कला-संस्कृति

सभ्य मन की अनग अभिव्यक्ति है होली – जयप्रकाश सिंह

भारतीय मनीषीयों ने ईवर की अनुभूति ‘रसो वै सः’ के रुप में की है । चरम अनुभति को रसमय माना है । यही मनीषी ईवर को सिच्चदानंद भी कहता है । यानी भारतीय मानस के लिए ईवर और आनंद की अनुभूतियां अलग अलग नहीं हैं । होली भारतीय चित द्वारा इसी रस की स्वीकृति और अभिव्यक्ति है । होली आधुनिक बुद्धिजीवियों की उस संकल्पना पर करारा वार करती है जिसके अनुसार परम्परागत भारतीय समाज आनंद की अनुभूति से विमुख है । और इस समाज में आनंद की स्वीकृति और अभिव्यक्ति के लिए कोई ‘स्पेस’ नहीं है । पश्चमी नजरिए में रचे पगे इन बुद्धिजीवियों को होली की रंगीनमिजाजी आकर्षित नहीं करती। जिस समाज में प्राचीनकाल से ही कौमुदी महोत्सव मनाए जाने की परम्परा रही है, वह समाज रस और आनंद से विमुख कैसे हो सकता है । आज की विद्वतमण्डली यदि होली और कौमुदी महोत्सव को भूलकर वैलेण्टाइन डे को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए जरुरी मानती है तो यह उसकी आत्मविस्मृति और आत्महीनता की स्थित को ही दर्शाती है । हां, यह बात जरुर है कि भारत ने आनंद की अपनी अलग परिभाषा दी और आनंद की अनुभूति के अपने तौर तरीके भी विकसित किए। यह तरीके सामान्यबोध अथवा कॉमनसेंस पर आधारित है और सामाजिक चौखटों का भी इसमें धयान दिया जाता है । भारतीय लोकपरम्परा इस बात पर बल देती है कि ‘चौकी’ का काम ‘चौके’ पर और ‘चौके’ का काम ‘चौकी’ पर नहीं करना चाहिए। यह समाज व्यवस्था को बनाए रखने की दृश्टि से आवश्यक है । सामाजिक स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए ‘रसास्वादन’ करना भारत की एक प्रमुख विशेषता है । पश्चमी लोग आज भी आनंद की अनुभूति के संदर्भ में व्यक्ती और समाज के बीच ऐसा संतुलन नहीं स्थापित कर सके हैं । इसीलिए, अपनी आंख पर पश्चमी चश्मा लगाए लोगों को यह बात असम्भव लगती है कि परिवार और समाज के दायरे में रहकर भी आनंद लिया जा सकता है । बुद्धिजीवियों के इस वर्ग की मानसिकता को समझने के लिए अंगरेजी मीडिया को केस स्टडी के रुप में लिया जा सकता है । अंगरेजी मीडिया में अंगरेजी मानिसिकता के लोग ही हावी हैं । इसीलिए, अंगरेजी मीडिया में कभी भी होली के त्योहार को आनंद के त्योहार के रुप में नहीं परोसा जाता। कुछ रंग बिरंग समाचार और चित्र जरुर चिपका दिए जाते हैं । होली का त्योहार अपने में आनंद का दर्शन समाहित किए हुए है। इस दर्शनशास्त्र को भारतीय संदर्भों में पहचानने और व्याख्यायित करने की कोशिश अंगरेजी मीडिया कभी नहीं करती । बसंत क्या है, इस मौसम में आम जनमानस क्यों उल्लासित होता है, उसकी बसंत ऋतु को लेकर क्या अवधारणाएं और परंपराएं हैं, इन बातों से अंगरेजी मीडिया का कुछ भी लेना देना नहीं होता ।

ये लेखक लोग भी होली के उत्साह को भांप नहीं पाते । या भांपकर भी इस लोक उत्साह को पिछडे एवं गंवारु लोगों के मन की अनग अभिव्यक्ति मान लेते हैं । वस्तुतः ऐसा नहीं है । होली सुसंस्कृत मन की अनग अभिव्यक्त है । भारतीय लोक परम्परा के अद्वितीय अन्वोक विद्यानिवास मिश्र ने भारतीय लोकमानस का अवधूत भगवान शिव का प्रतिबिम्ब माना है । भगवान शिव का बाहरी रुप अनग है । गले में सांप है । पूरे तन भस्म से लिपटा हुआ है । भूत बैताल उनके सभासद है ।बाहर से वह बहुत भयावह हैं । लेकिन अंतःकरण विपायी है । भगवान शिव साक्षात योगीवर हैं और आाशुतोष हैं । जल्दी से प्रसन्न होकर किसी को कोई भी वरदान दे सकते हैं । इसी तरह भारतीय मन बाहर से देखने में तो अनग लगता है लेकिन अंदर से वह सभ्य है । होली इसी भारतीय मन का एक त्योहार के रुप में पूर्ण प्रकटीकारण है ।

होली उसी भारतीय लोकमानस की अभिव्यक्ति है जो अब भी परम्परा को सींच रहा है और उससे रस भी ले रहा है। होली के मन को समझने के लिए गांव का मन समझना जरुरी है । होली वास्तव में गंवई मन की ही अभिव्यक्ति है । गांव में आज भी किसी एक व्यक्ति के बीमार पडने पर सभी ग्रामीण हाल चाल पूछने जाते हैं । किसी झोपडी में आग लगने पर पूरे गांव के लोग अपने बर्तन लेकर आग बुझाने का चल देते हैं । यह गंवई मन दमकल विभाग को फोन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ लेता । होली उस सामूहिक मन की अभिव्यक्ति है जो आज भी बसंत के आगमन पर बसंत और विरह के गीत गाता है । होली उन होलियारों के मन की अभिव्यक्ति है जो आज भी गांव के हर घर के सामने जाकर ‘कबीरा सरारार..’ कहता है । गांव की भाभियों से होली खेलने के लिए मान मनौव्वल भी करता है और घंटो धारना प्रदर्शन भी। यह टोली तभी आगे बढती है जब घर की नई नवेली बहू के साथ होली खेलने का मौका मिल जाए ।

इन होलिहारों के होली खेलने के तरीके को आप अनग कह सकते हैं । ये केवल आपको रंग ‘लगाएंगे’ नहीं । रंगों से आपको ‘रंगदेंगे ’और रंगों से सराबोर कर देंगे । कभी कभी तो दस बीस होलिहारे आपको ‘पटक’ कर रंग लगाएंगे । इतना सब कुछ होने के बाद आपको गोद में उठाकर हवा में भी लहराएंगे और भावातिरेक में गले भी मिलेंगे । इसके बाद दिन के दूसरे पहर यही होलिहारे आपको प्रसिद्ध लोक कवि शारदा प्रसाद सिंह की पंक्तियां ‘नियरान बसंत कंत न पठए पतिया’ गाते हुए मिल जाएंगे ।

इस गंवई सभ्य मन के आनंद को आज का तथाकथित सभ्य समाज कैसे समझ सकता है जो शाम को किसी से काम निकालने के लिए सुबह नमस्ते करता है। इस समाज में ‘जैरमी’ भी बिना कारण नहीं होती । वैसे गंवई मन के इस होली भाव को आप क्या कहेंगे । सभ्य या असभ्य !