लेखक- पवन शुक्ला अधिवक्ता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) केवल एक संगठन नहीं है, बल्कि एक विचार, एक जीवन पद्धति और राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाने का एक सतत अनुष्ठान है। सामान्यतः किसी भी संगठन की पहचान उसके कार्यालयों, उसके संविधान, या उसके शीर्ष नेतृत्व से होती है। लेकिन संघ के विषय में यह परिभाषा बदल जाती है। संघ की पहचान न तो उसके नागपुर स्थित कार्यालय से है और न ही केवल उसके सरसंघचालक से; संघ की वास्तविक पहचान उसका सामान्य ‘स्वयंसेवक’ है। यह उक्ति कि “संघ का प्रत्येक कार्यकर्ता ‘संघ’ है”, मात्र एक भावनात्मक नारा नहीं है, बल्कि यह उस कठोर तपस्या और जीवन दर्शन का निचोड़ है, जिसे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने 1925 में रोपा था।
व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण
संघ की कार्यप्रणाली का मूल मंत्र है- ‘व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण’। यह प्रक्रिया एक कार्यकर्ता से शुरू होती है। जब एक व्यक्ति शाखा में आता है, तो वह केवल शारीरिक व्यायाम या खेल के लिए नहीं आता, बल्कि वह अपने ‘मैं’ को विसर्जित कर ‘हम’ की भावना को आत्मसात करने आता है।
जब समाज का कोई सामान्य व्यक्ति किसी स्वयंसेवक को देखता है, तो वह उसे केवल एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखता। वह उसके आचरण, उसकी वाणी और उसके व्यवहार में पूरे संघ को देखता है। यदि एक स्वयंसेवक अनुशासित है, विनम्र है और सेवाभावी है, तो समाज की धारणा बनती है कि “संघ अच्छा है”। इसके विपरीत, यदि कार्यकर्ता का व्यवहार अनुचित है, तो उंगली पूरे संगठन पर उठती है। इसीलिए, प्रत्येक कार्यकर्ता अपने आप में संघ का चलता-फिरता विग्रह है। उसके कंधों पर केवल अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का भार नहीं होता, बल्कि एक शताब्दी पुरानी विचारधारा की साख भी होती है।
आचरण ही परिचय है
एक कार्यकर्ता के लिए उसका आचरण ही उसका सबसे बड़ा परिचय है। संघ में कोई पहचान पत्र (ID Card) नहीं होता। वहाँ पद प्रतिष्ठा का विषय नहीं, बल्कि दायित्व का विषय है। एक कार्यकर्ता जब भगवा ध्वज के सामने ‘नमस्ते सदा वत्सले’ का उच्चारण करता है, तो वह राष्ट्र को तन, मन और धन समर्पित करने की प्रतिज्ञा करता है। यह समर्पण ही उसे ‘संघ’ का स्वरूप प्रदान करता है।
जब देश पर कोई विपत्ति आती है—चाहे वह युद्ध हो, बाढ़ हो, भूकंप हो या महामारी—तब एक स्वयंसेवक यह निर्देश मिलने की प्रतीक्षा नहीं करता कि ऊपर से आदेश आएगा, तभी वह कार्य करेगा। उसके संस्कार उसे स्वतः स्फूर्त प्रेरणा देते हैं। जब वह कीचड़ में उतरकर सेवा करता है, जब वह भूखे को भोजन कराता है, तो पीड़ित व्यक्ति को उसमें ‘माधव’ के दर्शन होते हैं। उस क्षण वह कार्यकर्ता केवल ‘राम’ या ‘श्याम’ नहीं होता, वह साक्षात ‘संघ’ होता है जो समाज के आंसू पोंछने आया है।
’अहम’ का विसर्जन
