राजनीति

इतिहास से भी सबक नहीं लेते…. – पंकज झा.

इस धर्मप्राण देश में ऐसी घटनाएं होती रहती है कि सहसा ही इश्वर पर भरोसा करने का मन हो जाए. कभी किसी सकारात्मक तो बहुधा नकारात्मक कारणों से. खास कर जब भी आप देश के कर्णधार नेताओं के बारे में सोचेंगे तो ज़रूर भरोसा दुगना हो जाएगा कि वास्तव में भगवान नाम की कोई ताकत तो ज़रूर है, नहीं तो रीढ़ विहीन नेताओं की भरमार वाले इस देश के अधिकाँश लोग ज़िंदा नहीं रहते. बात अभी बिहार का. समूचे समाचार माध्यमों पर माओवादियों द्वारा अपहृत कर मारे गए जवान, उनके परिवार का क्रंदन, साथ ही बंधक जवानों के परिवार का बुरा हाल देख कर जितना रोना नहीं आ रहा है उससे ज्यादा गुस्सा अपने नेताओं पर आता है. अभी हालाकि शेष बचे बंधकों के रिहाई की बात सामने आ रही है लेकिन इस फौरी राहत से देश के चैनो-सुकून वापसी की उम्मीद नहीं है. जिस देश में क्षुद्र लाभ के लिए बार-बार स्टेंड बदलने वाले नेताओं का ज़खीरा हो वहां आखिर उम्मीद किससे की जाय ?

      अभी जब मुख्यमंत्री नितीश कुमार माओवादियों से आर-पार की लड़ाई की बात कर रहे हैं तो मात्र कुछ महीने पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में नितीश के कहे गए शब्दों को याद करें. उस महत्वपूर्ण बैठक में जहां नक्सलियों के सफाया की रणनीति तैयार होनी थी वहां कुमार का कहना था कि  “नक्सली तत्व हमारे समाज का हिस्सा हैं. भले ही गुमराह होकर उन्होंने हिंसा का रास्ता पकड़ा है लेकिन केवल ताकत के बल पर हम इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते.’’ ज़ाहिर है इसका मतलब यह हुआ कि केवल माओवादियों से बातचीत ही उपाय है. तो इस तरह अगर कोई मुख्यमंत्री ही आतंरिक सुरक्षा पर सबसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित समूहों के प्रति ऐसा बयान देकर इस लड़ाई को कमजोर करे तो उम्मीद किससे की जाय ?

       हालाकि यह कोई पहला मामला नहीं है. इससे पहले भी नेतागण केवल अपने लाभ या वोटों की राजनीति के मद्देनज़र ही इस मामले में अपना बयान या स्टेंड बदलते रहे हैं. बात चाहे ममता बनर्जी द्वारा रैली कर अपने ही मंत्रालय के ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस जैसे हृदयविदारक हमले के बावजूद मावोवादियों को समर्थन देने की हो या फिर अपने ही मंत्रिमंडल को ‘आज़ाद’ मामले में कठघरे में खड़े करने की. राहुल गाँधी के ओडिशा की सभा में नक्सली उपस्थिति की हो या फिर झारखण्ड में भाजपा द्वारा नक्सल समर्थक झामुमो के समर्थन से सरकार बनाने की. आंध्र प्रदेश में कोंग्रेस द्वारा पीपुल्स वार ग्रुप से समर्थन हासिल करने की हो या फिर शिवराज पाटिल के कपडे बदलने की तरह ही वर्तमान गृह मंत्री चिदंबरम द्वारा बयान पर बयान बदलने की. हर मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि मुट्ठी भर लोगों का गिरोह अगर ना केवल अभय यादव समेत कुछ आरक्षी वलों बल्कि पूरे लोकतंत्र को ही बंधक बनाने में सफल दिख रहे हो तो इसके जिम्मेदार आज की राजनीति के ये लिलिपुट नेतागण और पार्टियां ही है. अगर इनका ढका छुपा और कई बार खुलेआम समर्थन ना हो केवल गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को चुनौती देना संभव ही नहीं.       ना केवल नक्सल मामले में बल्कि किसी भी तरह के आतंक को प्रश्रय तुष्टिकरण कर वोट हासिल करने वाले दुकानदारों द्वारा ही दिया जाता रहा है. दुःख तो इस बात का है कि तात्कालिक लाभ के पचड़े में पड़ ये नेतागण, इतिहास से भी सबक नहीं लेते. कभी अफजल की फांसी में जान-बूझ कर विलम्ब कर तो कभी बाटला हाउस के अपराधियों का बचाव कर. कभी पोटा को समाप्त कर तो कभी घुसपैठियों की आवाजाही को आसान कर. कभी इशरत मुठभेड़ में अपने ही राज्य व्यवस्था को हतोत्साहित कर तो कभी नरसंहार के अपराधी मदनी को रिहा करने के लिए विधानसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर. हर मामले में अपराधी, आतंकी को प्रश्रय देने का खामियाजा भुगत कर भी कर्णधारगण नागरिकों के जान-माल को क्षति पहुचाने का मानो कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते.

