समाज

तलाक : बदलती प्रवृत्ति और न्यायपालिका

पवन शुक्ला (अधिवक्ता)

भारत में तलाक की नदी अब धीमी-धीमी नहीं, तेज बहती नजर आती है — और उस नदी के किनारे बैठकर हम सिर्फ आँकड़े नहीं देख सकते; हमें उन घरों, बच्चों, और अदालतों की टूटी हुई खिड़कियों से बहती आशाओं की गूँज सुननी होगी। पारंपरिक हिसाब से भारत की तलाक दर कम मानी जाती रही — अक्सर लगभग 1% बताया जाता है — पर यह नंबर वास्तविक जीवन की पीड़ा और बदलते व्यवहार का पूरा चित्र नहीं देता। शहरी केंद्रों में पिछले दशक में तलाक के मामलों में 30–40% तक की वृद्धि जैसे संकेत मिल रहे हैं, और फेमिली कोर्ट की संख्या बढ़ाने की नौबत आ रही है क्योंकि मामलों का बोझ बढ़ गया है।
भारत में तलाक अब केवल निजी निर्णय या पारिवारिक विफलता की कहानी नहीं रहा। यह एक ऐसा सामाजिक यथार्थ बन चुका है, जो न्यायपालिका के कक्षों, बच्चों के मनोविज्ञान और समाज की सामूहिक चेतना—तीनों को एक साथ प्रभावित कर रहा है। अब यह प्रवृत्ति छोटे शहरों और ग्रामीण अंचलों तक फैल रही है। अदालतें गवाह हैं कि विवाह अब केवल निभाया जाने वाला सामाजिक कर्तव्य नहीं रहा, बल्कि सम्मान, मानसिक शांति और व्यक्तिगत गरिमा से जुड़ा प्रश्न बन चुका है।

बदलते कारण, बदलता न्यायिक दृष्टिकोण

आज अदालतों में आने वाले तलाक के मामलों के पीछे कारण पहले से कहीं अधिक जटिल हैं। आर्थिक स्वतंत्रता, विशेषकर महिलाओं की, इस बदलाव का सबसे बड़ा कारक बनकर उभरी है। शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाएं अब उस विवाह को ढोने को तैयार नहीं, जिसमें अपमान, उपेक्षा या मानसिक हिंसा हो। यही कारण है कि परिवार न्यायालयों में बड़ी संख्या में याचिकाएँ महिलाओं द्वारा दायर की जा रही हैं।

न्यायपालिका के लिए यह बदलाव आसान नहीं रहा। लंबे समय तक भारतीय अदालतें विवाह-संस्था की स्थिरता को प्राथमिकता देती रहीं। सुलह, समझौते और पुनर्मिलन पर ज़ोर दिया गया। लेकिन हाल के वर्षों में न्यायिक भाषा में एक मानवीय बदलाव दिखता है। कई फैसलों में यह स्वीकार किया गया है कि यदि विवाह भावनात्मक रूप से पूरी तरह टूट चुका है, तो केवल सामाजिक दबाव के कारण दो व्यक्तियों को साथ रहने के लिए बाध्य करना न्याय नहीं है।

परिवार न्यायालयों में रोज़ ऐसे मामले आते हैं, जहां पति-पत्नी वर्षों से अलग रह रहे होते हैं, संवाद पूरी तरह समाप्त हो चुका होता है, और फिर भी कानूनी रूप से विवाह जीवित माना जाता है। ऐसे मामलों में न्यायाधीशों के सामने यह नैतिक दुविधा होती है कि वे विवाह को बचाने की कोशिश करें या व्यक्तियों को गरिमापूर्ण जीवन की स्वतंत्रता दें। यह दुविधा कानून की किताबों में नहीं, बल्कि जज के विवेक में हल होती है।

अदालतें और बच्चों का भविष्य

तलाक का सबसे भारी बोझ बच्चों के कंधों पर आ पड़ता है, और न्यायपालिका इस सच्चाई से भली-भांति परिचित है। हालिया अध्ययनों से संकेत मिलता है कि तलाकशुदा माता-पिता के बच्चों में चिंता, अवसाद, व्यवहार संबंधी समस्याएं और सामाजिक अलगाव का जोखिम अधिक होता है। भारतीय संदर्भ में यह स्थिति और जटिल हो जाती है, क्योंकि यहां बच्चों को केवल माता-पिता के अलगाव से नहीं, बल्कि सामाजिक टिप्पणियों और कलंक से भी जूझना पड़ता है।

अदालतों में कस्टडी के मामलों के दौरान यह प्रश्न बार-बार उठता है—बच्चे का हित आखिर है क्या? क्या आर्थिक रूप से सक्षम अभिभावक के पास रहना ही पर्याप्त है, या भावनात्मक स्थिरता अधिक महत्वपूर्ण है? कई मामलों में न्यायाधीशों ने यह महसूस किया है कि माता-पिता का आपसी संघर्ष बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को गहरे स्तर पर नुकसान पहुंचा रहा है।

