जन्माष्टमी का पर्व
बड़ी धूमधाम से मनाया गया,
बाज़ार से पीताम्बर मंगवाया गया।
जो बच्चे डरते हैं छिपकली से,
उन्होंने भी कान्हा बनाया गया।
सिर पर मुकुट पहना, कर बांसुरी दी गई,
इस अद्भुत छवि की खूब सेल्फ़ी ली गई।
बालिकाएँ राधा बन गई थीं,
बड़ी ही मोहक लग रही थीं।
रूप तो नयनाभिराम था,
पर सब बाज़ार का ही तो सामान था।
बच्चों को भी लगा होगा,
क्या कान्हा का यही काम था?
बांसूरी बजाना, माखन खाना
गोपिन के संग रास रचाना?
वैसे जन्माष्टमी पर सब ख़ुश हुए—
दुकानदार कान्हा-वस्त्रों का मुँह माँगा दाम पाकर,
माता-पिता छवि नयनाभिराम पाकर,
बच्चे कान्हा का नाम पाकर।
बस स्वयं कान्हा ही दुखी था।
जो रूप शक्ति का द्योतक होना चाहिए था,
श्रृंगार का हो गया।
कान्हा केवल बांसुरीधारी है आज,
गोवर्धनधारी खो गया।
अरे! बांसुरी तो तब बजती है जब—
किसी बकासुर को मारा जाए,
यमुना-स्तर उतारा जाए।
नदी से नाग निकाला जाए,
हजार गऊ को पाला जाए।
पूतना का उद्धार हो,
कंस पर प्रहार हो।
रास ही नहीं था, केवल कान्हा का काम,
और अगर होता ऐसा, नहीं लेता कोई नाम।
कान्हा वही बनेगा जिसमें है शक्ति का बोध,
जो अत्याचार, अधर्म का कर सकता प्रतिरोध।
✍🏻 राजपाल शर्मा ‘राज’