डॉ शिवानी कटारा
कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद से आई एक खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया। 16 वर्ष की एक किशोरी, जो लंबे समय से अत्यधिक फास्ट फूड खा रही थी, गंभीर रूप से बीमार पड़ी। डॉक्टरों के अनुसार उसकी आँतें आपस में चिपक चुकी थीं, पाचन तंत्र लगभग पूरी तरह नष्ट हो चुका था। पेट में तरल भर गया था, रक्त संचार कम हो गया था और संक्रमण आँतों से फैलकर फेफड़ों तक पहुँच गया। ऑपरेशन हुआ, लेकिन जीवन नहीं बच सका। यह घटना मात्र एक “वायरल खबर” नहीं, बल्कि हमारे समय के लिए एक भयावह चेतावनी है। यह हमें ठहरकर सोचने को मजबूर करती है—जिस फास्ट फूड को हम बेफ़िक्र होकर खाते हैं, क्या वह वास्तव में उतना ही मासूम है, या फिर चुपचाप एक ऐसे सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है, जिसकी कीमत हम आने वाली पीढ़ियों से चुका रहे हैं?
सीधे-सीधे कहें तो फास्ट फूड वही खाना है जो झटपट मिल जाए और झटपट खा लिया जाए। न ज़्यादा इंतज़ार, न ज़्यादा मेहनत । इसकी पहली वजह है समय की कमी—तेज़ रफ्तार जीवन में लोगों के पास घर पर खाना बनाने या बैठकर खाने का समय नहीं बचा। दूसरी बड़ी वजह है हर जगह उपलब्धता—गली-मोहल्लों से लेकर मोबाइल ऐप्स तक, फास्ट फूड हर समय सामने है। तीसरी वजह है तीखा और लुभावना स्वाद, जिसमें नमक, चीनी और तेल अधिक होता है, जो जीभ और दिमाग दोनों को तुरंत आकर्षित करता है। और अंत में, सोशल फैक्टर—पार्टी, बर्थडे, आउटिंग और दोस्तों के साथ मिलने-जुलने में फास्ट फूड अब सामान्य हिस्सा बन चुका है।
दिमाग की रसायनिकी और आदत से लत तक
फास्ट फूड की लत केवल आदत का विषय नहीं, बल्कि मस्तिष्क की रसायनिकी से जुड़ा हुआ है। अत्यधिक मीठा, नमकीन और तला हुआ भोजन मस्तिष्क में ‘डोपामिन’ नामक रसायन का स्राव बढ़ाता है, जो तात्कालिक सुख और संतोष का अनुभव कराता है। धीरे-धीरे मस्तिष्क उस स्वाद को उसी सुखद अनुभूति से जोड़ लेता है। यहाँ तक कि उस भोजन को देखने या उसके बारे में सोचने मात्र से वही प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। तनाव, थकान, उदासी या अकेलेपन की स्थिति में व्यक्ति अनजाने में ऐसे भोजन की ओर खिंचता है, क्योंकि वह तुरंत “अच्छा लगने” का एहसास देता है। यही कारण है कि ‘फास्ट फूड’ धीरे-धीरे ‘कम्फर्ट फूड’ बन जाता है, जबकि वास्तविकता में वह शरीर के लिए सबसे अधिक असुविधा और रोगों का कारण बनता है।
शरीर पर असर: छोटी आदत, बड़ी बीमारियाँ
फास्ट और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड का प्रभाव धीरे-धीरे दिखाई देता है। प्रारंभ में गैस, एसिडिटी, कब्ज़, थकान, त्वचा की समस्याएँ , दांतों में केविटीज, मसूड़ों का इन्फेक्शन और एकाग्रता की कमी जैसी छोटी परेशानियाँ होती हैं, जिन्हें सामान्य मानकर अनदेखा कर दिया जाता है। लेकिन लंबे समय में यही आदतें मोटापा, टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, इंसुलिन प्रतिरोध और मेटाबॉलिक सिंड्रोम का कारण बनती हैं। इन खाद्य पदार्थों में फाइबर और पोषक तत्व कम, जबकि चीनी, नमक और हानिकारक वसा अत्यधिक होती है। इससे आँतों के लाभकारी जीवाणु नष्ट होते हैं, सूजन बढ़ती है और पाचन तंत्र कमजोर पड़ता है। बच्चों और किशोरों में इसका प्रभाव और भी गंभीर होता है, क्योंकि इसी अवस्था में शरीर और आदतें दोनों आकार ले रही होती हैं।
यह केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है। इन रोगों का इलाज सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर भारी बोझ डालता है, कार्यक्षमता घटती है और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च गरीब और मध्यम वर्ग को सबसे अधिक प्रभावित करता है। दूसरे शब्दों में, फास्ट फूड का सस्ता होना एक भ्रम है—इसकी वास्तविक कीमत अस्पताल, दवाइयों और खोए हुए जीवन वर्षों के रूप में समाज चुका रहा है।
