दरीबा कलां और 200 रुपये सेर जलेबी

951b_o_43चांदनी चौक इलाके में दरीबा कलां के नुक्कड़ पर है, पुरानी जलेबी वाले की दुकान। साहब, यह दुकान 138 वर्ष पुरानी है! और इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी भर है कि यहां बा-मुश्किल से दो लोग बैठते हैं। जिनमें एक जलेबी तलने का काम करता रहता है। दूसरा दुकान की गद्दी संभाले रहता है।यहां गर्म-गर्म जलेबी का लुत्फ उठाने वालों को दुकान के बाहर ही खड़ा होना पड़ेगा। इसके बावजूद दरीबा कलां डाकघर के निकट स्थित इस दुकान की खूब ख्याति है। चांदनी चौक से लौटने पर यार-दोस्त जरूर पूछते हैं- भई, वहां जलेबी खाया या नहीं!

इन दिनों दुकान कैलाश चंद्र जैन की देख-रेख में रफ्तार पकड़े हुए है। घंटा भर वहां खड़ा रहा। कैलाश साहब बड़े व्यस्त दिखे। वक्त देखकर तपाक से मेरे पूछने पर उन्होंने बताया, “हमारे पुरखे यानी नेम चंद्र जैन ने इस दुकान को खोला था। वह सन् 1870-71 का जमाना था । तब से अब तक इस इलाके में कई जरूरी बदलाव हुए। लेकिन, यह दुकान अपनी रफ्तार पकड़े हुए है।”

दुकान की पूरी काया देखने पर मालूम पड़ता है कि यहां भी वक्त के साथ जरूरी बदलाव किए गए हैं। रंग-रौगन होते रहे हैं। पर, तंग जगह होने के बावजूद कैलाश जी ने कायदे से जगह का इस्तेमान किया है। आस-पास कूड़ा न फैले इसका भी खूब इंतजाम है।

वैसे, यहां की जलेबी थोड़ी महंगी तो है। लेकिन, जिसने भी इसका स्वाद लिया, वह इसका मुरीद बन गया। दोबारा अपनी जेब ढ़ीली करने से नहीं हिचकिचाता है। कैलाश चंद्र ने बताया, “हमारे यहां दो सौ रुपये प्रति किलोग्राम की दर से जलेबी मिलती है। लोग बड़े चाव से जलेबी खाते हैं और अपने परिजनों के लिए भी लेकर जाते हैं।”

महांगाई के बाबत वे कहते हैं, ” भई महांगी तो है। पर, आज सस्ता ही क्या रह गया है जनाब।” कैलाश जी की बातें तब सच मालूम पड़ती हैं, जब डाकघर के नीचे खड़े होकर देर तक उनकी दुकान में आने-जाने वालों को गौर से देखाता रहता हूं। चांदनी चौके के कई छोटे-बड़े बदलाव की गवाह यह दुकान रोजना सुबह साढ़े आठ बजे मेहमानवाजी के लिए तैयार हो जाती है। और रात के साढ़े नौ बजे तक अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है।

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