आर्थिकी

राजकोषीय सुराज से स्वराज : अनुच्छेद 280 की आत्मा का पुनर्पाठ


पंकज जायसवाल

बजट 2026 आने वाला है. इसके पूर्व अनुच्छेद 280 की आत्मा का पुनर्पाठ जरुरी है ताकि सरकार की दृष्टि इस पर पड़े और इस पर कुछ पहल हो सके. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 280 वह आधारभूत ढांचा निर्धारित करता है जो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संतुलन को बनाए रखता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति प्रत्येक पाँच वर्ष में या आवश्यकता पड़ने पर पहले भी एक स्वतंत्र वित्त आयोग का गठन करते हैं। इस आयोग का उद्देश्य केवल आँकड़ों का विश्लेषण भर नहीं है बल्कि देश की समग्र वित्तीय संरचना में ऐसा संतुलन सुनिश्चित करना है कि केंद्र और राज्य दोनों को संसाधनों का न्यायसंगत हिस्सा प्राप्त हो सके।

इसमें केंद्र द्वारा एकत्र किए जाने वाले करों में राज्यों की हिस्सेदारी तय करना, राज्यों को अनुदान की सिफारिश करना और उनकी वित्तीय स्थिति सुदृढ़ करने के उपाय सुझाना शामिल है। बदलते आर्थिक परिदृश्य, राज्यों की आवश्यकताओं और राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करना भी इसी आयोग की जिम्मेदारी है।

अनुच्छेद 280 यह सुनिश्चित करता है कि यह पूरी प्रक्रिया राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहे। इसी कारण वित्त आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है और अपनी सिफारिशें सीधे राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है। इसके बाद केंद्र सरकार इन सिफारिशों पर निर्णय लेकर आवश्यक कार्यान्वयन करती है। समग्र रूप से अनुच्छेद 280 भारत की संघीय संरचना का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है जो राष्ट्रीय विकास की राह को सुचारु रखते हुए वित्तीय एकरूपता और प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित करता है।

पहले कार्यकाल से ही वर्तमान भारत सरकार ने सहकारी संघवाद के विचार को प्रोत्साहित किया है, जो अनेक मायनों में अनुच्छेद 280 की मूल भावना को प्रतिबिंबित करता है। हालांकि स्वतंत्रता के 78 वर्ष और वर्तमान सरकार के लगभग 12 वर्ष बाद भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। भारत एक बहुस्तरीय लोकतांत्रिक व्यवस्था संचालित करता है जहाँ केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ पंचायतें और छठी अनुसूची की स्वायत्त परिषदें भी शासन का अभिन्न हिस्सा हैं।

इन संस्थाओं से स्थानीय नागरिकों को प्रत्यक्ष अपेक्षाएँ होती हैं क्योंकि यही लोकतांत्रिक जवाबदेही की पहली पंक्ति हैं। सांसद और विधायक कानून बनाते हैं परंतु “जमीनी विकास” की वास्तविक जिम्मेदारी इन्हीं स्थानीय निकायों की होती है लेकिन दशकों की लोकतांत्रिक यात्रा के बावजूद, ये संस्थाएँ अभी तक वह वित्तीय आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर सकी हैं, जो उन्हें प्राप्त होनी चाहिए थी। इनके क्षेत्र से एकत्र किए गए कर केंद्र तक पहुँचते हैं और फिर एक लंबे पुनर्वितरण चक्र से होकर वापस आते हैं। इस प्रक्रिया में अनेक पंचायतें अपने आर्थिक योगदान के अनुपात में लाभ नहीं पातीं या यूं कहें की न्यायसंगत वितरण नहीं होता लेकिन ऐसा भी नहीं है कि न्यायसंगत वितरण असंभव है। यह संभव है और इसकी चर्चा आगे लेख में है.

इस समस्या का समाधान स्थानीय निकायों और स्वायत्त परिषदों को प्रत्यक्ष राजकोषीय भागीदारी प्रदान करने में निहित है। सहकारी संघवाद की मजबूत परंपरा के बावजूद पंचायतों का देश की दो प्रमुख कर प्रणालियों प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर में कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं है जबकि ये कर इन्हीं स्थानीय क्षेत्रों के निवासी चुकाते हैं। स्थानीय विकास के लिए धन आज भी लंबी प्रशासनिक यात्रा कर वापस आता है, और यह स्पष्ट लेखा नहीं होता कि नागरिकों ने कितना कर दिया और बदले में कितना उन्हें प्राप्त हुआ।

इस चुनौती का समाधान कर-आधारित जनभागीदारी शासन की अवधारणा में है। वर्तमान कर ढाँचा केवल दो स्तरों केंद्र और राज्य को कर-साझेदारी देता है, जबकि सबसे जमीनी स्तर की सरकार, यानी पंचायत या परिषद, इससे बाहर है। पंचायत या परिषद क्षेत्रों में एकत्र कर पहले ऊपर जाता है और फिर मंजूरियों की लंबी प्रक्रिया के बाद धीरे-धीरे वापस आता है।

