देश में बढ़ रही है कुतर्क की राजनीति

जेएनयू

kanhaiyaसुरेश हिंदुस्थानी
देश में जिस प्रकार का राजनीतिक वातावरण निर्मित किया जा रहा है, उससे ऐसा लगने लगा है कि हमारे देश के प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा देश के विकास की राजनीति को झुठलाने का प्रयास हो रहा है। यह भारत देश में ही हो रहा है, जिसमें आतंकवाद और देशद्रोही के अत्यंत संवेदनशील मामलों पर राजनीतिक रवैया अपनाया जा रहा है। ऐसे मामलों में की गई राजनीति किसी न प्रकार से देश भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कहा जाएगा। भारत की मूल संस्कृति को सिरे से खारिज करने वाली वामपंथी राजनीति ने तो एक प्रकार से देश का विरोध करने की ही ठान ली है। जिस वामपंथ को देश की जनता ने राजनीतिक शून्य की स्थिति में पहुंचा दिया है, आज वही वामपंथ फिर से राजनीतिक बयानों के चलते देश के साथ नकारात्मक राजनीति करता हुआ दिखाई दे रहा है। वामपंथी राजनीति का जो मूल सिद्धांत है, वह चीन जैसे देश में स्वीकार किया जा सकता है, इसके अलावा भारत में इनको सफलता तभी मिल सकती है, जब भारत के व्यक्ति अपने देश को ही भूलने लगे।
हम जानते हैं कि वामपंथी राजनीति का मुख्य उद्देश्य देश की जनता को भारत की मुख्य धारा से भटकाना ही रहा है। उन्होंने धर्म की राजनीति को अफीम बताया, वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महान क्रांतिकारी को कुत्ता तक कहा था। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि वे देशहित की राजनीति यानी सकारात्मक राजनीति करने की दिशा में अपने कदम नहीं बढ़ा सकते। वामपंथ का मूल विदेश में हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी राजनीति तो देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के नाम से पहचान बनाने वाली कांग्रेस द्वारा की जा रही है। वह भी वर्तमान में वामपंथी दलों से दो कदम आगे की राजनीति करने की मुद्रा में दिखाई दे रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने केन्द्र सरकार पर आरोप लगाया कि वह छात्रों पर अंकुश लगा रही है, छात्रों को बोलने से रोका जा रहा है। अब सवाल यह आता है कि अगर यह मान भी लिया जाए कि केन्द्र सरकार छात्रों के बोलने पर अंकुश लगा रही है, तो इसके जवाब में सबसे पहले इस बात की जांच करनी होगी कि वह बोल क्या हैं, जिसको रोकने का प्रयास किया जा रहा है। जब हम सारा भारत एक की बात करते हैं तो सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि सारा भारत एक कैसे है। वास्तव में किसी भी घटना को देखने का नजरिया अलग अलग नहीं होना चाहिए। देशद्रोही पूर्ण किसी भी घटना को पूरे देश को एक ही नजरिये से देखा जाना चाहिए, लेकिन हमारे देश में क्या हो रहा है। हर घटना को राजनीतिक रूप देने का प्रयास किया जाता है। कांग्रेस और वामपंथी दलों ने रोहित वेमुला और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, वह निश्चित रूप से देश के समक्ष बहुत बड़ा खतरा पैदा करने की कवायद मानी जा सकती है। ऐसी घटनाओं के मामले में सभी राजनीतिक दलों को यह प्रयास करना चाहिए कि इस प्रकार की घटनाएं किसी भी रूप में घटित ही न हों। और अगर इस प्रकार की घटनाएं हो भी जाती हैं तो सारे राजनीतिक दलों को सरकार का साथ देकर ऐसी घटनाओं का हल निकालना चाहिए।
हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के नरसंहार मामले पर कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है। इसका सीधा सा मतलब था कि उन्होंने निर्दोष सिखों के नरसंहार को जायज ठहराया था। वास्तव में इसके लिए सिखों का पूरा समाज दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा किया। इस मामले में किसी भी ने भी यह प्रयास नहीं किया कि इसकी जांच की जाए। कांग्रेस के नेताओं ने कभी भी इस घटना को अनुचित नहीं बताया।
