पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण : भारत की बौद्धिक अस्मिता का संकल्प

बौद्धिक संपदा

“डिजिटलीकरण से सुरक्षित होगी धरोहर, रुकेगी बौद्धिक चोरी, और खुलेगा राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मार्ग”

भारत की प्राचीन पांडुलिपियाँ केवल कागज़ पर लिखे शब्द नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की आत्मा हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन और कला का अनमोल खजाना है। उपेक्षा और उपनिवेशकाल की लूट ने इन्हें खतरे में डाल दिया। प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समयानुकूल है। डिजिटलीकरण से संरक्षण, शोध और वैश्विक स्तर पर भारत की बौद्धिक अस्मिता सुनिश्चित होगी। यह केवल सांस्कृतिक परियोजना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत एक ऐसा देश है जिसकी पहचान उसकी सभ्यता और सांस्कृतिक परंपरा से होती है। यहाँ हजारों वर्षों से ज्ञान की धारा निरंतर बहती रही है। वेदों और उपनिषदों से लेकर आयुर्वेद, गणित, खगोल, साहित्य और संगीत तक, हमारी पांडुलिपियों ने विश्व को वह दिया है जो आज भी अद्वितीय और अनुपम है। किंतु इस धरोहर को व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित करने और दुनिया तक पहुँचाने में हम बार-बार चूकते रहे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हालिया कथन कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, अत्यंत प्रासंगिक और दूरदर्शी है। यह कथन केवल तकनीकी समाधान की ओर इशारा नहीं करता, बल्कि हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का संकल्प भी है।

भारतीय पांडुलिपियाँ केवल कागज़ या ताड़पत्र पर लिखे शब्द नहीं हैं। वे समाज की स्मृति हैं, परंपराओं की कहानी हैं और ज्ञान की धरोहर हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, खगोल, दर्शन और कला से लेकर जीवनशैली तक का संपूर्ण अनुभव सुरक्षित है। आयुर्वेद की पांडुलिपियों में आज भी ऐसी औषधियों और चिकित्सा विधियों का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रासंगिकता आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है। गणित और खगोल से संबंधित पांडुलिपियों में शून्य, दशमलव और ग्रह-नक्षत्रों की गति का इतना विस्तृत विवरण है कि पश्चिमी जगत ने उनसे प्रेरणा लेकर अपने वैज्ञानिक शोध को दिशा दी। संगीत और नृत्य की पांडुलिपियाँ हमारी कलात्मक परंपरा को जीवित रखने का आधार हैं।

दुर्भाग्य यह रहा कि इन पांडुलिपियों की रक्षा के मामले में हम लापरवाह साबित हुए। उपनिवेशकाल में अंग्रेज और अन्य यूरोपीय विद्वान यहाँ से अनगिनत ग्रंथ ले गए। उन्होंने उनका अध्ययन किया और कई बार उनके अनुवाद अपने नाम से प्रकाशित कर दिए। योग और ध्यान की पद्धतियाँ, जो भारत की आत्मा हैं, विदेशों में अलग रूप में प्रस्तुत की गईं और उनसे भारी व्यावसायिक लाभ उठाया गया। आयुर्वेदिक नुस्खों और औषधीय पौधों पर विदेशी पेटेंट दर्ज हुए। हल्दी और नीम जैसे सामान्य ज्ञान पर भी कंपनियों ने अपना अधिकार जताने का प्रयास किया। यह सब हमारे लिए चेतावनी है कि यदि हम अपने ज्ञान की रक्षा नहीं करेंगे, तो दुनिया उसे हड़प लेगी।

यही वह संदर्भ है जिसमें डिजिटलीकरण का महत्व बढ़ जाता है। जब कोई पांडुलिपि डिजिटल रूप में दर्ज होगी तो उसका स्रोत और स्वामित्व स्थायी रूप से भारत के नाम पर रहेगा। यह बौद्धिक चोरी को रोकने का सबसे प्रभावी साधन होगा। इसके अतिरिक्त, डिजिटलीकरण से पांडुलिपियाँ सुरक्षित रहेंगी। समय, नमी, कीड़े और तापमान परिवर्तन से कागज़ व ताड़पत्र पर लिखी पांडुलिपियाँ क्षरण का शिकार होती हैं। डिजिटलीकरण उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित रखेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि डिजिटलीकृत सामग्री दुनिया भर के शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों को उपलब्ध होगी। भारत का ज्ञान केवल संग्रहालयों की अलमारियों में बंद न रहकर वैश्विक मंच पर जीवंत रूप में सामने आएगा।

यह कार्य आसान नहीं है। भारत में अनुमानतः पचास लाख से अधिक पांडुलिपियाँ हैं। वे अलग-अलग भाषाओं और लिपियों में लिखी गई हैं—संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उर्दू, अरबी, फ़ारसी और अन्य भाषाओं में। कई लिपियाँ अब प्रचलन से बाहर हैं। उन्हें पढ़ना, समझना और डिजिटलीकरण करना विशेषज्ञता की मांग करता है। प्रामाणिकता बनाए रखना भी चुनौती है। अनुवाद या डिजिटल स्कैनिंग के दौरान यदि त्रुटियाँ रह गईं तो मूल ज्ञान विकृत हो सकता है। इसके अतिरिक्त, इतने बड़े कार्य के लिए वित्तीय संसाधन, प्रशिक्षित विशेषज्ञ और आधुनिक तकनीक की भी भारी आवश्यकता होगी।

