श्रीलंका से नेपाल: पड़ोसी संकट और भारत के लिए सबक

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जयसिंह रावत

हाल के वर्षों में, हमारे पड़ोस में कई देशों ने राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता का सामना किया है। श्रीलंका में आर्थिक संकट के कारण अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन हुए, जिसने सरकार को उखाड़ फेंका। इसी तरह, बांग्लादेश और नेपाल में भी जनता का असंतोष कई बार सड़कों पर दिखा। ये सभी घटनाएं, भले ही उनकी तात्कालिक वजहें अलग-अलग हों, एक जैसी कहानी कहती हैं—जहां कुशासन, आर्थिक विषमता, और भ्रष्टाचार चरम पर होते हैं, वहां जनता का धैर्य जवाब दे जाता है।


इन क्रांतियों और जनआक्रोश की लहरों में भारत के लिए एक गंभीर चेतावनी और एक अहम संदेश छिपा है। भारत एक मजबूत लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था वाला देश है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम इन पड़ोसियों के अनुभवों को नजरअंदाज कर दें।

पड़ोस का संकट: एक ही कहानी के अलग-अलग अध्याय

श्रीलंका का संकट एक ज्वलंत उदाहरण है। दशकों के कुशासन, विदेशी कर्ज पर अत्यधिक निर्भरता, और राजपक्षे परिवार की नीतियों ने देश की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। जब जनता को बुनियादी जरूरतें पूरी करना मुश्किल हो गया, तो वे सड़कों पर उतर आए। यह केवल आर्थिक संकट नहीं था, बल्कि राजनीतिक विफलता का भी परिणाम था।
इसी तरह, बांग्लादेश में राजनीतिक तनाव और विरोध प्रदर्शन देखे गए।  जनता के भीतर का असंतोष पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नेपाल में भी राजनीतिक अस्थिरता का इतिहास रहा है, जहां बार-बार सरकारें बदलती रही हैं। इन सभी जगहों पर एक बात समान है—जनता अपने नेताओं से जवाबदेही चाहती है। वे चाहते हैं कि उनके जीवन की मुश्किलें कम हों, न्याय मिले और भ्रष्टाचार खत्म हो।

भारत के लिए चेतावनी: एक मजबूत लोकतंत्र, फिर भी चुनौतियाँ

यह सच है कि भारत का लोकतंत्र और प्रशासनिक ढाँचा बहुत मजबूत है। हमारे पास एक स्वतंत्र न्यायपालिका, एक जीवंत मीडिया और एक मजबूत संवैधानिक व्यवस्था है लेकिन हमें आत्मसंतुष्ट नहीं होना चाहिए। जिन समस्याओं ने हमारे पड़ोसियों को संकट में डाला, उनकी जड़ें हमारे अपने समाज में भी मौजूद हैं।
भ्रष्टाचार भारत में एक बड़ी समस्या बनी हुई है। छोटे-बड़े हर काम के लिए रिश्वत देने की मजबूरी आज भी आम आदमी के जीवन का हिस्सा है। न्याय तक पहुंच एक और बड़ी चुनौती है। अदालतों में लाखों मामले लंबित हैं, और न्याय की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि कई बार न्याय मिलते-मिलते बहुत देर हो जाती है। यह आम जनता में व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा करता है।
इसके अलावा, आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है। एक तरफ देश में खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों में भी भारी असमानता है। यह विषमता एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकती है, खासकर जब युवा वर्ग को भविष्य धुंधला नजर आने लगता है।

आत्ममंथन की तत्काल आवश्यकता

श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की घटनाओं से हमें यह सबक मिलता है कि जनता का धैर्य असीम नहीं होता। अगर हम इन समस्याओं को नजरअंदाज करते रहेंगे, तो हमारे मजबूत संस्थानों पर भी सवाल उठ सकते हैं। भारत को तत्काल आत्ममंथन की जरूरत है। यह आत्ममंथन केवल राजनीतिक स्तर पर नहीं, बल्कि प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर भी होना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि जनता को केवल नारे और वादे नहीं, बल्कि ठोस परिणाम चाहिए।
क्या किया जा सकता है?

प्रशासनिक सुधार: 

भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए कठोर कानून और उनका प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है।

न्यायिक सुधार: 

न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में सुधार लाकर लंबित मामलों को तेजी से निपटाना होगा।

र्थिक नीतियाँ: 

समावेशी विकास पर जोर देना होगा ताकि आर्थिक लाभ केवल कुछ लोगों तक सीमित न रहे।

वसरों की समानता: 

सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए।

जयसिंह रावत

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