दोस्ती या मौत की सैर: युवाओं की असमय विदाई का बढ़ता सिलसिला

“जब यार ही यमराज बन जाएं, तो मां-बाप किस पर भरोसा करें?”

– डॉ सत्यवान सौरभ

हरियाणा में इन दिनों एक डरावना चलन पनपता दिख रहा है। हर हफ्ते कहीं न कहीं से यह खबर आती है कि कोई युवा दोस्तों के साथ घूमने गया और लौट कर अर्थी में आया। ये घटनाएं केवल अखबार की सुर्खियां नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने और व्यवस्था की खामियों की वीभत्स तस्वीर हैं। ‘दोस्ती’ अब ‘दुर्घटना’ का पर्याय बनती जा रही है।

घटनाएं जो झकझोर देती हैं

पिछले कुछ हफ्तों में ही हरियाणा में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं:

हिसार में दो युवकों की झील में डूबकर मौत, जहां वे अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गए थे। परिजनों का आरोप है कि साथी दोस्त वीडियो बनाते रहे, मदद नहीं की।

सोनीपत में एक लड़के की दोस्तों ने गला दबाकर हत्या कर दी, फिर शव को नहर में फेंक दिया।

रेवाड़ी में एक छात्र का शव जंगल में मिला, जो आखिरी बार अपने दोस्तों के साथ देखा गया था।

इन घटनाओं में कुछ समानताएं हैं: (1) युवा अपने भरोसेमंद दोस्तों के साथ थे,

(2) परिवार को जानकारी नहीं थी कि असल में कहां गए हैं,

(3) मौत के बाद दोस्तों की भूमिका संदिग्ध रही।

दोस्ती के पीछे छिपता अपराध

माना जाता है कि दोस्ती सबसे मजबूत रिश्ता होता है, खून से भी गाढ़ा। पर हरियाणा में यह धारणा दरक रही है। अब दोस्ती की आड़ में जलन, प्रतिस्पर्धा, चालबाज़ी और यहां तक कि हत्या तक के मामले सामने आ रहे हैं। कई बार ये दोस्त ड्रग्स, जुए, बाइक रेसिंग जैसे खतरनाक कामों में एक-दूसरे को फंसा देते हैं।

परिवारों की असहायता और गूंगी चीखें

इन घटनाओं में सबसे ज़्यादा पीड़ित वे माता-पिता हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को घर से हँसते हुए विदा किया और फिर लाशों में बदलकर पाया। वे न समझ पा रहे हैं कि गलती उनकी थी या सिस्टम की या फिर उस ‘दोस्ती’ की, जिस पर उन्होंने आँख मूँदकर विश्वास किया था।

कई बार परिवार को यह भी नहीं पता होता कि बच्चा किसके साथ गया है। सोशल मीडिया और मोबाइल की दुनिया ने एक झूठी पारदर्शिता बनाई है, जिसमें हर चीज़ दिखती है, पर सच्चाई कहीं छिप जाती है।

सिस्टम की नाकामी

प्रशासन और पुलिस का रवैया भी इन मामलों में बेहद सुस्त रहा है। अधिकतर मामलों में पुलिस तब हरकत में आती है जब मीडिया दबाव डालता है या परिजन सड़क पर उतर आते हैं। शुरुआती रिपोर्ट में अकसर दुर्घटना कहकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है।

बच्चों की लोकेशन ट्रेसिंग, उनके घूमने की सूचना, पार्क और पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा बंदोबस्त—इन सभी में भारी कमी दिखाई देती है।

शिक्षा और संवाद की कमी

एक और बड़ा कारण है युवाओं के साथ संवादहीनता। परिवार, शिक्षक और समाज युवाओं को केवल ‘कैरियर’ या ‘शादी’ के चश्मे से देखते हैं। दोस्त कौन हैं? जीवन में क्या तनाव है? किस दिशा में सोच रहे हैं?—इन सवालों पर कोई ध्यान नहीं देता।

जब संवाद की जगह सन्नाटा ले लेता है, तो दोस्ती ही सबसे बड़ा प्रभाव बन जाती है—फिर चाहे वह सकारात्मक हो या घातक।

क्या हर सैर मौत की मंज़िल बनेगी?

क्या अब हर माता-पिता को डरना होगा जब उनका बच्चा कहेगा, “दोस्तों के साथ घूमने जा रहा हूँ”? क्या अब युवाओं को बाहर जाने के लिए पुलिस वेरिफिकेशन कराना होगा? ये सवाल जितने बेतुके लगते हैं, आज के संदर्भ में उतने ही वास्तविक हैं।

अगर समाज ने अभी चेतावनी नहीं ली, तो वह दिन दूर नहीं जब ‘दोस्ती’ शब्द से ही डर लगेगा।

समाधान की राह

इन घटनाओं को रोकने के लिए महज शोक या गुस्से से काम नहीं चलेगा, हमें ठोस कदम उठाने होंगे:

1. युवा सुरक्षा नीति: हरियाणा सरकार को युवाओं की सुरक्षा को लेकर अलग नीति बनानी चाहिए, जिसमें घूमने वाले समूहों की जानकारी, पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा, और आपातकालीन हेल्पलाइन जैसी व्यवस्थाएं हों।

2. माता-पिता से संवाद: स्कूलों और कॉलेजों में माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम होने चाहिए।

3. मनोवैज्ञानिक परामर्श: युवाओं को काउंसलिंग और मेंटल हेल्थ सपोर्ट मिलना चाहिए, ताकि वे सही और गलत दोस्ती के बीच फर्क समझ सकें।

4. सोशल मीडिया निगरानी: कई बार लड़ाई-झगड़े या जलन की जड़ें इंस्टाग्राम, Snapchat या WhatsApp जैसे प्लेटफॉर्म से उपजती हैं। अभिभावकों को डिजिटल व्यवहार पर भी सतर्क रहना होगा।

5. सख्त कानूनी कार्रवाई: जिन मामलों में दोस्त ही अपराधी पाए जाते हैं, वहां त्वरित और सख्त कार्रवाई की जाए ताकि एक स्पष्ट संदेश जाए।

6. युवाओं को आत्मनिर्भर बनाना: शिक्षा व्यवस्था में ऐसी सामग्री और संवाद जोड़े जाएं जो युवाओं को जीवन मूल्यों, संबंधों की समझ और संवेदनशीलता सिखा सकें।

 दोस्ती के मायने फिर से गढ़ने होंगे

हरियाणा के युवाओं को एक ऐसे समाज की जरूरत है जहां दोस्ती भरोसे का पर्याय बने, भय का नहीं। और माता-पिता को भी एक ऐसे माहौल की दरकार है जहां वे अपने बच्चों को मुस्कुराकर विदा कर सकें—बिना इस डर के कि लौटेंगे या नहीं।

हमें मिलकर यह तय करना होगा कि दोस्ती की राह मौत की मंज़िल न बने। वरना वो दिन दूर नहीं जब “मैं दोस्तों के साथ जा रहा हूँ” सुनते ही हर माता-पिता का कलेजा कांप उठेगा।

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