान
विरंची रचित ये अनुशासन, लगन जहां है ज्ञान वहीं
एकलव्य सर्वगुण विभूषित, ज्ञान पिपासा उर गहरी

दक्षिण हस्त अंगुष्ठ मांग कर कैसी ये दक्षिणा पायी
निर्धन और निर्बोध बाल पर तनिक दया न मन आयी
श्रद्धा सुमन सुसज्जित अनुचर देह काट के दान दिया
उस एकलव्य अनुगामी पर कैसा अनर्थ हे नाथ किया

कोटि धन्य दीक्षा दुर्गम्य, शिष्य अर्जुन-सा धनुर्धर
पर मेरा मन उद्वेलित है, आता स्मृति वह रह रह कर
पिच्छ किरीट, तन वसन विदिरण, सोष्ठव बदन तनय निषाद
दृठ बाहु धनु, वदन विभासित, विवश दृग देते विषाद

इतना कह निर्वचन हो गई कृप स्वशा, शरद्वान सुता
गगन कलश कर अंधकार ले उडेल रही अपार निशा
चमक रहे केवल तारा गण अतिश्याम पटह प्रक्षिप्त
स्तब्ध पवन निःशब्द दिशा दस ज्योति स्त्रोत इक दीप दिप्त

बीती निशा अभी तीन घड़ी लगता जैसे एक अयन
निज नारी सुन‌ वचन करूणमय हुए आचार्य स्तिमित नयन
श्वेत श्मश्रु उद्भासित तुषार, कठोर कवच तन मुक्त केश
भुज दण्ड कठिन, तूणीर स्कंध, धर मंत्र पूत शर विशेष

गई स्मृति समय देशाटन को, अश्वत्थामा छवि छाई
पय गोक्षीर अलभ्य बाल को दुर्धर दीन दशा आई
पीष्टक पानी मिला पिला कर सुरभि दुग्ध बता रहें है
कैसे इस निर्बोध बाल को बाल सखा चिढा रहें हैं

स्त्री सहित सुकुमार स्वयं का पांचाल प्रदेश प्रस्थान
स्मृति पटल पर टहल गया वो द्रुपद द्वारा मर्दन मान
निर्धनता से विवश ज्ञान को मिला जगति में तिरस्कार
कांपी स्मरण से श्वास समीर छाया आनन पर विकार

दिखा कुरु गृह, भीष्मपिता ने सोंप दिये सब सुकुमार
द्रोण रहेगा कुरु कुल कृतज्ञ जागा अन्तर में  विचार
कौंतेय ने ही गुरु प्रतीज्ञा पूर्ण का संकल्प ठाना
श्रद्धा, लगन, सब श्रम साध कर धनुर्ज्ञान को पहचाना

हैं प्रिय मुझे मेरे सब शिष्य, लेकिन धनंजय धनुर्धर
लाघव कौशल धनु पारंगत, ज्ञाता है दीव्य ब्रह्मशर
तनय सुलेखा एकलव्य भी मेरे हृदय जितना पार्थ
मांगी थी जो कठिन दक्षिणा, जग खोज रहा उसमें स्वार्थ?

यह सोच हुए गुरु द्रोण विकल, चंचल होते द्वि स्थिर नयन
एक क्षण उर सव्यसाची है, क्षण द्वितीय सुलेखा रत्न
कहीं दूर तभी तरु शाख पर बोला कोई रजनी खग
प्रज्वलित ज्योति, कम्पित प्रकाश, मंथर मंथर खुले द्रोण दृग

है निशा निस्तब्ध नभ तिमिर तुमुल दीप्त तारागण चलते होले
ले स्मिति अधर, कर वल्लभा कर, आचार्य मंद स्वर बोले
सुनो कृपि! मैं करता हूं इस ममता को शत बार नमन
किन्तु मैंने भी तो किया है निज मर्यादा उचित वहन

मैं नहीं चकित उस विद्या से कि श्वान स्वर संधान किया
मैं अतिद्रवित अन्तर गदगद जैसे उसने सम्मान दिया
जिसके गंगापुत्र पितामह उस अर्जुन को अलभ्य क्या
आचार्य स्वयं शरद्वान सुत सुरपति जिससे था डरता