सरकार ने राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन जैसी पहल की है, जो सराहनीय कदम है। परंतु यह कार्य केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, निजी संगठनों और तकनीकी विशेषज्ञों को भी इसमें भागीदारी करनी होगी। आधुनिक तकनीक का पूरा उपयोग करना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकें न केवल डिजिटलीकरण को आसान बना सकती हैं, बल्कि डेटा की सुरक्षा और खोजने की प्रक्रिया को भी विश्वसनीय बना सकती हैं।

यहाँ हमें वैश्विक अनुभव से भी सीखना चाहिए। यूरोप में “Europeana” परियोजना के तहत लाखों दस्तावेज और कला कृतियाँ ऑनलाइन उपलब्ध कराई गईं। अमेरिका और जापान ने भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर का डिजिटलीकरण कर उसे वैश्विक स्तर पर साझा किया। इन प्रयासों ने उन देशों की बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया। भारत यदि इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाता है, तो वह न केवल अपनी धरोहर को बचा सकेगा बल्कि विश्व को यह दिखा सकेगा कि ज्ञान की वास्तविक जन्मभूमि कहाँ है।

प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर भूपेन हजारिका का भी स्मरण किया। यह स्मरण केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि गहरी प्रतीकात्मकता रखता है। हजारिका ने अपने गीतों और संगीत के माध्यम से असम और भारत की आत्मा को स्वर दिया। उनकी रचनाएँ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का स्रोत थीं। वे हमें यह बताते हैं कि संस्कृति जीवित रहे तो समाज जीवित रहता है। जिस प्रकार हजारिका की रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देंगी, उसी प्रकार पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण हमारी बौद्धिक स्मृतियों को अमर बनाएगा।

इस संदर्भ में यह भी समझना होगा कि डिजिटलीकरण केवल संरक्षण का कार्य नहीं है। यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है। जब हम अपने ज्ञान को आधुनिक तकनीक से जोड़ेंगे, तब हम आत्मनिर्भर भारत के उस स्वप्न को साकार करेंगे, जिसमें परंपरा और नवाचार दोनों साथ चलते हैं। यह न केवल हमारी पहचान को सुदृढ़ करेगा बल्कि हमें वैश्विक मंच पर ज्ञान के वास्तविक स्वामी के रूप में स्थापित करेगा। यह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर भी बड़ा कदम होगा।

आज की दुनिया में प्रतिस्पर्धा केवल आर्थिक संसाधनों या सैन्य शक्ति की नहीं है। प्रतिस्पर्धा इस बात की भी है कि किसके पास अधिक मौलिक ज्ञान और बौद्धिक संपदा है। यदि भारत अपनी पांडुलिपियों को डिजिटलीकृत कर उनका पेटेंट और स्वामित्व सुरक्षित कर लेता है, तो वह बौद्धिक संपदा की इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अग्रणी बन सकता है। इसके अलावा, यह हमारी युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का भी साधन बनेगा। जो पीढ़ी आज इंटरनेट और मोबाइल की दुनिया में पल रही है, उसे तभी अपनी परंपरा से वास्तविक परिचय मिलेगा जब वह उसे डिजिटल रूप में देखेगी, पढ़ेगी और समझेगी।

पांडुलिपियाँ केवल अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि ज्ञान कभी स्थिर नहीं रहता। उसे समयानुकूल सुरक्षित, संरक्षित और साझा करना आवश्यक है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी धरोहर केवल संग्रहालयों में बंद रह जाएगी और दुनिया उससे वंचित रह जाएगी। डिजिटलीकरण उस सेतु का काम करेगा जो अतीत की गहराई को भविष्य की संभावनाओं से जोड़ता है।

निस्संदेह, पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण एक लंबा और कठिन कार्य है। परंतु यह वही कार्य है जिससे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और बौद्धिक स्वाभिमान जुड़ा हुआ है। यह केवल किताबों और कागज़ों को सुरक्षित रखने का प्रश्न नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा और पहचान को बचाने का संकल्प है। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन कि डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समय की पुकार है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार, समाज और तकनीकी विशेषज्ञ मिलकर इसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दें।

पांडुलिपियाँ हमारी स्मृति हैं। उनका डिजिटलीकरण हमें यह विश्वास दिलाता है कि भारत केवल अतीत की भूमि नहीं है, बल्कि भविष्य की दिशा भी है। जब हम अपने ज्ञान को संरक्षित करेंगे और उसे आधुनिक तकनीक से दुनिया तक पहुँचाएँगे, तब सचमुच भारत उस स्थान पर पहुँचेगा जहाँ वह सदियों से होना चाहिए था—ज्ञान का वैश्विक नेतृत्वकर्ता।

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