वर्तमान में कांग्रेस के राहुल गांधी जिस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, वह येनकेन प्रकारेण देश की राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने की एक कवायद है। राहुल गांधी और कांग्रेस आज जिस प्रकार से कालेधन के मामले पर केन्द्र सरकार को घेरने का उपक्रम कर रहे हैं। वह एक प्रकार से उल्टा चोर कोतवाल की कहावत को ही चरितार्थ करने वाली राजनीति है। कालेधन के मामले में यह बात राहत देने वाली खबर है कि वर्तमान केन्द्र सरकार के कार्यकाल में कालेधन के रूप में जमा होने वाली राशि में बहुत बड़ी कमी आई है। जबकि कांग्रेस के कार्यकाल में कालाधन की मात्रा नित्य प्रति बढ़ती ही जा रही थी। यह कांग्रेस की कुतर्की राजनीति का ही हिस्सा है।
आज देश का युवा भले ही सीधे तौर पर राजनीति का हिस्सा नहीं हो, लेकिन देश में हो रही हर राजनीतिक कार्यवाही के प्रति उसका ध्यान हमेशा रहा है। कांग्रेस और वामपंथी राजनीति में आज सबसे बड़ी दुविधा यही है कि आज इनके पास सितारा प्रचारकों की सबसे बड़ी कमी है। इतना ही नहीं वर्तमान में देश में जो भी राजनीतिक बुराई दिखाई दे रही है, वह निश्चित रूप से कांगे्रस द्वारा संचालित नीतियों का ही परिणाम है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में सर्वाधिक शासन कांगे्रस ने ही चलाया है, इसके बाद भी कांगे्रस द्वारा बुराइयों को लेकर वर्तमान केन्द्र सरकार को घेरना, अपने आपको बचाने के लिए उठाया गया कदम ही माना जाएगा। पिछले लोकसभा चुनाव में कांगे्रस की जो हालत हुई, उससे यह भी कहा जा सकता है कि जिन कारणों से कांगे्रस का सफाया हुआ, कांगे्रस आज उन कारणों पर चिन्तन करती दिखाई नहीं दे रही है। उनके द्वारा सरकार के हर प्रयास का विरोध करना केवल विरोध करने के लिए विरोध करने की नीति को उजागर करने वाला है। इससे देश में यह संकेत जा रहा है कि कांगे्रस सहित देश के अन्य विरोधी दल भाजपा की सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं। ऐसे में सरकार के कदम का परिणाम कैसे दिखेगा।
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के उस प्रकरण को सारे देश ने देखा, जिसमें कन्हैया सहित अनेक छात्रों ने देश के विरोध में नारे लगाए। वामपंथी राजनीति पर चलने वाले इस विश्वविद्यालय में वैसे तो पहले से ही ऐसी गतिविधियां संचालित होती रहीं हैं और उनका वहीं के कुछ राष्ट्रवादी छात्रों द्वारा विरोध किया गया। कन्हैया के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। कन्हैया को केवल इसलिए रोका गया कि उसने देशद्रोही पूर्ण काम किया है, लेकिन कांगे्रस और वामपंथी राजनेताओं ने उसे खुलकर समर्थन देकर हीरो बनाने का प्रयास किया है। वामपंथी दलों ने कन्हैया को अपने लिए सितारा प्रचारक बनाने की तैयारियां शुरू कर दी है। ऐसे में सवाल यह आता है कि ऐसी राजनीति देश में किस प्रकार का वातावरण तैयार करने का मार्ग बनाएगी। कांगे्रस और वामपंथी राजनीति का यह कदम देश को जो दिशा प्रदान करेगा, उससे देश के भविष्य को बचाना मुश्किल हो जाएगा।
मतों के लोभी राजनीतिक नेता, स्वार्थी मतदाता और कुर्सी से चिपकी सरकारें, इन्हीं सब का दुष्परिणाम है वह दुर्दशा, जिसका खामियाजा सारा देश भुगत रहा है। अपने अथाह बलिदान देकर परतंत्रता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि स्वतंत्र भारत में छह दशक बीत जाने के बाद भी राष्ट्रहित आधारित राजनीति की शुरुआत भी नहीं होगी। इन छह दशकों में देश की जनता ने प्राय: सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को केन्द्र और प्रांतों में सत्ता के गलियारे में बैठकर देश और समाज की भलाई के काम करने का मौका दिया है। सबसे ज्यादा अवसर मिला है एक ही दल कांग्रेस को। आज की दयनीय परिस्थितियों के संदर्भ में देखें तो अधिकांश राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन पर जनता का भरोसा नहीं रहा है। भ्रष्टाचार, जातिवाद, बाहुबल, धनबल और झूठे आश्वासनों के सहारे चुनाव जीतने वाले नेताओं से घपले, घोटालों और पक्षपात के सिवाय और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? यदि कोई दल या कुछ नेता देशहित के लिए समर्पित हैं भी, तो इस भ्रष्ट नकारखाने में उनकी आवाज एक तूती ही बनी हुई है।