स्वाद के नाम पर व्यवस्था की विफलता
आज फास्ट फूड केवल प्लेट में परोसा गया खाना नहीं है, यह एक आक्रामक व्यवस्था है। चमकदार विज्ञापन, बच्चों को लुभाने वाले खिलौने, भारी छूट, मोबाइल ऐप्स की एक क्लिक सुविधा—सब मिलकर इसे हर उम्र, हर वर्ग तक पहुँचा रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि भारत में फास्ट फूड उद्योग तेज़ी से फैल रहा है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार 2024 में भारत का फास्ट फूड बाज़ार लगभग 18.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था और इसके 2033 तक 35.5 बिलियन डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है, यानी यह उद्योग लगभग 7% से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर से आगे बढ़ रहा है। इस विस्तार का सबसे बड़ा असर बच्चों और युवाओं पर दिखाई देता है। विभिन्न भारतीय अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि स्कूल और कॉलेज आयु वर्ग में फास्ट फूड का सेवन 30% से लेकर 100% तक की व्यापकता दिखाता है—अर्थात् यह अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य आदत बन चुकी है ।
इसके बावजूद, नीति स्तर पर स्थिति चिंताजनक है। तंबाकू और शराब जैसे उत्पादों पर स्वास्थ्य चेतावनियाँ, कर और विज्ञापन नियंत्रण लागू हैं, लेकिन जंक फूड/फास्ट फूड —जो बच्चों के शरीर और मस्तिष्क के विकास को प्रभावित करता है—अब भी अपेक्षाकृत ढीले नियमन के दायरे में है। संसद और सार्वजनिक नीति विमर्श में जंक फूड और शीतल पेयों पर चर्चा का अनुपात अत्यंत सीमित पाया गया है, जो यह संकेत देता है कि बढ़ते जोखिम के बावजूद इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया गया है, जिससे स्वाद और सुविधा के नाम पर एक गहरा सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट चुपचाप आकार ले रहा है।
आयुर्वेद और आधुनिक नीति
भारतीय ज्ञान परंपरा में भोजन को केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार माना गया है। आयुर्वेद स्पष्ट कहता है कि आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य जीवन के तीन स्तंभ हैं, और इनमें आहार सर्वोपरि है। भोजन सही विधि से लिया जाए तो वह औषधि है, और गलत विधि से लिया जाए तो वही विष बन जाता है। विरुद्ध आहार—जैसे ठंडे पेय के साथ तला-मसालेदार भोजन—को आयुर्वेद ने सदियों पहले ही रोगों का कारण बताया था। शांत स्थान पर, उचित समय पर, आत्म-परीक्षण के साथ भोजन करने की सीख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। विडंबना यह है कि जिस देश में इतनी स्पष्ट आहार-दृष्टि उपलब्ध है, वहीं आधुनिक नीति निर्माण में भोजन को केवल बाज़ार का विषय बना दिया गया है, स्वास्थ्य और संस्कृति का नहीं।
प्रश्न यह नहीं कि क्या करना चाहिए, बल्कि कब तक नहीं करेंगे
अब समय आ गया है कि फास्ट फूड को केवल व्यक्तिगत पसंद कहकर पल्ला न झाड़ा जाए। यह एक नीति-स्तरीय मुद्दा है। बच्चों को लक्षित जंक फूड विज्ञापनों पर सख्त नियंत्रण, स्कूलों के आसपास फास्ट फूड बिक्री पर नियमन, स्पष्ट पोषण चेतावनियाँ, और जन-जागरूकता अभियानों को अनिवार्य बनाना—ये सब विकल्प नहीं, आवश्यकता हैं।
मुरादाबाद की वह किशोरी किसी एक परिवार की निजी त्रासदी नहीं, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है जिसने स्वाद को स्वास्थ्य से ऊपर रखा। यदि हमने इसे आज भी केवल एक खबर मानकर भुला दिया, तो आने वाले समय में ऐसी घटनाएँ अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य होंगी। यह चेतावनी नहीं, बल्कि नीति, सोच और भोजन-दृष्टि बदलने का एक अहम अवसर है।