विविधा

डॉ. श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी और वर्तमान कश्मीर

डॉ. मुखर्जी बलिदान दिवस(23 जून) पर विशेष

-पंकज झा

क्या आप किसी और ऐसे देश के ऐसे भूभाग को जानते हैं जहां दो प्रधान, दो विधान और दो निशान हो? या आपने कभी ऐसे राष्ट्र की भी कल्पना की है जो दो भाग में बॅटा हो और जिसके मध्य में भारत जैसा सम्प्रभु देश हो? इस तरह का दोनों कमाल हुआ था कोंग्रेस के हाथों, जब भारत की स्वतंत्रता उसे दो टुकड़े कर दिये जाने की शर्त पर मिली थी. हिन्दुस्तान जिसकी सांस्कृतिक एकता की चर्चा करते हुए शास्त्र और पुराण नहीं थकते. आसेतु हिमाचल जिसकी सीमा का निर्धारण युगों युगों से एक वास्तविकता है. अफसोस जब उसकी आजादी का समय आया तो उसके टुकड़े कर दिये गये. और अंततः इसी संस्कृति से प्राण वायु प्राप्त करता पाकिस्तान आज चुनौती बन खड़ा है अपनी ही मातृ राष्ट्र की सम्प्रभुता उसकी अखंडता, शांति, सदभाव एवं सुरक्षा के विरूद्ध.

राष्ट्रीय एकात्त्मता सदा से ही सूत्रवाक्य रहा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके अनुषंगी संगठनों एवं इसी विचारधारा से आप्लावित दलों का भी. जब भारत का बंटवारा निश्चित हो गया तो उस समय के सभी देशी रियासतों के समक्ष तीन विकल्प थे. या तो वे भारत में रहे या पाकिस्तान चले जाए या फिर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उनका अस्तित्व रहे. शुरूआती ना नुकर, सोच विचार के बाद और पाकिस्तानी अमानुषों के क्रूर पंजों से अपने प्रजाजनों को बचाने हेतु जम्मू कश्मीर के तात्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने भारत सरकार को त्राहिमाम संदेश भेजा. फलत: जम्मू कश्मीर राजनतिक रूप से भी भारत का अभिन्न अंग बन गया. एक ऐसे प्रदेश को जो ऋषियों, सूफियों एवं महान संतों का निवास रहा है सदा, हिन्दु आस्थाओं के विभिन्न आयामों को एक सुत्र में पिरोता रहा है अंतत: बनना ही था भारत का अटूट हिस्सा.