देश और जनता का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि आज एक भी विरोधी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो अपने दम पर खम ठोक कर संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के लिए चुनाव में उतर सके। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में अस्थिरता, पक्षपात और भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली गठबंधन राजनीति अधिकांश दलों की राजनीतिक मजबूरी बन गई है। ये दल देश को नई और स्वच्छ राजनीतिक व्यवस्था देने में सक्षम नजर नहीं आ रहे हैं। दलगत राजनीति की पैदाइश गठबंधन राजनीति ने सार्वजनिक शुचिता, नैतिकता और सिद्धांतों पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था को अपने पाश में जकड़ लिया है। छोटे और क्षेत्रीय दलों का हाल तो यह है कि चुनावों में आपस में लड़ो, फिर एक हो जाओ, सरकार में शामिल भी हो जाओ, बाहर से भी समर्थन दो, बिना किसी कायदे कानून की यह सिद्धांतहीन राजनीति देश को कहां ले जाएगी?
वर्तमान राजनीतिक पतनावस्था से देश और समाज को बचाने के लिए अब एक ऐसी आदर्श राजनीति की आवश्यकता है जो भ्रष्टाचार, मजहबी पक्षपात, जातिगत भेदभाव, हिंसा, आतंक, प्रशासनिक अव्यवस्था, असुरक्षा और भय जैसे दुर्दान्त रोगों से राष्ट्र जीवन को मुक्त करवाने का सामथ्र्य रखती है। एक ऐसी राजनीति जिसमें मात्र सत्ता के लिए अपने सिद्धान्तों, आदर्शों और विचारों से समझौता न किया जाता हो। एक ऐसी ध्येय समर्पित राजनीति जिसमें छोटे और क्षेत्रीय दलों से समर्थन लेने के लिए राष्ट्रीय स्तर के दलों को अपने जन्मजात वैचारिक आधार से ही समझौता करने की जरूरत कभी भी और किन्हीं भी परिस्थितियों में न पड़े। वास्तव में इस तरह के चरित्र आधारित और उद्देश्यपरक राजनीतिक माहौल में जातिगत, मजहब प्रेरित संकीर्णता वाले छोटे-छोटे दलों को अपने दलगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को नुकसान पहुंचाने का अवसर ही नहीं मिलता। राष्ट्रनिष्ठा, देशभक्ति और समाज सेवा के राजनीतिक वातावरण में दलबदल, टांग खिचाई और खरीद-फरोख्त जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां पनप नहीं सकतीं।
दुर्भाग्य यही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व की आदर्श और राष्ट्र-केन्द्रित राजनीति ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् विकृत और सत्ता केन्द्रित राजनीति का एक ऐसा स्वार्थी स्वरूप अख्तियार कर लिया, जिसमें सैद्धान्तिक विचारधारा, समन्वित कार्य संस्कृति ओर देश/समाज से लेने की बजाए समर्पण जैसे आदर्श समाप्त होने प्रारम्भ हो गए। जब किसी क्षेत्र में कोई महामारी फैलती है तो अच्छे भले स्वस्थ व्यक्ति पर भी उसका थोड़ा-बहुत असर हो जाता है। परन्तु वह महामारी सदैव के लिए नहीं रहती। उचित चिकित्सकीय व्यवस्था और कुछ ही समाजसेवी समर्पित लोगों के परिश्रम से महामारी शान्त हो जाती है। अपने देश में व्याप्त वर्तमान अस्थाई दिशाहीन राजनीतिक वातावरण जरूर बदलेगा। सत्ता सुख से दूर हटकर राष्ट्र के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता और नेताओं के सतत् प्रयास से इस दूषित माहौल के स्थान पर एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था अवश्य कायम होगी।

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