गजेंद्र सिंह
हाल ही में विश्व के दो सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों — मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) और हार्वर्ड विश्वविद्यालय — के दीक्षांत समारोहों में दिए गए भाषणों ने वैश्विक स्तर पर तीखी बहस को जन्म दिया है। इन मंचों पर छात्रों द्वारा व्यक्त विचारों ने न केवल राजनीतिक और वैचारिक रुझानों को उजागर किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि आज शैक्षणिक परिसर किस प्रकार वैचारिक ध्रुवीकरण का केंद्र बनते जा रहे हैं। जहाँ कभी विश्वविद्यालय ज्ञान, तर्क और संवाद के निष्पक्ष मंच हुआ करते थे, वहीं अब वे धीरे-धीरे एकतरफा सक्रियता और वैचारिक कब्जे का माध्यम बनते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल शैक्षणिक तटस्थता के लिए चुनौती है, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता और समावेशिता की आत्मा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।
MIT की स्नातक कक्षा अध्यक्ष, मेघा वेमुरी ने अपने दीक्षांत भाषण में इस्लामिक कफिया धारण करते हुए इज़राइल और MIT के अमेरिकी रक्षा विभाग से संबंधों की सार्वजनिक रूप से आलोचना की । उन्होंने ग़ाज़ा युद्ध की एकपक्षीय निंदा की किंतु 7 अक्टूबर को हमास द्वारा इज़राइल में किए गए उस क्रूरतापूर्ण हमले का कोई उल्लेख नहीं किया जिसमें 1,200 से अधिक निर्दोष नागरिक मारे गए — जिसे होलोकॉस्ट के बाद यहूदियों पर सबसे भीषण हमला माना गया है। उनके वक्तव्य में न तो इज़रायली या यहूदी समुदाय की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति व्यक्त की गई और न ही किसी प्रकार की संवेदनशीलता प्रदर्शित की गई। साथ ही, उन्होंने इस्लामी कट्टरपंथ के नाम पर विश्वभर में हुए अन्य जघन्य आतंकी हमलों — जैसे पेरिस का बाताक्लान थिएटर नरसंहार (2015), श्रीलंका के ईस्टर बम विस्फोट (2019), चार्ली हेब्दो हत्याकांड, और नाइस चर्च हमला — पर भी मौन साधे रखा। इतना ही नहीं, वे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों — विशेषकर हिंदुओं — पर हो रहे व्यवस्थित उत्पीड़न, चीन में उइगर मुसलमानों के साथ हो रहे मानवाधिकार हनन, आईएसआईएस द्वारा यज़ीदी महिलाओं को गुलाम बनाए जाने, तथा ब्रिटेन में ग्रूमिंग गैंग द्वारा नाबालिग लड़कियों के शोषण जैसे गंभीर वैश्विक मुद्दों पर भी पूरी तरह से मौन रहीं। शायद उनसे इन मुद्दों पर व्यापक संवेदनशीलता और संतुलित दृष्टिकोण की अपेक्षा इसलिए की गई, क्योंकि उन्होंने अपने भाषण में मानवाधिकारों और मानव उत्पीड़न जैसे गंभीर विषयों को उठाया था। यह स्वाभाविक था कि जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच से ऐसी बातें करता है तो यह माना जाता है कि उसकी समझ इन विषयों पर गहन, व्यापक और निष्पक्ष होगी अन्यथा, किसी सामान्य विचारक या छात्र से इस स्तर की वैचारिक गहराई और जिम्मेदारी की अपेक्षा करना कहीं न कहीं बेमानी और भ्रामक है।
इसी क्रम में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह के दौरान स्नातक छात्र वक्ता युरोंग “लुआना” जियांग — जो एक चीनी नागरिक हैं और चीन की ‘बायोडायवर्सिटी कंजर्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फाउंडेशन’ से संबद्ध हैं — ने अपने भाषण में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की आधिकारिक भाषा का प्रयोग करते हुए “मानवता के लिए साझा भविष्य” (Shared Future for Mankind) का आह्वान किया। यह वाक्य महज़ एक आदर्शवादी वक्तव्य नहीं बल्कि चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) और उसकी सॉफ़्ट पावर रणनीति का प्रमुख वैचारिक स्तंभ है, जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर चीन के प्रभाव का विस्तार करना है। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि युरोंग जियांग के पिता भी उसी संगठन में एक वरिष्ठ कार्यकारी पद पर कार्यरत हैं जिससे उनके वक्तव्य की वैचारिक पृष्ठभूमि और उद्देश्य को लेकर और भी प्रश्न उठते हैं
