गुरुकुल से स्मार्ट क्लास तक

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मनोज कुमार

वरिष्ठ पत्रकार

अनादिकाल से चली आ रहे गुरु पूर्णिमा मनाने की परम्परा को हमने जीवित रखा है लेकिन गुरु पूर्णिमा के महात्म को हम भूल चुके हैं. गुरु शिष्य परम्परा क्षरित होने के कगार पर है. इसका कारण समाज में नैतिक पतन है. शिक्षा जहां से अज्ञान का अंधेरा विलोपित होता है, उस शिक्षा ने व्यवसाय का रूप धर लिया है. शिक्षा अब ज्ञान और प्रकाशवान बनने के लिए नहीं है बल्कि शिक्षा अब रोजगार पाने का एक माध्यम है. जितनी ऊंची शिक्षा, उतने रोजगार के अवसर. शिक्षा के इस व्यवसायीकरण ने ही शिक्षा से संस्कार और भाषा को विलोपित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है. संस्कार के तिरोहित होते ही नैतिक बल स्वयं ही हाशिये पर चला गया है. अब हमारे साथ कोई वेदव्यास नहीं है. हम वेदव्यास की रचित पाठों को भी नहीं पढऩा चाहते हैं क्योंकि यह पाठ हमें रोजगार नहीं दिलाता है. रोजगारपरक शिक्षा हमारे समय की सबसे बड़ी जरूरत बना दी गई है. हम साक्षर होना चाहते हैं, शिक्षित होना नहीं. साक्षर होने का अर्थ दो दूनी चार सीख लें लेकिन शिक्षित हो गए तो अधिकारों के लिए सजग हो जाएंगे. तंत्र भी नहीं चाहता कि समाज शिक्षित हो और इसके लिए उसका जोर साक्षरता पर होता है. समय-समय पर आंकड़े जारी किए जाते हैं जिसमें साक्षरता का प्रतिशत बताया जाता है कि हमने साक्षरता में कितनी प्रतिशत की वृद्धि की है. कभी सरकारों ने शिक्षित लोगों का प्रतिशत नहीं बताया. समाज भी इस मामले में सुप्त रहा. शिक्षित समाज से बेहतर हमने साक्षर समाज को मान लिया है. आज जब हम गुरु पूर्णिमा का स्मरण कर रहे हैं. गुरु की महिमा का बखान कर रहे हैं तो स्मरण नहीं होता कि हमारे जमाने में स्मार्ट क्लास का कोई चलन रहा हो या किसी ने कल्पना की हो कि हजारों किलोमीटर दूर बैठा शिक्षक हमें पाठ पढ़ा रहा है. उस शिक्षक की कोशिश है कि एक साथ वह हजारों विद्यार्थियों को पाठ पढ़ाकर उस परीक्षा के लिए गुणी बना दे जिसमें उत्तीर्ण होने के बाद वह रोजगार पाने लायक हो जाए. आज हमारे समाज को गुरुकुल की जरूरत नहीं है. जीवन जीने की कला सीखने का अर्थ जीवन भर बेरोजगार रहना है और ऐसे में गुरुकुल के स्थान पर स्मार्ट क्लास हमारे लिए मायने रखता है. हम आगे पाठ, पीछे सपाट की कहावत को कंठस्थ कर लिया है क्योंकि हथेलियों पर चौबीसों घंटे नाचती-नचाती इलेक्ट्रॉनिक गजेट जब जरूरत हो, हमें जानकारी का खजाना खोल देती है. हम अपनी जरूरत के अनुरूप उसमें से उस पाठ को चुन लें.यहां स्मरण कर लेना जरूरी हो जाता है कि आखिर वेदव्यास कौन थे? उनका हमारे समाज में क्या महत्व है? यह जानना इसलिए भी जरूरी है कि इसे जाने बगैर हम गुरु पूर्णिमा के महात्म को समझ नहीं पाएंगे. शास्त्रों में उल्लेखित है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा विशेष रूप से गुरु पूजन का पर्व है. इस पर्व को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं. उन्होंने वेदों का विस्तार किया और कृष्ण द्वैपायन से वेदव्यास कहलाये। इसी कारण इस गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. 