कविता

चिन्ता और चिता में अन्तर

चिन्ता ही चिता समान है।
चिता मौत का फरमान है।।

चिन्ता जिंदे को जलाती है।
चिता मुर्दे को जलाती है।।

चिता ही अंतिम सच है।
चिन्ता पहला ही सच है।।

चिता को दो गज जमीन चाहिए।
चिन्ता को केवल दिमाग चाहिए।।

चिता में आदमी जलता है।
चिन्ता में आदमी घुलता है।।

चिता तो एक बार जलाती है।
चिन्ता तो बार बार जलाती है।।

चिता तन को जलाती है।
चिन्ता मन को जलाती है।।

चिता लकड़ियों में पहुंचाती है।
चिन्ता, चिता तक पहुंचाती है।।

चिता में बिंदी नही लगती है।
चिंता में बिंदी पहले लगती है।।

चिता,चिन्ता से अच्छी है।
चिन्ता रोगों की गुच्छी है।।

आर के रस्तोगी