“समय के साथ बदलती पीढ़ियाँ और उनका समाज पर असर”
समय और समाज के बदलते माहौल के साथ हर पीढ़ी की सोच, जीवनशैली और चुनौतियाँ बदलती हैं। ग्रेटेस्ट जनरेशन और साइलेंट जनरेशन ने युद्ध और कठिनाई का सामना किया। बेबी बूमर्स ने औद्योगिकीकरण देखा, जेन-एक्स ने तकनीकी शुरुआत अनुभव की, और मिलेनियल्स ने इंटरनेट और वैश्वीकरण के साथ युवा जीवन जिया। जेन-ज़ी डिजिटल नेटिव हैं, आत्मनिर्भर और तेज़ सोच वाले, जबकि जेन अल्फा पूरी तरह डिजिटल माहौल में पले-बढ़ रहे हैं। मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक जुड़ाव और रोजगार की अनिश्चितता इनकी प्रमुख चुनौतियाँ हैं। संतुलन, रचनात्मकता और अनुभव-साझा करके भविष्य संवेदनशील और प्रगतिशील बनाया जा सकता है।
– डॉ प्रियंका सौरभ
समाज में समय-समय पर होने वाले परिवर्तन केवल राजनीति या तकनीकी तक सीमित नहीं रहते, बल्कि इंसान की सोच, जीवनशैली और संस्कृति पर गहरा असर डालते हैं। यही कारण है कि अलग-अलग वर्षों में जन्म लेने वाले लोगों को अलग-अलग “जनरेशन” के रूप में पहचाना जाता है। आजकल स्कूलों, कॉलेजों और यहाँ तक कि कॉरपोरेट दुनिया में भी “जेन-जी” और “जेन अल्फा” जैसे शब्द आम हो गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि ये पीढ़ियाँ हैं क्या, इनकी सोच और चुनौतियाँ किन मायनों में अलग हैं और क्या यह फर्क समाज को मज़बूत बना रहा है या विभाजन पैदा कर रहा है?
जनरेशन दरअसल वह समूह है जो लगभग समान समयावधि में जन्म लेता है और अपने बचपन व युवावस्था में समान सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों का अनुभव करता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जन्मे बच्चे और आज के डिजिटल युग में जन्मे बच्चों की सोच और जीवनशैली में ज़मीन-आसमान का फर्क है। यही फर्क हर पीढ़ी की पहचान बन जाता है। अमेरिका और यूरोप में बीसवीं सदी की शुरुआत में पीढ़ियों को वर्गीकृत करने का चलन शुरू हुआ और अब भारत सहित पूरी दुनिया में इसे अपनाया जा रहा है।
बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक कई पीढ़ियाँ सामने आई हैं। 1901 से 1927 के बीच जन्म लेने वाली “ग्रेटेस्ट जनरेशन” ने प्रथम विश्व युद्ध और महामंदी की कठिन परिस्थितियों का सामना किया। इनकी ज़िंदगी अनुशासन और त्याग से भरी रही। इसके बाद 1928 से 1945 तक जन्मे लोग “साइलेंट जनरेशन” कहलाए। यह वह पीढ़ी थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध, गरीबी और विस्थापन के बीच अपना बचपन गुज़ारा। भारत में यही पीढ़ी स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की गवाह बनी। 1946 से 1964 के बीच जन्म लेने वाली पीढ़ी “बेबी बूमर्स” के नाम से जानी गई। युद्ध के बाद जन्म दर में तेज़ी से वृद्धि हुई और दुनिया पुनर्निर्माण की ओर बढ़ी। भारत में यह वही लोग थे जिन्होंने पहली बार स्वतंत्र नागरिक का दर्जा पाया और औद्योगिकीकरण तथा हरित क्रांति के दौर को देखा।
1965 से 1980 के बीच जन्म लेने वाली “जेनरेशन एक्स” तकनीकी क्रांति की आहट के साथ बड़ी हुई। टीवी और रेडियो इनके जीवन का हिस्सा बने। भारत में इस पीढ़ी ने आपातकाल और आर्थिक संकट का समय देखा, इसलिए यह व्यावहारिक और आत्मनिर्भर मानी जाती है। इसके बाद 1981 से 1996 तक जन्म लेने वाली पीढ़ी “मिलेनियल्स” या “जेन-वाई” कहलायी। इसने इंटरनेट और वैश्वीकरण का दौर देखा। नई महत्वाकांक्षाओं और सपनों से भरे इन युवाओं ने आईटी क्रांति और मोबाइल तकनीक का लाभ उठाया।
1997 से 2012 तक जन्म लेने वाली “जेनरेशन-ज़ी” डिजिटल नेटिव कहलाती है। इन बच्चों ने बचपन से ही इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। इनकी पहचान आत्मविश्वास, रचनात्मकता और तेज़ सोच है, लेकिन अधीरता और प्रतिस्पर्धा भी इनमें साफ़ दिखाई देती है। इसके बाद 2013 से 2025 के बीच जन्म लेने वाले बच्चे “जेनरेशन अल्फा” के नाम से पहचाने जाते हैं। ये बच्चे ऐसे माहौल में पले-बढ़ रहे हैं जहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रियलिटी और रोबोटिक्स रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। इनके खिलौने भी स्मार्ट डिवाइस हैं और शिक्षा पूरी तरह ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर आधारित होती जा रही है।