अपनी सामरिक एवं सांस्कृति विशेषता के कारण कश्मीर सदा से ही पाकिस्तान की आंख में खटकता रहा. वह इस पुनीत भूमि को हड़पने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता रहा. कश्मीर की अब्दुल्ला सरकार की अलगाववादी नीतियां जारी रही और पं. नेहरू के नेतृत्व में कोंग्रेस सरकार ‘चोर से कहो चोरी कर और साहूकार से कहो जागते रह’ की तुष्टिकरण की नीति अपनाती रही. उस समय भारत के नागरिकों को अपने ही देश के इस अटूट हिस्से में जाने के लिए परमिट लेनी पड़ती थी. इस परमिट को समाप्त कर जम्मू कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बनाने एवं भारत में एक विधान, एक प्रधान एवं एक निशान हेतु आंदोलन की शुरूआत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की एवं तात्कालीन सरकार को समझाने हर प्रयास विफल होने पर बिना परमिट लिये वे निकल पड़े बाबा अमरनाथ की भूमि पर राष्ट्रीय एकता का दिया जलाने. यहॉ यह उल्लेखनीय है कि संघ के द्वितीय प्रमुख श्री गोलवरकर उपाख्य गुरूजी को इस बात का अहसास हो गया था कि डॉ. मुखर्जी लौट कर नहीं आयेंगे. उस भविष्य द्रष्टा ने डॉ. मुखर्जी को पत्रवाहक के द्वारा यह संदेश भिजवाया कि कश्मीर जाना उनके लिए घातक होगा. लेकिन बावजूद उसके डॉ. मुखर्जी ने यात्रा स्थगित नहीं की. वे 8 मई 1953 को दिल्ली स्टेशन पर उन्होंने उपस्थित राष्ट्रजनों के समक्ष सिंह गर्जना की कि जम्मू कश्मीर हमारा अटूट हिस्सा है और रहेगा. हमें वहां जाने के लिए सरकार से आदेश लेने की कोई जरूरत नहीं है. सीमा में प्रवेश करते ही उन्हें बंदी बना लिया गया. हिरासत में उन्हें गंभीर यातनायें दी गई. जिसका परिणाम डॉ. मुखर्जी की मृत्यु के रूप में सामने आया. एक पत्रिका में प्रकाशित संदर्भ के अनुसार जेल में गंभीर यातना दिए जाने के कारण वे अस्वस्थ हो गये और उनके सुपुत्र को भी उनसे मिलने नहीं दिया गया. अंतत: 22 जून का वह काला दिन भी आ गया जब उनकी हालत काफी बिगड़ जाने के बाद दिन के 11 बजे जेल से करीब 20 किलोमीटर दूर उन्हें अस्पताल ले जाया गया. आग्रह करने पर भी उनके किसी सगे संबंधी, शुभचिंतकों को भी उनके साथ नहीं जाने दिया गया. अस्पताल में डॉ. मुखर्जी की अनिच्छा के बावजूद उन्हें ‘स्टेप्ट्रोमाइसिन’ का इंजेक्शन दिया गया. अंतत: 22-23 जून की दरम्यानी रात राष्ट्रवाद का यह अमर पुजारी सदा के लिए सो गया चिरनिद्रा में. मां भारती की सेवा करते करते प्राण न्यौछावर कर दिया उन्होंने अपनी जन्मभूमि की सुरक्षा के निमित्त. डॉ. मुखर्जी की मृत्यु के बाद उनकी माता श्रीमती योगमाया देवी ने पं. नेहरू को पत्र लिखकर कहा कि मैं चाहती हूं कि भारत की जनता इस दु:खपुर्ण घटना के कारणों को जाने और स्वयं इस बात को पहचाने कि इस स्वतंत्र देश में इस दुर्घटना के पीछे किन कारणों में कौन सा भाग तुम्हारी सरकार का है. देश की जनता के सामने सच्चाई लाकर उन्हें ककर्मियों से सतर्क रहने का खुला अवसर दो ताकि मेरे समान भारत की अन्य किसी माता को इस प्रकार के दुख और शोक के आंसू फिर न बहाना पड़े.

मोटी चमड़ी के इन नेताओं पर न श्रीमती योगमाया देवी की इस मार्मिक अपील का कोई असर हुआ और न ही इस आत्मोत्सर्ग पर उनके कान पर कोई जूं रेंगी. परिणामत: आज भी मॉं वैष्णों देवी की भूमि का बड़ा हिस्सा अमानुषों, विधर्मियों का बंधक बनी हुअी है. इस विकराल समस्या के प्रति सभी सरकारें कितनी लापरवाह रही है, यह इसे मात्र एक संदर्भ से समझा जा सकता है. जैसा कि सभी जानते हैं कि तीन-तीन देशों की सीमाओं से घिरे होने के कारण सियाचीन ग्लेशियर सामरिक रूप से कितना महत्वपूर्ण है लेकिन इसके बारे में देश के कर्णधारों का कहना था कि ‘उसके लिए हायतौबा क्यूं सियाचीन में तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता’ ऐसे सामरिक महत्व के कश्मीर जिसका 32 हजार वर्गमील क्षेत्र पाकिस्तान के गैरकानूनी कब्जें में हो, जिसके लद्दाख की 2000 वर्गमील भूमि चीन के कब्जे में हो और आप न केवल नीरों बन चैन की वंशी बजाते रहें अपितु उसे भी साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के एक हथियार के रूप में ही इस्तेमाल करें. जिस कश्मीर को पाने के लिए पाक ने चार-चार बार आक्रमण किया हो, हमें हजारों जवानों के साथ-साथ डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे महान देशभक्त से वंचित होना पड़ा हो. जिसकी बलि देश के एक प्रधानमंत्री तक को भी ताशकंद में चढऩा पड़ा हो. वैसे संवेदनशील मुद्दों पर हम गंभीर नहीं हो, कितनी लज्जा की बात है यह. पीठ में छुरा घोपने का जिस पाकिस्तान का लंबा इतिहास रहा हो उससे निपटने के बजाए हम सम्प्रदायों की राजनीति में उलझें रहें, कितनी घृणास्पद है यह.