एक वास्तविक परिदृश्य में, जब माता-पिता तलाक के बाद भी एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी लड़ाई को हथियार बनाते हैं, तब बच्चा केवल एक ‘मामला’ बनकर रह जाता है। ऐसे मामलों में अदालतें धीरे-धीरे यह समझने लगी हैं कि केवल आदेश देना पर्याप्त नहीं, बल्कि परामर्श, सह-अभिभावकत्व और संवेदनशील निगरानी भी आवश्यक है।

न्यायिक दुविधा और कोर्ट रूम की भावनाएं

तलाक के मुकदमे बाहर से भले ही तकनीकी लगें, पर कोर्ट रूम के भीतर वे अत्यंत भावनात्मक होते हैं। वकीलों की दलीलों के बीच कभी-कभी वर्षों की चुप्पी, अपमान और टूटे भरोसे की आवाज़ गूँजती है। न्यायाधीशों के लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं होता कि कौन सच बोल रहा है और कौन अपनी पीड़ा को रणनीति बना रहा है।

कई मामलों में देखा गया है कि पति-पत्नी तलाक चाहते हैं, पर परिवार और समाज के दबाव में पीछे हटते हैं, फिर दोबारा अदालत आते हैं। कुछ केसों में आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दी जाती है, पर बाद में कस्टडी या गुज़ारा भत्ता जैसे मुद्दों पर टकराव बढ़ जाता है। ऐसे में न्यायपालिका केवल कानून लागू करने वाली संस्था नहीं रह जाती, बल्कि एक तरह का नैतिक मध्यस्थ बन जाती है।

न्यायिक व्यवस्था की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि फेमिली कोर्ट्स पर मामलों का अत्यधिक बोझ है। सीमित समय और संसाधनों में हर केस को वह संवेदनशीलता देना कठिन हो जाता है, जिसकी उसे ज़रूरत है। फिर भी कई जज अपने आदेशों में यह स्पष्ट करने लगे हैं कि विवाह बचाना तभी सार्थक है, जब उसमें सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षित हो।

समाज, महिलाए‌ं और रिश्तों की नई परिभाषा

तलाक का बढ़ना भारतीय समाज के लिए एक गहरा संकेत है। यह केवल रिश्तों के टूटने की कहानी नहीं, बल्कि रिश्तों की परिभाषा बदलने की प्रक्रिया है। महिलाएं आज तलाक की पहल अधिक कर रही हैं, क्योंकि उनके पास विकल्प हैं—शिक्षा, रोजगार और आत्मनिर्भरता। लेकिन इस पहल की कीमत उन्हें सामाजिक स्तर पर अब भी चुकानी पड़ती है।

ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत में तलाक भले ही कानूनी रूप में कम दिखे, पर अलग रहना, मायके में लौट जाना या अनौपचारिक अलगाव आम होता जा रहा है। इसका असर बुजुर्गों पर पड़ता है, संयुक्त परिवारों की संरचना बदलती है और बच्चों का सामाजिक संसार सीमित होता है।

रिश्तों की नई पीढ़ी विवाह को अंतिम लक्ष्य नहीं, बल्कि जीवन के एक पड़ाव के रूप में देख रही है। यह दृष्टि कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ावा देती है, पर साथ ही अकेलेपन और सामाजिक दूरी की चुनौतियां भी सामने लाती है। न्यायपालिका इस पूरे परिवर्तन को न तो रोक सकती है, न पूरी तरह दिशा दे सकती है, पर वह इसे मानवीय बना सकती है।

अंततः प्रश्न यह नहीं है कि तलाक बढ़ क्यों रहा है, बल्कि यह है कि हम उससे कैसे निपटते हैं। समाधान केवल कानून बदलने से नहीं आएंगे। अदालतों में अनिवार्य परामर्श, बच्चों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहयोग, सह-अभिभावकत्व को प्रोत्साहन और परिवार न्यायालयों की क्षमता बढ़ाना आवश्यक है। समाज को भी तलाक को केवल विफलता के रूप में देखने के बजाय एक कठिन, पर कभी-कभी आवश्यक निर्णय के रूप में समझना होगा।

न्यायपालिका के लिए यह समय संवेदनशील न्याय का है—जहां निर्णय केवल धाराओं पर नहीं, बल्कि इंसानी पीड़ा, बच्चों के भविष्य और समाज की दीर्घकालिक सेहत पर आधारित हों। यदि अदालतें, समाज और परिवार मिलकर इस बदलाव को समझदारी से संभाल पाए, तो शायद टूटते रिश्तों के बीच भी मानवीय गरिमा को बचाया जा सकेगा।