पंकज जायसवाल
आज का अर्थशास्त्र केवल उत्पादन, पूंजी और लाभ के समीकरण पर केंद्रित हो गया है लेकिन जब हम सामाजिक न्याय की दृष्टि से अर्थशास्त्र को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि लाभ का वितरण केवल पूंजीपति तक सीमित नहीं रहना चाहिए। आर्थिक न्याय का अर्थ है प्रत्येक योगदानकर्ता को उसके हिस्से का न्यायसंगत प्रतिफल मिले। यही विचार सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र की नींव है।
किसी भी बिजनेस में निवेशकर्ता के दो रूप होते हैं जैविक और अजैविक निवेशक. जैविक निवेशक वे होते हैं जो किसी न किसी रूप में जीवन, श्रम या चेतना से जुड़े होते हैं। इनमें तीन प्रमुख वर्ग आते हैं. पहला मालिक जो पूंजी का निवेश करता है और उद्यम का स्वामी होता है। दूसरा श्रमिक वर्ग जो अपना श्रम, कौशल और समय लगाता है, और तीसरा प्रकृति जो भूमि, जल, हवा, खनिज, पर्यावरण आदि के रूप में उत्पादन में योगदान देती है।
अजैविक निवेशक वे होते हैं जिनमें चेतना या संवेदना नहीं होती जैसे मशीन, तकनीक, उपकरण और पूंजीगत ढांचा। अर्थशास्त्र की पारंपरिक धारा ने अब तक मालिक को ही वास्तविक निवेशक माना और श्रमिक तथा प्रकृति के योगदान को मात्र लागत के रूप में गिना। यह दृष्टिकोण अधूरा और अन्यायपूर्ण है क्योंकि श्रमिक और प्रकृति दोनों ही उत्पादन की रीढ़ हैं। इनके बिना पूंजी या मशीनें निष्क्रिय वस्तुएं मात्र हैं।
सामाजिक न्यायिक दृष्टिकोण से पूंजी का पुनर्परिभाषण आवश्यक है. सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र के तहत मेरा मानना है कि किसी भी उत्पादन प्रणाली में केवल पूंजी ही पूंजी नहीं है। श्रम भी एक पूंजी है और प्रकृति भी निवेशक है. चैतन्य निवेशक के रूप में इनका भी कुछ ना कुछ योगदान रहता है। इसलिए लाभ का वितरण इन तीनों के बीच न्यायसंगत होना चाहिए।
आज मशीन और तकनीक के बढ़ते प्रयोग ने जहाँ उत्पादन को तीव्र किया है, वहीं रोजगार को सीमित भी किया है। यह आर्थिक असंतुलन का संकेत है। मशीनें मनुष्य का स्थान नहीं ले सकतीं, परंतु मशीन के उपयोग से यदि श्रम का अवसर घटता है, तो उस हानि की आर्थिक भरपाई को श्रमिक को लाभांश के रूप में मिलनी चाहिए। यही श्रमिक लाभांश”* का सिद्धांत सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र में आता है। श्रमिक किसी भी उत्पादन का सक्रिय भागीदार होता है। उसका योगदान भौतिक पूंजी जितना ही महत्त्वपूर्ण है परंतु पारंपरिक औद्योगिक ढांचे में श्रमिक को केवल वेतन मिलता है, लाभ का अधिकार नहीं।
यह असमानता सदियों से औद्योगिक वर्ग संघर्ष का मूल कारण रही है। यदि श्रमिक को उत्पादन में साझेदारी दी जाए तो उसका दृष्टिकोण केवल काम करने वाले मजदूर का नहीं, बल्कि सह-स्वामी का होगा। इससे श्रमिक की उत्पादकता बढ़ेगी, कार्य के प्रति निष्ठा बढ़ेगी और सामाजिक सामंजस्य स्थापित होगा। यह प्रणाली न केवल श्रमिक के प्रति न्यायसंगत होगी, बल्कि उत्पादन प्रक्रिया में नैतिक संतुलन भी स्थापित करेगी।