”संघ का कार्यकर्ता संघ है”—इस कथन की गहराई ‘अहंकार के विसर्जन’ में निहित है। आधुनिक युग में जहाँ हर कोई अपने नाम, फोटो और श्रेय (Credit) के लिए लालायित रहता है, वहीं संघ का कार्यकर्ता ‘प्रसिद्ध पराड्.मुखता’ (प्रसिद्धि से विमुख) के सिद्धांत को जीता है। वह नींव का पत्थर बनकर रहना पसंद करता है, जिस पर राष्ट्र रूपी भव्य भवन खड़ा हो सके।
यह भाव कि “मैं ही संघ हूँ”, अहंकार का नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व का भाव है। इसका अर्थ है कि जहाँ मैं खड़ा हूँ, वहाँ संघ खड़ा है। मेरे विचार संघ के विचार हैं, मेरी वाणी संघ की वाणी है। यह अहसास कार्यकर्ता को सदैव सजग रखता है। यह उसे स्मरण दिलाता है कि वह समाज के बीच एक प्रतिनिधि है। यह तादात्म्य (Identification) इतना गहरा होता है कि स्वयंसेवक और संघ में कोई भेद शेष नहीं रहता।
विविधता में एकता का सूत्रधार
समाज विविधताओं से भरा है—जाति, भाषा, प्रांत और वर्ग के भेद हैं। एक कार्यकर्ता इन भेदों से ऊपर उठकर कार्य करता है। जब वह समाज के बीच जाता है, तो वह किसी जाति का प्रतिनिधि नहीं होता, वह ‘हिंदू समाज’ की समरसता का वाहक होता है। वह समाज को जोड़ने वाली कड़ी है। जिस प्रकार माला का एक भी मनका टूट जाए तो माला बिखर सकती है, उसी प्रकार एक कार्यकर्ता की शिथिलता संगठन को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, कार्यकर्ता का जागरूक, सक्रिय और संस्कारित होना अनिवार्य है।
एक जीवित ‘पाञ्चजन्य’
जिस प्रकार श्री कृष्ण का पाञ्चजन्य शंख धर्म युद्ध का उद्घोष था, उसी प्रकार संघ का प्रत्येक कार्यकर्ता राष्ट्रीय चेतना का शंखनाद है। वह अपने क्षेत्र में, अपने कार्यस्थल पर, अपने परिवार में राष्ट्रीय विचारों का, भारतीय संस्कृति का और सामाजिक मूल्यों का प्रहरी है। वह जहाँ भी उपस्थित है, वहाँ वह भारतीयता का पक्ष रखता है।
आज के सूचना क्रांति के युग में, जब भ्रामक सूचनाएं और वैचारिक आक्रमण तीव्र हैं, कार्यकर्ता की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है। वह समाज को सत्य से अवगत कराता है। वह एक दीप की भांति है जो अपने आसपास के अंधकार को दूर करता है। उसका चरित्र ही उसका सबसे बड़ा तर्क है और उसका सेवा भाव ही उसका सबसे बड़ा प्रमाण।
अंततः, यह समझना आवश्यक है कि संघ कोई ईंट-पत्थर की इमारत नहीं है, न ही यह फाइलों में बंद कोई सूची है। संघ अपने लाखों कार्यकर्ताओं के हृदयों में धड़कता है। जब हम कहते हैं कि “संघ का प्रत्येक कार्यकर्ता संघ है”, तो हम यह स्वीकार करते हैं कि इस संगठन की शक्ति, इसकी पवित्रता और इसकी प्रभावशीलता पूरी तरह से इसके कार्यकर्ता के चरित्र और समर्पण पर निर्भर करती है।
जिस दिन एक स्वयंसेवक पूर्ण निष्ठा से यह मान लेता है कि “मेरे आचरण से ही मेरे संघ की पूजा होगी और मेरे आचरण से ही मेरे संघ की आलोचना होगी”, उस दिन वह वास्तव में ‘संघ’ बन जाता है। यही वह शक्ति है जिसने संघ को आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बनाया है। कार्यकर्ता केवल संघ का हिस्सा नहीं है, वह संघ का प्राण है, वह संघ का आधार है, और वास्तविक अर्थों में, वह स्वयं ही ‘संघ’ है।