इंजीनियरिंग शिक्षा: अब कम होगी कंप्यूटर साइंस की सीटें

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राजेश जैन

पिछले दशक में इंजीनियरिंग की कंप्यूटर साइंस, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, डेटा साइंस, मशीन लर्निंग जैसी टेक्नोलॉजी उन्मुख शाखाएं छात्रों और कॉलेजों, दोनों की पहली पसंद बन गयी थीं। कारण स्पष्ट हैं — उच्च सैलरी, नौकरी के ग्लोबल अवसर, इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी उद्योग की होड़ और डिजिटल इंडिया की महत्वाकांक्षाएं। इस सफलता की चमक ने यह सोच दी कि जितना हो सके सीएसई में सीटें बढ़ाओ। तेलंगाना हाई कोर्ट के ताज़ा फैसले ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है-कितनी बढ़ी हुई सीएसई सीटें अभी मांग के अनुरूप हैं? क्या यह वृद्धि स्थिर है या सिर्फ़ इरादा-मात्र है? अगर यह मांग कम हो गयी तो क्या भविष्य में बेरोज़गारी की लौ में झुलसेंगे छात्र?

हाल ही में तेलंगाना हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें कहा गया कि कंप्यूटर साइंस (सीएसई) की सीटें अब और नहीं बढ़ाई जा सकतीं। जिन कॉलेजों ने मनमानी करते हुए हजारों सीटें जोड़ ली थीं, उनकी संख्या घटाई जाएगी। कोर्ट का तर्क साफ था—मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ना खतरनाक है। तेलंगाना के इस आदेश ने न सिर्फ वहां के प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों को झटका दिया, बल्कि पड़ोसी राज्यों के लिए भी चेतावनी की घंटी बजा दी। खासकर कर्नाटक ने तो तुरंत संकेत दे दिए हैं कि वे भी इसी दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।

क्यों बढ़ी कंप्यूटर साइंस की सीटें?

पिछले कुछ वर्षों में आईटी सेक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा साइंस और मशीन लर्निंग की तेज़ी से बढ़ती मांग ने छात्रों और कॉलेजों, दोनों को आकर्षित किया। यहां प्लेसमेंट पैकेज और नौकरी के मौके ज़्यादा दिख रहे थे। इसलिए सीएसई छात्रों की पहली पसंद बन गई । कॉलेजों ने इसे सुनहरा मौका समझा और एआईसीटी (ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) से अप्रूवल लेकर बड़ी संख्या में सीटें बढ़ानी शुरू कर दीं। कुछ कॉलेजों ने तो हद ही कर दी। जहां पहले 200–300 सीटें थीं, वहां अचानक 1500–2000 सीएसई सीटें कर दी गईं।

एआईसीटी का रोल और विवाद

 एआईसीटी का नियम है कि कोई भी कॉलेज बिना उसकी मंजूरी के सीट नहीं बढ़ा सकता लेकिन हाल के वर्षों में संस्था ने काफ़ी लचीला रवैया अपनाया।

यदि किसी कॉलेज के पास बिल्डिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर है तो उसे सीटें बढ़ाने की इजाज़त मिल जाती थी। कॉलेज इस नियम का फायदा उठाकर बड़ी संख्या में सीटें सीएसई में ट्रांसफर करने लगे। समस्या यह है कि एआईसीटी की मंजूरी तकनीकी आधार पर थी जबकि मार्केट की वास्तविक मांग और भविष्य की संभावनाओं का आकलन नहीं हुआ। यही वजह है कि अब राज्य सरकारें और अदालतें हस्तक्षेप कर रही हैं।

भविष्य की चुनौती: मांग बनाम आपूर्ति

सीएसई और एआई की डिमांड अभी ऊंचाई पर है लेकिन कोई भी मार्केट अनंत नहीं होता। यदि सीटें लगातार बढ़ती रहीं तो कुछ वर्षों बाद बेरोज़गारी का खतरा बढ़ेगा। टेक सेक्टर में छंटनी पहले से देखने को मिल रही है। दूसरी ओर, मैकेनिकल, सिविल, इलेक्ट्रिकल जैसी पारंपरिक शाखाओं में दाख़िला लेने वाले छात्रों की संख्या घट रही है। सरकारों को डर है कि यदि यही ट्रेंड जारी रहा तो भारत के पास पुल बनाने वाले इंजीनियर, स्टील इंडस्ट्री के विशेषज्ञ या इंफ्रास्ट्रक्चर इंजीनियर नहीं बचेंगे।

तेलंगाना से कर्नाटक तक और आगे…

तेलंगाना के फैसले के बाद अब कर्नाटक  के उच्च शिक्षा मंत्री ने कहा है कि वे भी सीएसई सीट फ्रीज़ करने का नियम लाने पर विचार कर रहे हैं। इससे बड़े यानी टीयर-1 शहरों में प्राइवेट कॉलेजों का अनियंत्रित विस्तार रुकेगा और भविष्य की बेरोज़गारी कम होगी। यदि कर्नाटक  ऐसा करता है तो महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों पर भी दबाव बनेगा। और एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो यह पूरे भारत की इंजीनियरिंग शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करेगा।

अब क्या होगा?

सीएसई सीटें घटेंगी तो एडमिशन की दौड़ और भी कठिन हो जाएगी। छात्रों को मजबूरी में अन्य शाखाओं जैसे-मैकेनिकल, सिविल, इलेक्ट्रिकल, केमिकल की ओर रुख करना होगा। कॉलेज भी चालाकी दिखाएंगे और कहेंगे कि सीएसई नहीं तो एआई/डेटा साइंस  ले लो लेकिन सरकारें उन पर भी सीमा तय कर सकती हैं। इसलिए अब वह दौर आने वाला है जब छात्रों को अपनी सोच बदलनी होगी और सिर्फ़ सीएसई पर निर्भर नहीं रहना होगा।

भारत की इंजीनियरिंग शिक्षा का बड़ा सवाल

 भारत में इंजीनियरिंग कॉलेजों की सबसे ज़्यादा संख्या महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में है। यदि इन राज्यों ने सीएसई सीटों पर रोक लगा दी तो राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा असर दिखेगा। इंजीनियरिंग शिक्षा का संतुलन फिर से पारंपरिक शाखाओं की ओर झुक सकता है। इससे इंडस्ट्री की ज़रूरतें भी पूरी होंगी और सभी सेक्टर्स के लिए स्किल्ड इंजीनियर तैयार होंगे।

संतुलन ही समाधान

कंप्यूटर साइंस आज की तारीख में चमकदार ब्रांच है लेकिन हर चमकदार चीज़ हमेशा टिकाऊ नहीं होती। सरकार और कोर्ट की दलील यही है कि सिर्फ़ अल्पकालिक डिमांड देखकर सीटें बढ़ाना दूरदर्शिता नहीं है। छात्रों को भी चाहिए कि वे बाकी शाखाओं की संभावनाओं को समझें। इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्चरिंग, एनर्जी जैसे सेक्टर भी भारत की रीढ़ हैं। आने वाले दो-तीन साल में यह नियम पूरे देश में लागू हो सकता है। ऐसे में छात्रों, अभिभावकों और कॉलेजों को अपनी रणनीति अभी से बदलनी होगी। कुल मिलकर तेलंगाना का कोर्ट यह फैसला भारत के इंजीनियरिंग शिक्षा इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है। यह न सिर्फ़ सीएसई की अंधी दौड़ को थामेगा बल्कि बाकी इंजीनियरिंग शाखाओं को भी नया जीवन देगा।

 राजेश जैन

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