यह घटनाएं कोई अपवाद नहीं हैं बल्कि एक व्यापक और गहराती हुई प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। कोलंबिया, स्टैनफोर्ड और यूसी बर्कले जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हाल के वर्षों में ऐसे विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं जो केवल वैचारिक असहमति तक सीमित नहीं रहे बल्कि शारीरिक टकराव, स्थायी धरनों और कक्षाओं के स्थगन तक जा पहुँचे हैं। ‘फाउंडेशन फॉर इंडिविजुअल राइट्स एंड एक्सप्रेशन’ (FIRE) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि 88% अमेरिकी कॉलेज छात्र मानते हैं कि उनके परिसर का माहौल खुली बहस और वैचारिक विविधता को प्रोत्साहित नहीं करता। वर्ष 2022 में FIRE ने कुल 145 ऐसे मामलों को दर्ज किया जिनमें आमंत्रित वक्ताओं के निमंत्रण रद्द कर दिए गए—और इनमें से लगभग 63% मामले वामपंथी विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों के थे। इसी प्रकार, ‘हेटेरोडॉक्स अकादमी’ के 2023 के सर्वेक्षण में यह उजागर हुआ कि 59% छात्र वैचारिक विरोध और सामाजिक बहिष्कार के भय से अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने से बचते हैं। विशेष रूप से, 74% ऐसे छात्र जिन्होंने स्वयं को ‘रूढ़िवादी’ (conservative) के रूप में पहचाना, उन्होंने कक्षा में अपनी राजनीतिक मान्यताएं व्यक्त करते समय असहजता महसूस करने की बात स्वीकार की।
पश्चिमी विश्वविद्यालयों के छात्र कार्यकर्ता गाज़ा युद्ध और रोहिंग्या शरणार्थी के विरोध में मुखर प्रदर्शन करते हैं लेकिन अन्य वैश्विक मानवीय संकटों और अत्याचारों के प्रति उनकी चुप्पी कई प्रश्न खड़े करती है। वे कश्मीर, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की जातीय सफाई ,व्यवस्थित अत्याचार और हिन्दू शरणार्थी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक लड़कियों के साथ व्यवस्थित बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन तथा चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों की जबरन नसबंदी और सामूहिक नजरबंदी जैसे गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों पर मौन रहते हैं। हाल ही में हुए 2025 के पहलगाम आतंकी हमले, जिसमें हिंदू तीर्थयात्रियों की धार्मिक पहचान की पुष्टि कर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा उनकी निर्मम हत्या की गई, उस पर भी उन्होंने कोई सार्वजनिक निंदा नहीं की। इसी प्रकार, ब्रिटेन में कई वर्षों तक चले संरचित ‘ग्रूमिंग गैंग’ मामलों—जहाँ अधिकांश पीड़ित नाबालिग लड़कियाँ थीं और अधिकांश आरोपी इस्लामिक कट्टरपंथी पृष्ठभूमि से—पर भी कार्यकर्ताओं ने चुप्पी साधे रखी है। तालिबान द्वारा अफगान महिलाओं पर लगातार जारी दमन, जिसमें लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध और कठोर ड्रेस कोड जैसी अमानवीय नीतियाँ शामिल हैं, उसे भी अपेक्षित विरोध नहीं मिला । यह चयनात्मक नैतिकता दर्शाती है कि कई बार मानवाधिकारों की बात केवल सुविधाजनक वैचारिक सीमाओं के भीतर की जाती है, न कि एक सार्वभौमिक और न्यायसंगत दृष्टिकोण से ।
यह चयनात्मक चुप्पी — खासकर उन लोगों की ओर से जो नैतिक ऊँचाई का दावा करते हैं — एक गहरे दोहरे मानदंड को उजागर करती है। इससे विविध पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों में असहजता बढ़ती है। जब विश्वविद्यालय केवल कुछ विशेष विचारों को प्रमुखता देते हैं, तो वे न केवल समावेशिता और एकता को ठेस पहुँचाते हैं, बल्कि अपनी वैश्विक प्रतिष्ठा और नैतिक प्रामाणिकता को भी खतरे में डालते हैं।
आज विश्वविद्यालय ज्ञान-विनिमय और बौद्धिक विकास के केंद्र न रहकर वैचारिक प्रदर्शन के मंच बनते जा रहे हैं। कक्षाओं से लेकर दीक्षांत तक, ये मंच अब उपलब्धियों के उत्सव के बजाय कुछ गिने-चुने विचारों के प्रचार के साधन बनते दिखते हैं। इससे वे मूल मूल्य — जैसे विचारों की स्वतंत्रता, असहमति के प्रति सहिष्णुता, और सत्य की खोज — पीछे छूटते जा रहे हैं।
“कथा” आज रणनीतिक शक्ति बन गई है । जब संस्थान एकतरफा सक्रियता या राज्य-प्रेरित संदेशों को मंच देते हैं, तो वे अनजाने में भू-राजनीतिक प्रभावों के उपकरण बन सकते हैं और उन्हीं छात्रों को हाशिए पर डालते हैं जिन्हें वे सशक्त बनाने का दावा करते हैं।
आलोचना हो — लेकिन संदर्भपूर्ण । भावनाएं प्रकट हों — मगर दूरदर्शिता और समझदारी के साथ । यह जटिल दुनिया वैचारिक एकरूपता नहीं बल्कि विविध दृष्टिकोणों की मांग करती है — और हमारे युवा मस्तिष्क इससे कम के अधिकारी नहीं हैं।
गजेंद्र सिंह