चिंताजनक बनती कूड़े की समस्या

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डॉ.वेदप्रकाश

      राजधानी दिल्ली में कई स्थानों पर कूड़े के पहाड़ बन चुके हैं। नदी,नालों व सड़कों पर कूड़ा सहज ही देखा जा सकता है। कूड़े का निस्तारण तो दूर, ठीक से संग्रह भी नहीं हो पा रहा है. क्या यह स्थिति चिंताजनक नहीं है। कूड़ा किसी उत्पाद की खपत के बाद उपजने वाली वस्तु है। हम घर में अथवा घर के बाहर प्रतिदिन भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक उत्पादों का प्रयोग करते हैं और फिर उनके अपशिष्ट को जहां-तहां फेंक देते हैं। कई बार तो डस्टबिन पास होने पर भी हम कूड़ा उसमें नहीं डालते. क्या एक नागरिक के रूप में यह आदत ठीक है? “गली में न मैदान में, कूड़ा कूड़ेदान में” क्या यह बात हमारा स्वभाव नहीं बननी चाहिए?

आज कूड़े का संकट नदी, पहाड़, तालाब, समुद्र, धरती आदि को पाटते हुए चंद्रमा की सतह तक भी पहुंच गया है। वर्ष 2023 की द गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले चंद्रमा की सतह पर लगभग 200 टन कूड़ा पड़ा है। क्या यह स्थिति भयावह नहीं है? क्या इसके लिए हम सभी दोषी नहीं हैं? आज प्लास्टिक कचरा वैश्विक संकट बनता जा रहा है। दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 40 करोड़ टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हो रहा है जिसमें से बड़ी मात्रा में खुले में फेंक दिया जाता है अथवा जला दिया जाता है। खुले में फेंकने और जलाने से अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा हो रही हैं।

 सर्वाधिक प्लास्टिक प्रदूषण उत्पादित करने वाले 10 देशों की सूची में भारत का स्थान सबसे ऊपर है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत आज दुनिया के शीर्ष पर है। इसलिए प्लास्टिक प्रदूषण कम करने हेतु हमें अधिक प्रयास करने होंगे। भारत में प्लास्टिक के खिलौनें, थैलियां, बोतलें, चिप्स के रैपर आदि के रूप में कूड़ा अधिक फैल रहा है। क्या इसके लिए भारी जुर्माने का नियम सख्ती से लागू नहीं होना चाहिए? लकड़ी और मिट्टी के खिलौने, जूट एवं कपड़े के थैलों का सहज प्रयोग करके हम बड़ी मात्रा में प्लास्टिक का प्रयोग व कूड़ा घटा सकते हैं। हमारे पास पर्यावरण अनुकूल संसाधन हैं, हमें उनका प्रयोग बढ़ाने की आवश्यकता है।


    भारत गांवों का देश है। देश की बड़ी जनसंख्या आज भी गांवों में रहती है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में गांवों की संख्या 6,48,059 थी। वर्ष 1940 के दशक में गांधी जी ने लिखा था- देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गांवों के बदले हमें घूरे जैसे गंदे गांव देखने को मिलते हैं… गांव के बाहर और आसपास इतनी गंदगी होती है और वहां इतनी बदबू आती है कि अक्सर गांव में जाने वाले को आंख मूंदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है। कूड़ा प्रबंधन की दृष्टि से ये गांव आज 2024 में भी बहुत पीछे हैं। अक्टूबर 2023 के आंकड़े बताते हैं कि केवल 1,65,048 गांवों में ही ठोस कचरा और 2,39,063 गांवों में तरल कचरा प्रबंधन की व्यवस्था है। यद्यपि वर्ष 2014 में शुरू हुए स्वच्छ भारत मिशन के बाद देश के लाखों गांव खुले में शौच मुक्त हो चुके हैं लेकिन कचरा प्रबंधन की स्थिति अभी भी बहुत चिंताजनक है। एक लेख में पर्यावरणविद डा. अनिल प्रकाश जोशी ने लिखा है-अगर हमारे परिवेश में गंदगी है तो इसके दोषी हम स्वयं हैं…हमारे देश में हर साल जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तो वह 62 मिलियन टन कूड़े के ढ़ेर के बीच पैदा होता है। क्या यह स्थिति चिंताजनक नहीं है?

गांव के साथ-साथ भारत के शहरों में भी कूड़ा उत्पादन और प्रबंधन की स्थिति चिंताजनक है। जुलाई 2024 के आंकड़ों के अनुसार देश के दिल्ली, कोलकाता,जयपुर ,कानपुर,लुधियाना, आगरा, मथुरा ,पानीपत एवं शिमला आदि शहरों में कुल कचरे का लगभग 30 से 40 फीसद ही निस्तारित हो पाता है। 26 शहरों के आंकडों में राजधानी दिल्ली की स्थिति सबसे चिंताजनक है। यहां प्रतिदिन लगभग 11000 मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है,जिसमें से केवल 8000 मीट्रिक टन ही निस्तारित हो पाता है। राष्ट्रीय राजधानी के ओखला, तेहखंड, बवाना और गाज़ीपुर लैंडफील साइट पर कूड़े के पहाड़ खड़े हुए हैं जो वायु प्रदूषण व स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती होने के साथ-साथ भूजल प्रदूषण के भी बड़े कारक बन रहे हैं। इन क्षेत्रों में भूजल जहरीला हो चुका है, आसपास के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं। दिल्ली में गली-गली, चौक चौराहे कूड़े के ढेर देखे जा सकते हैं। यमुना नदी में नालों के जरिए ठोस कूड़ा सीधे गिर रहा है तो घरों की टूट-फूट के अवशेष भी कूड़े के रूप में देखे जा सकते हैं। प्रशासन घर-घर कूड़ा उठाने के कुछ प्रयासों के बावजूद लाचार दिखाई दे रहा है।