16 शास्त्रों एवं 18 पुराणों के रचयिता वेदव्यास जी ने गुरु के सम्मान में विशेष पर्व मनाने के लिये आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चुना. कहा जाता है कि इसी दिन व्यास जी ने शिष्यों एवं मुनियों को पहले-पहल श्री भागवत् पुराण का ज्ञान दिया था। अत: यह शुभ दिन व्यास पूर्णिमा कहलाया. इसी आषाढ़ मास की पूर्णिमा को छह शास्त्र तथा अठारह पुराणों के रचयिता वेदव्यास के अनेक शिष्यों में से पांच शिष्यों ने गुरु पूजा की परम्परा डाली. पुष्पमंडप में उच्चासन पर गुरु यानी व्यास जी को बिठाकर पुष्प मालाएं अर्पित कीं, आरती की तथा अपने ग्रंथ अर्पित किए. तब से शताब्दियां बीत गईं. गुरु को अर्पित इस पर्व की संज्ञा गुरु पूर्णिमा ही हो गई।16 शास्त्रों एवं 18 पुराणों के रचयिता वेदव्यास जी ने गुरु के सम्मान में विशेष पर्व मनाने के लिये आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चुना था. ये शास्त्र और पुराण हमारी बौद्धिक सम्पत्ति है क्योंकि ज्यों ज्यों हम शिक्षा को रोजगार से जोड़ते चले जाएंगे, नैतिक रूप से कमजोर होते चले जाएंगे तब-तब ये शास्त्र और पुराण हमारे अंधकार को दूर करने में सहायक होंगे. अभी हम पूरी तरह क्षरित नहीं हुए हैं लेकिन क्षरण के करीब करीब पहुंच चुके हैं. गुरु और शिष्य परम्परा किताबों की चर्चा में है. इस नए समय में हम शिक्षा के एक नए युग का सूत्रपात कर रहे हैं जहां शिक्षक भी है और शिष्य भी लेकिन परम्परा नदारद है. शिक्षा भी औपचारिक हो गई कहना, पूरी तरह अनुचित नहीं है. या यूं कहें कि शिक्षा ही वह पुल के रूप में हमारे बीच उपस्थित है जहां शिक्षक और शिष्य हमें नमूदार होते दिखाई देते हैं. प्राथमिक शिक्षा के उन दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं जब हम अपनी गलतियों के लिए हाथों पर गुरुजी की छड़ी खाकर घर लौटते थे. कई बार दिनभर के लिए कक्षा के बाहर मुर्गा बनाकर खड़ा कर दिया जाता था. पाठशाला में सजा पाकर घर लौटकर पिता से बताने की हिम्मत तब नहीं हुई क्योंकि गुरुजी के बाद पिता से पीटे जाने का भय बना रहता था. पिता की नजर में बच्चे को कुटने वाला गुरुजी ही सच्चा और सही है. आज जब पालकों को स्कूल प्रबंधन से लड़ते, विवाद करते देखता हूं तो मन कसैला हो जाता है. पालकों की शिकायत होती है कि कैसे उनके बच्चे को मारने या सजा देने की हिम्मत की. कई लोग तो आगे बढक़र इसे चुकाने वाली फीस से जोडक़र ताने देते हैं कि इतनी मोटी फीस क्या अपने बच्चे की पिटाई के लिए देते हैं? शिक्षकों के साथ ऐसा व्यवहार करते समय गुरु पूर्णिमा स्वयमेव समाप्त हो जाता है क्योंकि हम भूल जाते हैं कि हमने बच्चे को सीखने के लिए भेजा है तो गलती पर सजा तो मिलेगी ही. यह सजा नहीं होती है बल्कि सबक होता है जिंदगी का लेकिन सुविधाभोगी दौर में सबक नहीं, शिक्षा की डिग्री पर मामला थम गया है.