एक “भागीदारी आधारित कर प्रणाली” में स्थानीय निकायों एवं नागरिकों को अपने कर योगदान पर सीमित विवेकाधिकार दिया जा सकता है। यह विचार वैश्विक स्तर पर नया है लेकिन भारत जैसे विशाल और बहुस्तरीय शासन वाली व्यवस्था में यह एक पथप्रदर्शक पहल हो सकता है। जमीनी स्तर पर राजकोषीय भागीदारी पर आधारित सहकारी संघवाद की यह नई मॉडल लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करेगा, संघीय संरचना को सुदृढ़ करेगा और वित्तीय प्रशासन में नागरिकों की सहभागिता बढ़ाएगा।

नागरिक अपने गाँव, कस्बे, शहर, राज्य या पसंदीदा सरकारी योजनाओं में प्रत्यक्ष धन योगदान कर सकेंगे। इससे कर-आधार बढ़ेगा, कर अनुपालन सुधरेगा, और भारत के कर प्रशासन में सरकार द्वारा स्वीकार किए गए नज सिद्धांत का वास्तविक उपयोग होगा। यह मॉडल अनुच्छेद 280 और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सहकारी संघवाद के संकल्प दोनों के अनुरूप होगा।

सरकार इस मॉडल को कुछ पंचायतों या स्वायत्त परिषदों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू कर सकती है। इस प्रणाली में नागरिक और संपन्न प्रवासी अपने अपने स्थानीय निकायों के लिए स्थानीय वित्तपोषण में प्रत्यक्ष भागीदारी कर सकेंगे। यद्यपि केंद्र और राज्य सरकारें एकत्रित करों के उपयोग पर विवेकाधिकार रखती हैं, लेकिन अनुच्छेद 280 की मूल भावना के तहत व्यवस्था में सुधार कर उसका एक भाग पंचायतों और नागरिकों को भी सौंपा जा सकता है।

इसके तहत यदि कोई नागरिक अपने व्यक्तिगत कर का एक निश्चित प्रतिशत अपनी स्थानीय पंचायत या किसी स्वीकृत विकास योजना में देना चाहता है, और पंचायत की आमसभा इस परियोजना को मंजूरी देती है, तो यह राशि उसके अंतिम कर दायित्व में समायोजित की जा सकती है। अंततः यह व्यय उसी स्थान पर होना ही है, जहाँ पुनर्वितरण के बाद सरकार इसे भेजती।

इस व्यवस्था के प्रमुख लाभार्थी पंचायतें और परिषदें और अंततः जनता ही होगी । इससे अनुच्छेद 280, पंचायती राज, और सहकारी संघवाद के वास्तविक उद्देश्य को मूर्त रूप मिलेगा। इससे गांधीजी का सुराज एवं स्वराज वास्तव में साकार होगा और गाँवों-शहरों को विकास लक्षित धन जल्दी और जबाबदेही के साथ प्राप्त होगा। यदि कोई पंचायत अपनी किसी परियोजना जैसे सीवर, जल आपूर्ति, पार्क निर्माण को मंजूर करती है, तो उसे केवल राज्य या केंद्र पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं होगी। वह अपने नागरिकों से निर्धारित सीमा में विवेकाधीन कर योगदान का आह्वान कर सकती है।

इसी प्रकार, यदि कोई नागरिक या उस क्षेत्र से जुड़े प्रवासी या सफल व्यक्ति किसी विशेष स्थानीय परियोजना को वित्त देना चाहे, और पंचायत की आमसभा इसे मंजूरी दे, तो वह अपने कर का एक भाग इसमें दे सकता है। उदाहरण के लिए, यदि सीमा 10% है और किसी नागरिक ने इसमें ₹5,000 दिए जबकि उसका कुल कर दायित्व ₹10,000 है, तो ₹1,000 को ही कर भुगतान मान उसके अंतिम कर दायित्व से समायोजित  जाएगा और शेष ₹4,000 सरकार के विवेकाधीन संसाधन के रूप में जोड़े जा सकते हैं।

यदि किसी पंचायत को इस व्यवस्था से अनुमानित बजट से अधिक धन मिलता है, तो अतिरिक्त राशि केंद्र राज्य सरकार को वापस जाएगी। यह मॉडल केवल आयकर ही नहीं, बल्कि GST जैसे करों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार चाहे तो इसे 80G या CSR जैसे ढाँचों से जोड़कर और भी आकर्षक बना सकती है।

अंत में, यह प्रणाली लोकतंत्र को उसकी जड़ों तक मजबूत करेगी, प्रशासनिक जवाबदेही बढ़ाएगी, कर संग्रह को विस्तृत करेगी और राज्यों एवं पंचायतों की वित्तीय भागीदारी को बढ़ाकर सहकारी संघवाद को और सशक्त बनाएगी जो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी एक प्रमुख लक्ष्य है।

पंकज जायसवाल