जहां भारत के प्रधानमंत्री को यह उदघोषणा कर विश्व को यह बता देनी चाहिए कि संपूर्ण जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और उसकी एक- एक इंच पर बिना तिरंगा फहराये हम चैन से नहीं बैठेंगे. वहां वर्तमान प्रधानमंत्री कश्मीर की स्वायत्तता की वकालत किया जाता रहा है. क्या इससे बढ़कर अपराध भारत के प्रधानमंत्री के लिए और कुछ हो सकता है? यदि देखा जाए तो काश्मीरियों का जितना नुकसान सीमा पार आतं•वाद से हुआ है उतना ही सम्पूर्ण प्रदेश को तथाकथित विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 से भी हुआ है. जिस तरह आतंकवाद के कारण भारत का यह स्वर्ग विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ है, उसी तरह अपने विशेष दर्जा के कारण शेष भारत के लोगों का निर्बाध आवागमन, व्यापार व्यवसाय नहीं कर पाने, जमीन एवं अन्य बुनियादी ढॉचा में निवेश संभव नहीं होने के कारण उदारीकरण के इस जमाने में भी वह देश के विकास से कदमताल नहीं कर पा रहा है. न ही एक भावनात्मक ऐक्य का निर्माण भी संभव हो पा रहा है. ऐसे समय में आवश्यक यह है कि शेष भारत से अनन्य होने हेतु संवैधानिक भावनात्मक एवं अन्य प्रयास किया जाय. इसके बजाय वहां पर स्वायत्तता का राग गाहे-बगाहे अलापते निश्चय ही निंदनीय है. जम्मू-कश्मीर धार्मिक एवं सर्वपथ समभाव का एक उदाहरण रही है. बाबा अमरनाथ की नगरी में शैवमत, मुस्लिम संतों की सुफियाना संगीत से किस तरह समरस हो गया कि यह पता लगाना कठिन है कि कौन सा संगीत बाबा भोलेनाथ को समर्पित है तो कौन सा किसी सूफी संतों का. अत: आतंकवादियों को यह भली भॉति मालूम था कि इस एक्य में अलगाव का बीज बोये बिना एवं हिन्दुओं को उनकी धरती से निर्वासित किये बिना उनकी कुटिल मानसिकता पूरी नहीं हो सकती. तब फिर हिन्दुओं के उत्पीडऩ का दौर शुरू हो गया. अपनी ही मातृभूमि से हिन्दुओं को भगाने के लिए ऐसे ऐसे तरीकों का इस्तेमाल किया गया कि इंसानियत शरमा जाय और आपकी रूह कांप उठे. पूरे परिवार के लोगों को एक कमरे में एकत्र कर जिंदा जला देना, जीवित ही उनका अंग-अंग काट कर अलग कर देना, उनके गुप्तांग काट डालना, बच्चियों के साथ बलात्कार, मां बाप को अपने ही बच्चों का मांस खाने को विवश करना और इसी तरह की दिल दहला देने वाली अकल्पनीय उपद्रवों से अंतत: सदियों से समृद्ध संस्कृतियों को स्वयं में समेटे घाटी के हिन्दुओं को बेदखल करने का अभियान पाकिस्तानी एवं पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा शुरू किया गया और यह अनवरत जारी है.

बहरहाल, विभिन्न सरकारों द्वारा पैदा की गई विसंगतियां, कांग्रेस द्वारा अपनाया जा रहा साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीति, आतंकियों के बुलंद करवाये जा रहे हौसले के बावजूद कश्मीर को भारत का अटूट अंग बने रहने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. बिना परमिट के कश्मीर में में प्रवेश करने के पुर्व 8 मई 1953 को दिल्ली स्टेशन पर ही डा. मुखर्जी ने देशवासियों को आश्वस्त किया था और भविष्यवाणी की थी कि “घबराने की कोई बात नहीं है जीत हमारी ही होगी.”

डा. मुखर्जी ने तो भारत की एकता के लिए अपनी जान कुर्बान कर भारतीयों को यह कहने का नैतिक अधिकार दिया कि “ जहा हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है” लेकिन जब भी हम जम्मू-कश्मीर की चर्चा करें तो निश्चय ही भारत के इस मस्तक की रक्षा करने हेतु आत्मोत्सर्ग करने वाले डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद रखें. पंडित मुखर्जी की शहादत के बाद 28 जून को पांचजन्य में लिखे संस्मरण में पुज्य गुरूजी ने लिखा था “ डा. मुखर्जी के कारण ही कश्मीर संपूर्ण नहीं तो भी उसका वह भाग जो अपनी ओर है, अपनी मातृभूमि में ही रह सका और जनसंघ का अक्षय कीर्ति प्राप्त हुयी.” कोटि-कोटि नमन मातृभूमि के इस सच्चे सपूत को.