जेनरेशन-ज़ी की कुछ खास विशेषताएँ इन्हें औरों से अलग करती हैं। यह पहली पीढ़ी है जिसने बचपन से ही डिजिटल आईडी बनाई। किताबों और अख़बारों की जगह यूट्यूब, इंस्टाग्राम और नेटफ्लिक्स इनकी पसंद बन गए। ये मल्टीटास्किंग में माहिर हैं, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र सोच रखते हैं, लेकिन इनकी सबसे बड़ी चुनौती ध्यान केंद्रित करने की क्षमता का कम होना है। सोशल मीडिया से होने वाली तुलना इनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और कई बार चिंता व अवसाद जैसी समस्याएँ भी पैदा करती है।
जेनरेशन अल्फा का भविष्य और भी अनोखा होगा। यह मानव इतिहास की पहली पूरी तरह डिजिटल नेटिव पीढ़ी है। इनके खिलौने रोबोट हैं, शिक्षा वर्चुअल क्लासरूम में हो रही है और इनके खेल का मैदान मेटावर्स तथा ऑगमेंटेड रियलिटी है। ये वैश्विक स्तर पर सोचेंगे क्योंकि इन्हें बचपन से ही दुनिया से जुड़े प्लेटफ़ॉर्म मिल रहे हैं, लेकिन साथ ही यह खतरा भी रहेगा कि इनका वास्तविक दुनिया से जुड़ाव कमजोर हो जाए।
हर पीढ़ी पिछली से अलग रही है। बेबी बूमर्स नौकरी और स्थिरता को महत्व देते थे, जेन-एक्स ने संतुलन साधा, मिलेनियल्स ने उद्यमिता और सपनों पर ध्यान दिया, जबकि जेन-जी और अल्फा तेज़ी, सुविधा और त्वरित संतुष्टि को महत्व देते हैं। यही अंतर कभी-कभी संवाद की खाई भी पैदा कर देता है।
भारतीय संदर्भ में पीढ़ियों का असर और भी विविध है। गाँव और शहर में अनुभव अलग हैं। गाँव के बच्चे आज भी पारंपरिक खेलों और सामाजिक आयोजनों से जुड़े रहते हैं, जबकि शहरों के बच्चे मोबाइल और लैपटॉप की दुनिया में खोए रहते हैं। जेन अल्फा में यह अंतर और भी गहरा होगा। आर्थिक असमानता और शिक्षा का स्तर भी इस खाई को बढ़ाता है।
जेन-जी और अल्फा बच्चों के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी होंगी। सबसे पहली चुनौती मानसिक स्वास्थ्य है। लगातार स्क्रीन टाइम और सोशल मीडिया के दबाव ने चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं को जन्म दिया है। दूसरी चुनौती सामाजिक जुड़ाव की है। वर्चुअल दुनिया में रिश्ते तो बनते हैं, लेकिन असली संबंध कमजोर पड़ जाते हैं। तीसरी चुनौती रोज़गार की अनिश्चितता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन पारंपरिक नौकरियों को खत्म कर रहे हैं। ऐसे में नई स्किल्स सीखना बच्चों के लिए अनिवार्य होगा।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाधान भी संभव हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को डिजिटल और वास्तविक जीवन का संतुलन सिखाएँ। शिक्षा प्रणाली को केवल अंकों तक सीमित न रखकर रचनात्मकता, सहयोग और भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर जोर देना होगा। सबसे ज़रूरी यह है कि बच्चों को प्रकृति और समाज से जोड़ा जाए। अगर पुरानी पीढ़ियों का अनुभव और नई पीढ़ियों की ऊर्जा आपस में मिल जाए, तो यह पीढ़ियाँ न केवल तकनीकी रूप से सक्षम होंगी बल्कि मानवीय दृष्टि से भी संवेदनशील बनेंगी।
अंत में कहा जा सकता है कि जेनरेशन-जी और अल्फा केवल नाम नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र का भविष्य हैं। पीढ़ियाँ बदलना स्वाभाविक है, लेकिन हर पीढ़ी की ताक़त और सीख को समझना ज़रूरी है। अगर हम अनुभव और ऊर्जा का मेल कर पाए, तो समाज संतुलित और प्रगतिशील बनेगा। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम आने वाली पीढ़ियों को तकनीकी रूप से दक्ष और मानवीय दृष्टि से संवेदनशील बनाकर सही दिशा दें।