 विगत दिनों राष्ट्रीय राजधानी में अशोधित ठोस कचरे को सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल का खतरा बताते हुए सुप्रीम कोर्ट तीखी टिप्पणी कर चुका है। पीठ ने कहा है- हम इस बारे में चिंतित हैं। जहां हम प्रतिदिन 3000 टन से अधिक अशोधित ठोस कचरा उत्पन्न कर रहे हैं और प्रतिदिन इसमें बढ़ोतरी होगी… एमसीडी के हलफनामे को देखकर उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती। ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय राजधानी सहित देश के बड़े शहरों में क्षमताएं सीमित हैं जबकि वहां रोजगार आदि विभिन्न कारणों से जनसंख्या का दबाव लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में कचरा प्रबंधन के सुस्त प्रयास घातक हैं। सूखा व गीला कचरा घरों में ही अलग करके देना चाहिए,लेकिन नागरिक दायित्वबोध की कमी के कारण उसमें भी हम बहुत पीछे हैं।


      ई कचरा एक अन्य बड़ी और चिंताजनक समस्या बनती जा रही है। जैसे-जैसे इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का प्रयोग बढ़ रहा है वैसे-वैसे उनके कचरे की समस्या भी विकराल होती जा रही है। ई कचरे में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की भागीदारी 16 फीसद, छोटे एवं बड़े उपकरणों की 13 फीसद, इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक औजारों की 12 फीसद,खिलौने और अन्य सामान 07 फीसद है। ई कचरा उत्पादन में भी राष्ट्रीय राजधानी तमिलनाडु के बाद सबसे आगे है। जानकारी के अनुसार वर्ष 2022-23 में दिल्ली में करीब 2.30 लाख टन ई कचरा उत्पन्न हुआ। विडंबना यह है कि यह कचरा भी सीधे लैंडफिल साइट में ही पहुंच रहा है। यद्यपि दिल्ली में ई वेस्ट इको पार्क बनाने की योजना को बहुत पहले ही स्वीकृति दे दी गई है लेकिन अभी तक वह धरातल पर नहीं उतर पाई है।

 ई कचरे के अतिरिक्त नेल पॉलिश की शीशी, पेंट और कीटनाशक के डिब्बे, सीएफएल बल्ब, एक्सपायर हो चुकी दवाएं, टूटे हुए पारे के थर्मामीटर,इस्तेमाल की जा चुकी बैटरियां, सिरिंज और सूई आदि विषैला घरेलू कचरा भी पारिस्थितिकी तंत्र व मानव स्वास्थ्य दोनों पर घातक प्रभाव डाल रहा है। टाक्सिक लिंक नामक गैर सरकारी संस्था के एक अध्ययन के अनुसार देश में लगभग 1600 से 6401 टन विषैला घरेलू कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है, जिसे स्रोत पर ही अलग नहीं किया जाता। इस प्रकार का कचरा अपशिष्ट संभालने वाले कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आवाह्न पर अनेक व्यक्ति एवं संस्थाएं वेस्ट टू वेल्थ के माध्यम से कूड़ा प्रबंधन की दिशा में कार्य कर रही हैं। अनेक नए स्टार्टअप भी शुरू हुए हैं। कई संस्थाएं जन भागीदारी और नवाचार के प्रयास कर रही हैं। लेकिन कचरे की मात्रा के अनुपात में ये प्रयास बहुत कम हैं। तमाम चुनौतियों के बाद भी देश का इंदौर शहर स्वच्छता और कूड़ा प्रबंधन के लिए इतिहास रच रहा है। आज एक नागरिक के  नाते हमें यह समझने की आवश्यकता है कि यह कचरा हम पैदा कर रहे हैं और फैला भी रहे हैं। तो उसे संभालने और उठाने की जिम्मेदारी क्या हमारी नहीं है?

आज कूड़ा उत्पादन और प्रबंधन की स्थिति घातक और बदतर है।यह प्रकृति-पर्यावरण एवं जीवन के लिए संकट बनता जा रहा है। यदि हम केवल शासन- प्रशासन के भरोसे बैठे रहेंगे तो इस समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। स्वच्छ भारत, शौचालय युक्त भारत जैसे अभियान आज जन भागीदारी से सफलता की कहानी लिख रहे हैं, तो क्या कचरा मुक्त भारत में हमारी भागीदारी नहीं हो सकती? एक नागरिक के रूप में जब हम एक स्वच्छ वातावरण और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं। अनेक अवसरों पर हम अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं, तो क्या हमें अपने कूड़े के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करना चाहिए? क्या आज हम सभी को कूड़ा प्रहरी बनने की आवश्यकता नहीं है? ध्यान रहे प्रहरी स्वयं भी जागता है और दूसरों को भी जगाता है। कचरे से निपटने के लिए आज शासन-प्रशासन के साथ-साथ जन भागीदारी भी अत्यंत आवश्यक है।

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