ब्रह्मशक्ति जिसको वरण करे कठिन नहीं स्वर भेद बाण
एकलव्य की दुर्देय दक्षिणा हेतु थी उसके ही त्राण
जब राजकुँवर वन से लौटे पार्थ ने सब वृतांत कहा
‘वह कहता है मैं शिष्य द्रोण, गुरु चरणों में नित्य रहा’

श्रद्धा उर एकलव्य अतीव मैने जा देखी वन में
गुरु सम्मुख विनित विनम्र और कोई भाव नहीं मन में
ऐसा एकलव्य अनुयायी, उससे छल हो सकता क्या?
शिक्षक क्षेम चाहे शिष्य की, सूर्य रश्मि खो सकता क्या?

मैं कहता ‌हूं सत्य वचन क्यों मांगी दक्षिणा दुर्देय
सुनो प्रिया! हो प्रशमन शायद तुम्हारा यह प्रदग्ध हृदय
निष्कपट नहीं हैं कुरु नंदन अभ्यंतर धृणा अनंत
दुर्योधन राजतिलक चाहे एवम् पांडव पुत्र अंत

दुर्योधन की दुर्बुद्धि यही देख रहा हूं छाएगी
वो दिन दूर नहीं जब कोई विनाश विपत्ति आएगी
एक ओर धनंजय, युधिष्ठिर, बलवान भीम अति शक्तिघन
एक ओर धृतराष्ट्र पुत्र शत कुरु दुश्शासन, दुर्योधन

सबने देखा ही तो था वह रंगभूमि में क्रुद्ध कर्ण  
क्षिप्र हस्त, दुर्योधन मनहर, नित चाहता कौंतेय मरण
आए हैं भू भार हरण हरि, माधव सुदर्शनचक्रधर
पापी का नाश करेंगे ही अद्भुत कोई लीला कर

नियति गति मैं देख रहा हूं महाघोर इक होगा रण
चारों ओर काल का तांडव वीरों का चहु ओर मरण
सहस्त्र सम्मुख शक्ति से शक्ति, उगलेंगी ज्वाला प्रचंड
मुद्गर, मुशल, गदा, शूल, खड़्ग, मल्ल युद्ध प्रबल भुज-दण्ड

रथी, महारथी, अश्व, कुंजर अति विशिष्ट व्युह संरचना
समर भूमि रही रक्त पिपासु नीति, अनीति, छल, वंचना
भीष्म, द्रुपद, कर्ण, शल्य जहां विराट, जयद्रथ जाएंगे
वहां एकलव्य जैसे बालक कहां मान फिर पाएंगे

शब्द भेद विद्या से केवल जीता जा सकता नहीं समर
आग्नेय, ब्रह्मशक्ति, पर्जन्य, वह्नि विच्छुरित करते शर
ऐसे वीर भी हैं धरती पर रखते निषंग तीन बाण
किन्तु चराचर में द्रोही के स्मर्थ हत करने को प्राण

माना बनता वो एकलव्य वीर धनुर्धर अतिभारी
पर माधव से बचा नहीं था कालयवन सा वरधारी
धनुधरों के भार से अब तो धरती ये अकुलाती है
अपने युग में कुछ ही योद्धा संसृति हृदय लगाती है

श्री न वरण करती एकलव्य जान गया था इस रण में
पर मैं चाहता था शिष्य की रहे चमक रज कण कण में
इसीलिए मांगा अंगूठा विचारित दक्षिणा प्रसाद
अमर रहे वह हिरण्यधनु सुत, रहे ज्योति नित निर्विवाद

एकलव्य का अंगुष्ठ दान, प्रसिद्धि वो पा जाएगा
शीश कटा जो महायुद्ध में धनुर्धर नहीं पाएगा‌
ये मत सोचो अहित किया है, कुकृत्य किया है अनय का
देखो गुंजित नाम आज है, निषाद सुलेखा तनय का

डॉ. राजपाल शर्मा ‘राज’

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