संघर्ष से शिखर तक: भारतीय महिला खिलाड़ियों का ओलम्पिक उदय

डॉ शिवानी कटारा

भारतीय खेल इतिहास लंबे समय तक पुरुष प्रधान रहा, लेकिन बीते कुछ दशकों में महिलाओं ने जिस तरह से अपनी पहचान बनाई है, वह अभूतपूर्व है। कभी खेलों में महिलाओं की भागीदारी सीमित और हाशिए पर थी, परंतु आज भारतीय बेटियाँ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर देश का परचम लहरा रही हैं। भारतीय महिला खिलाड़ियों का ओलंपिक प्रतिनिधित्व निरंतर बढ़ता गया है। 2000 में नगण्य उपस्थिति से शुरू होकर यह आँकड़ा आज 40–44% तक पहुँच चुका है। यह बदलाव केवल खेलों का नहीं, बल्कि समाज में महिला सशक्तिकरण और बदलती सोच का भी प्रतीक है। कहा जाता है—“भर्तृभक्त्या स्त्रियः श्रेयो लभन्ते लोकसम्मतम्।” अर्थात् स्त्रियाँ अपनी निष्ठा और कर्म से लोक में श्रेष्ठ यश प्राप्त करती हैं। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में मैरी डिसूजा ने भारत का प्रतिनिधित्व कर इतिहास रचा। वे पहली भारतीय महिला एथलीट थीं जिन्होंने ओलंपिक मंच पर कदम रखा। उस समय न पर्याप्त प्रशिक्षण सुविधाएँ थीं, न ही समाज से उन्हें व्यापक स्वीकृति मिलती थी। धीरे-धीरे समय बदला और 1980 के दशक में पी.टी. ऊषा भारतीय खेलों का बड़ा नाम बनीं। “ट्रैक क्वीन” कही जाने वाली ऊषा ने 1984 लॉस एंजेलिस ओलंपिक में 400 मीटर हर्डल्स में चौथा स्थान पाकर इतिहास रचा। पदक से कुछ सेकंड दूर रह जाने पर भी उन्होंने दिखाया कि भारतीय महिलाएँ ट्रैक पर वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं। उनकी उपलब्धि ने असंख्य बेटियों को खेलों की ओर प्रेरित किया। इसके बाद खेलों में महिलाओं की भागीदारी धीरे-धीरे बढ़ती गई। 2000 के दशक में कर्णम मल्लेश्वरी ने सिडनी ओलंपिक में वेटलिफ्टिंग का कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा। वे भारत की पहली महिला बनीं जिन्होंने ओलंपिक में पदक हासिल किया। इस उपलब्धि ने महिलाओं की खेल यात्रा में नया साहस और आत्मविश्वास भर दिया। 2010 के बाद भारतीय महिला खिलाड़ियों का स्वर्णिम दौर शुरू हुआ। 2012 लंदन ओलंपिक में साइना नेहवाल ने बैडमिंटन में कांस्य जीतकर खेल को घर-घर पहुँचाया। उसी वर्ष मणिपुर की मैरी कॉम ने मुक्केबाजी में कांस्य पदक जीतकर साबित किया कि साधारण पृष्ठभूमि, माँ और पत्नी होने की जिम्मेदारियों के बावजूद विश्वस्तरीय खिलाड़ी बन सकती हैं। उनका संघर्ष प्रेरणादायक कथा है—साधारण परिवार से निकलकर पाँच बार की विश्व चैंपियन बनीं और राज्यसभा सांसद के रूप में भी सभी को प्रेरणा देती रहीं। 2016 रियो ओलंपिक में भारतीय महिलाओं ने देश की उम्मीदों को संभाला। पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में रजत पदक जीता और साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य पदक। दीपा कर्माकर ने जिम्नास्टिक में “प्रोडुनोवा” जैसे कठिन वॉल्ट को सफलतापूर्वक कर देश को रोमांचित किया। यहीं से यह धारणा और गहरी हो गई कि महिलाएँ अब हर खेल में समान रूप से आगे बढ़ सकती हैं। 2020 टोक्यो ओलंपिक (2021) में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने शानदार प्रदर्शन किया। मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में रजत पदक जीता, लवलीना बोरगोहेन ने मुक्केबाजी में कांस्य पदक हासिल किया और पी.वी. सिंधु ने लगातार दूसरी बार पदक जीतकर और मनु भाकर ने निशाने बाजी में 2 पदक जीत कर इतिहास रचा। इन उपलब्धियों का प्रभाव पदकों से कहीं आगे बढ़ा। अब ग्रामीण क्षेत्रों की बेटियाँ, जहाँ खेलना कभी असंभव माना जाता था, मैरी कॉम, साक्षी मलिक और मीराबाई चानू को देखकर आगे बढ़ रही हैं। हरियाणा जैसे राज्यों के छोटे गाँवों से निकलकर बेटियाँ अंतर्राष्ट्रीय मंच तक पहुँच रही हैं, वहीं कभी बेटियों के जन्म पर खुशी तक नहीं मनाई जाती थी। भारतीय महिलाओं का खेल सफर सशक्तिकरण की जीवंत गाथा है। बदलते समाज में परिवार बेटियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। स्कूल-कॉलेजों में सुविधाएँ बढ़ी हैं और सरकार “खेलो इंडिया” जैसे कार्यक्रमों से महिला खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान कर रही है। इस यात्रा से यह सिद्ध होता है कि वास्तविक बदलाव सिर्फ पदकों से नहीं, बल्कि उन संघर्षों से उपजता है जिन्हें खिलाड़ी अपने पीछे प्रेरक उदाहरण के रूप में समाज के लिए छोड़ जाती हैं। पी.टी. ऊषा की दौड़, कर्णम मल्लेश्वरी का ऐतिहासिक पदक, मैरी कॉम की जुझारू लड़ाई, सिंधु का आत्मविश्वास और मीराबाई का साहस—ये सब मिलकर भारतीय महिलाओं की बदलती स्थिति की कथा कहते हैं। जैसा कि मैरी कॉम ने कहा है—“कभी हार मत मानो, क्योंकि जब तुम हार मानते हो, तभी तुम्हारी असली हार होती है।” आज भारतीय महिला खिलाड़ी केवल पदक नहीं जीत रहीं, बल्कि रूढ़ियाँ तोड़कर बेटियों को प्रेरित कर रही हैं और यह संदेश दे रही हैं कि खेल जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा है—संघर्ष, अनुशासन और आत्मविश्वास। आने वाले समय में जब इतिहास लिखा जाएगा तो यह कहा जाएगा कि इक्कीसवीं सदी में भारतीय महिलाओं ने खेलों के दिशा और स्वरूप को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया।

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