प्रकृति भी हर उत्पादन में अपनी भूमिका निभाती है, भूमि, जल, हवा, ऊर्जा और खनिज के रूप में। सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र कहता है कि यदि हम प्रकृति को केवल संसाधन के रूप में उपयोग करेंगे और उसका पुनर्भरण नहीं करेंगे, तो यह भी आर्थिक अन्याय है। इसलिए, लाभांश का एक निश्चित अंश प्रकृति पूंजी कोष बना उसमें जमा किया जाना चाहिए, जो पर्यावरण पुनर्स्थापन, वृक्षारोपण, और जल संरक्षण में लगाया जाए। यह न केवल पारिस्थितिक संतुलन बनाएगा बल्कि आने वाली पीढ़ियों के प्रति उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित करेगा।
अब तक पूंजीवादी अर्थशास्त्र में केवल रिटर्न ऑन कैपिटल का सिद्धांत था। सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र कहता है कि इसके साथ रिटर्न ऑन लेबर और रिटर्न ऑन नेचर भी जोड़ा जाए। ऐसा करने से तीन लाभ होंगे पहला श्रमिक वर्ग की आय में वृद्धि और सामाजिक सुरक्षा होगी. दूसरा उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिक की प्रेरणा और उत्पादकता में वृद्धि। समाज में धन के न्यायपूर्ण वितरण से आर्थिक असमानता में कमी।
आधुनिक दौर में जब ऑटोमेशन, रोबोटिक्स और AI तेजी से बढ़ रहे हैं, श्रमिकों का रोजगार खतरे में है। यदि श्रमिक को उत्पादन से होने वाले लाभ में हिस्सेदारी दी जाए तो यह मानव और मशीन के बीच आर्थिक संतुलन कायम रखेगा। इस मॉडल को समावेशी पूंजीवाद या सहभागी अर्थव्यवस्था कहा जा सकता है जहाँ हर सहभागी को उसके योगदान का प्रतिफल मिलता है।
सरकार को श्रमिक लाभांश यह प्रकृति लाभांश के रूप में रिटर्न ऑन लेबर और रिटर्न ऑन नेचर को कॉर्पोरेट गवर्नेंस के हिस्से के रूप में मान्यता देनी चाहिए। कार्बन क्रेडिट का विस्तार पूर्वक लागू कर इसे वाकई में सफल बनाना चाहिए. उद्योगों में Employee Profit Participation Scheme (EPPS) “कर्मचारी लाभ भागीदारी योजना” भी लागू की जा सकती है। साथ ही, श्रम एक पूंजी के रूप के अवधारणा को वित्तीय नीति में स्थान दिया जाए, जिससे श्रमिक को केवल वेतनभोगी नहीं बल्कि आर्थिक हिस्सेदार माना जाए।
इस प्रकार सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र केवल अर्थशास्त्र नहीं, यह एक मानव-केन्द्रित दर्शन की बात करता है। यह बताता है कि पूंजी, श्रम और प्रकृति तीनों के बिना उत्पादन अधूरा है, अतः लाभ का वितरण भी तीनों के बीच न्यायसंगत होना चाहिए। जब श्रमिक को लाभ में हिस्सा मिलेगा, प्रकृति को पूंजी के रूप में सम्मान मिलेगा और मालिक को न्यायपूर्ण लाभ मिलेगा तभी सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय और आर्थिक संतुलन स्थापित होगा।
इसी से एक ऐसी अर्थव्यवस्था का जन्म होगा जो केवल वृद्धि दर (Growth Rate) से नहीं बल्कि न्याय दर (Justice Rate) और हैप्पीनेस इंडेक्स से भी मापी जाएगी और यही होगा सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र का वास्तविक उद्देश्य।
पंकज जायसवाल