यह दोष अकेले पालक के हिस्से में नहीं है. शिक्षा व्यवस्था की बुनावट ऐसी की जा रही है कि जहां शिक्षक के प्रति सहिष्णुता का भाव विलोपित है. कई खबरें ऐसी भी आती हैं तो दिल दहला देती हैं. अमुक स्कूल में शिक्षक ने गुस्से में बच्चे के सिर को दीवार से मार दिया या इतनी पिटाई लगायी कि बच्चा बेहोश हो गया. कुछेक बच्चों की मृत्यु की खबरें भी चिंताजनक है. शिक्षा व्यवस्था में पुराने जमाने की तरह सबक देना होगा, सजा नहीं. सजा तो अपराधियों को दिया जाता है, विद्यार्थियों को नहीं लेकिन इस दौर में सबक का अर्थ ही सजा है. शिक्षक प्रशिक्षण के नाम खानापूरी की जाती है और उन्हें बच्चों के प्रति कितना संवेदनशील होना चाहिए इसका पाठ नहीं पढ़ाया जा रहा है. किताबों से लेकर यूनिफार्म तक बेचने की जवाबदारी स्कूलों की है तो ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है.कुछ ऐसा ही हाल उच्च शिक्षा का है. महंगे कॉलेज और मोटी फीस जमा करने के बाद पालक अपनी जवाबदारी से मुंह मोड़ लेते हैं. मध्यमवर्गीय पालक हैं तो दोनों के लिए नौकरी पर जाना जरूरी है क्योंकि इस खर्च के लिए कमाना भी है और उच्च क्लास के लोग हैं तो उनके पास बच्चों के लिए वक्त नहीं. आया या मैट के भरोसे बच्चे की जिंदगी चल रही है. ऐसे में अकेलापन और मन में घिरती निराशा उन्हें गलत आदतों की तरफ मोड़ देती है. टीचर्स उन्हें दुश्मन लगते हैं. कॉलेज प्रीमाइसेस में नशे का कारोबार अब किसी से छिपा नहीं है. मोहब्बत के नाम पर जो नैतिक रूप से अनाचार हो रहा है, वह भी अखबारों की सुर्खियों में बना रहता है. यह बिगडैल व्यवस्था तालीम की बेशक्ल को उभारती है. दिखाती है कि हम गुरुकुल से दूर और बहुत दूर निकल आए हैं. कुछ लाज सरकार के नियंत्रण में चलने वाले स्कूल और कॉलेजों ने बचा रखी है तो वह भी सरकार की आंखों में खटक रही है. सरकारी स्कूलों पर ताले डलने की खबरें भी चर्चा में है. भारतीय समाज के सबसे गौरवशाली संस्कारित दिवस गुरु पूर्णिमा पर शिक्षा व्यवस्था पर चिंतन की आवश्यकता है. आवश्यकता है कि शिक्षा को रोजगार से जोडक़र विस्तार दिया जाए या समाज को शिक्षा के रास्ते शिक्षित और सुसंस्कारित किया जाए. निश्चित रूप से आज जो हम गुरु पूर्णिमा मना रहे हैं, वह औपचारिक है और अगले वर्ष भी इस औपचारिकता को पूर्ण करेंगे. इस बीच गुुरु शिष्य परम्परा और व्यवसायिक परिसरों में बदलते गुरुकुल की चिंता कर लेना भी जरूरी होगा. इलेक्ट्रॉनिक गैजेट आपको सूचनाओं से लबरेज कर देंगे लेकिन जीवन का ज्ञान तो वेदव्यास जी से ही प्राप्त हो पाएगा. आइए तलाश करने की कोशिश करते हैं कि कोई तो वेदव्यास मिले, कोई तो एकलव्य जैसा शिष्य मिले और कोई गुरुकुल राम-लक्ष्मण की भांति संस्कारित करने वाला मिले. गुरु पूर्णिमा की आपको सबको शुभकामनाएं देते हुए बस एक कामना समाज के शिक्षक अर्थात पत्रकार होने के नाते मन में उमड़ घुमड़ रही है. 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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