      आप गौर करें… खालिस्तान आंदोलन के जिस आतंक की कीमत इंदिरा गाँधी को अपनी जान गवां कर चुकानी पड़ी उसके सरगना भिंडरावाले को बढ़ावा देने का काम खुद श्रीमती गांधी ने ही किया था. आप राजीव हत्याकांड पर जस्टिस मिलाप चंद जैन आयोग की रिपोर्ट पलट कर देख लें तो पता चलेगा कि जिस लिट्टे ने राजीव के चिथरे उड़ा दिए थे उसका माई-बाप प्रभाकरन कभी उन्ही की सरकार के मेहमाननवाजी का पांच सितारा लुत्फ़ उठाता था. आप अपराध के राजनीतिकरण पर वोहरा कमिटी का रिपोर्ट पढ़ें तो पता चलेगा कि किस तरह राजनीतिक दलों को सहयोग करते-करते अपराधी खुद ही नेता बन जाते हैं. लेकिन अफ़सोस तो यह कि नेतागण देश-विदेश के अनुभवों से अब अभी कुछ सीखने को तैयार नहीं हैं.

         इतिहास गवाह है कि जो सद्दाम कभी अमेरिका की आँखों का तारा हुआ करता था वही बाद में उसकी किरकिरी साबित हुआ. जिस ओसामा को पाल-पोस कर अमेरिका ने ‘लादेन’ बना दिया उसी ने उस विश्व के सबसे बड़े ताकत कहे जाने वाले देश को धुल चटाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी. आज भी अमेरिकी घमंड के प्रतीक ट्विन टावर की समतल जगह मानो उस महाशक्ति को धुल चटाते हुए दुनिया को यह सन्देश दे रहा है कि पौराणिक आख्यान में वर्णित ‘भस्मासुर’ का प्रकरण केवल कल्पना मात्र नहीं है.   तो यह तय है कि हर तरह की क्रूर हिंसा में संलग्न अपराधियों का चाहे नाम या चेहरा जो भी हो, ना कोई धर्म होता ना जाति ना वाद और ना ही कोई विचारधारा. वे केवल आतंकी हुआ करते हैं जो कायरों की तरह, मुख्यधारा की चुनौतियों से सामना करने के बजाय ‘मानो या मरो’ का रास्ता अपना लिया करते हैं. अभी बंधकों को मुक्त करने का आधार भले ही माओवादियों ने ‘मानवीय’ बताया हो लेकिन तथ्य यह है कि सरकार द्वारा कड़े कदम उठाये जाने के संकेत ने ही इन्हें ‘मानव’ होने पर विवश किया है. हाँ अगर कोई गुप्त समझौता हो गया तो कहा नहीं जा सकता वरना यही तथ्य इस बात का सबूत है कि अगर सरकारों में दृढ इच्छा शक्ति हो, नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा को नेतागण यदि किसी भी व्यक्तिगत या पार्टीगत लाभ पर तरजीह दें तो निश्चय ही इस मज़बूत लोकतंत्र में यह ताकत है कि वह अपने अस्तित्व पर आये किसी भी चुनौती से पार पा सकता है.       वास्तव में नितीश, ममता समेत नेताओं को यह समझना चाहिए कि ‘लोकतंत्र’ ही उनकी बस्ती है. किसी भी तरीके से आतंक की आग को प्रश्रय देकर वह ना तो देश का भला कर पायेंगे और अंततः खुद भी इसी आग में जलने को अभिशप्त भी होंगे, ना तो इस आसान तरीके से अपना ‘लोक’ सुधार पायेंगे और ना ही ‘परलोक’. ऊपर वर्णित ऐतिहासिक एवं पौराणिक उद्धरण इसी बात की गवाही देते हैं. नीरज की पंक्तियाँ हैं…आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे, जब ना ये बस्ती रहेगी, तू कहाँ रह पायेगा..                             ———————–