गुरुजी शिबू सोरेन : झारखंड की आत्मा, अस्मिता और संघर्ष के प्रतीक

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अशोक कुमार झा

झारखंड की धरती संघर्षों, बलिदानों और असंख्य जनांदोलनों की साक्षी रही है। यहां के पहाड़ों, नदियों और जंगलों ने बार-बार उस पुकार को सुना है जिसमें आदिवासी अस्मिता, जल-जंगल-जमीन और अस्तित्व की रक्षा की गूँज रही है। इस संघर्ष की सबसे ऊँची आवाज़ और सबसे दृढ़ संकल्पित व्यक्तित्व रहे गुरुजी शिबू सोरेन
गुरुजी का नाम झारखंड की आत्मा के साथ ऐसे जुड़ा है कि उन्हें अलग करके इस भूमि की कहानी अधूरी हो जाती है।

झारखंड की राजनीतिक और सामाजिक अस्मिता के इतिहास में यह दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। जब मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन की अध्यक्षता में हुई राज्य मंत्रिपरिषद की बैठक में स्वास्थ्य मंत्री डॉ. इरफान अंसारी और नगर विकास मंत्री सुदिव्य सोनू ने एक ऐसा प्रस्ताव रखा, जिसने न केवल कैबिनेट के एजेंडे को ऐतिहासिक बना दिया बल्कि झारखंड के आंदोलन और उसकी आत्मा को अमरता प्रदान करने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया।

वह प्रस्ताव था—मोराबादी स्थित गुरुजी शिबू सोरेन का सरकारी आवास अब गुरुजी स्मृति संग्रहालय” में परिवर्तित किया जाए। साथ ही जामताड़ा के चिरुडीह में, जहाँ से गुरुजी ने सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत की थी, एक भव्य पार्क और विशाल प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया जाए।

कैबिनेट की मेज़ पर यह प्रस्ताव आते ही पूरा वातावरण भावनाओं से भर उठा था । जब डॉ. अंसारी ने भावुक स्वर में कहा— गुरुजी का घर केवल ईंट और पत्थर की इमारत नहीं हैयह झारखंड आंदोलन का मंदिर है। उनके घर के हर कोने में संघर्ष की गाथा लिखी है। इस घर को संग्रहालय का रूप देना हमारे लिए केवल कर्तव्य ही नहींबल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश भी होगा।

साथ ही नगर विकास मंत्री सुदिव्य सोनू ने समर्थन करते हुए कहा था कि गुरुजी झारखंड की आत्मा थे। उनका संघर्षउनका त्याग और उनकी दूरदर्शिता हमें हमेशा मार्गदर्शन देती रहेगी। यह संग्रहालय और चिरुडीह का स्मारक उनकी स्मृतियों को अमर बनाएगा।

आज जब हेमन्त सोरेन सरकार ने कैबिनेट की ऐतिहासिक बैठक में यह निर्णय लिया कि झारखंड राज्य के आधिकारिक दस्तावेजों, संस्थानों और विकास योजनाओं में गुरुजी के योगदान को स्थायी रूप से अमर किया जाएगा, तब यह केवल एक सरकारी घोषणा नहीं, बल्कि झारखंड की आत्मा को उसका सम्मान लौटाने जैसा क्षण था ।

बचपन और संघर्ष : मिट्टी से उठकर मिट्टी के लिए जीना

गुरुजी शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को गिरिडीह जिले के नेमरा गाँव में हुआ। बचपन से ही उन्होंने अभाव, भेदभाव और शोषण को नज़दीक से देखा। उनके पिता सोबरन मांझी, जो पेशे से एक शिक्षक थे ने  जमींदारों और महाजनों के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए शहीद हो गए। यह घटना बालक शिबू के मन पर गहरी छाप छोड़ गई।

यह घटना गुरुजी के जीवन की धारा बदल गई। उन्होंने निश्चय किया कि वे शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बनेंगे। उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ गाँव-गाँव घूमकर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उन्होंने समझाया कि “जमीन हमारी हैजंगल हमारा हैखनिज हमारा हैतो उसका मालिकाना हक भी हमारा होना चाहिए।”

बचपन से ही उनके भीतर यह सवाल उठता रहा कि आखिर क्यों आदिवासियों की जमीन उनसे छीन ली जाती है? क्यों जल-जंगल-जमीन, जो उनकी जीवन रेखा है, वह दूसरों के कब्ज़े में चला जाता है? गरीबी और संघर्ष के बावजूद उन्होंने शिक्षा पाई और जल्द ही वह उन लोगों की आवाज़ बनने लगे जिनकी आवाज़ सदियों से दबा दी गई थी।

झारखंड आंदोलन : जनांदोलन से राज्य निर्माण तक

झारखंड की माँग कोई नई बात नहीं थी। ब्रिटिश काल से ही यहां के आदिवासी और मूलवासी अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। बिरसा मुंडा की ‘उलगुलान’ से लेकर सिदो-कान्हू के संथाल विद्रोह तक, यह धरती विद्रोह की गाथाओं से भरी हुई है।

लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी झारखंड के लोगों को उनकी पहचान नहीं मिली। विकास के नाम पर यहां की खनिज संपदा का दोहन हुआ, लेकिन यहां के लोग गरीबी और बेरोज़गारी में डूबे रहे। 1960 और 70 के दशक में जब आदिवासी समाज अपनी जमीन से बेदखल हो रहा था, खनिज संपदा की लूट तेज थी और विस्थापन बढ़ रहा था, तभी शिबू सोरेन ने इस आवाज़ को उठाया। फिर इन्हीं हालातों में 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के माध्यम से एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई ।

उनकी आवाज़ खदानों में काम करने वाले मजदूरों, खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों और जंगलों पर निर्भर आदिवासियों की आवाज़ थी। उन्होंने संसद से लेकर सड़क तक हर मंच पर झारखंड की अलग पहचान की माँग को उठाया। 1990 का दशक आते-आते झारखंड आंदोलन निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया।

गुरुजी ने यह आंदोलन केवल झारखंड की सीमाओं तक नहीं रखा। वे कई बार संसद पहुँचे और वहाँ भी झारखंड के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया। 1980 और 90 के दशक में संसद में उनकी आवाज़ आदिवासी अधिकारों की सबसे सशक्त आवाज़ मानी जाती थी।

इस दौरान अनेक गिरफ्तारियाँ, लाठियाँ, गोलियाँ और आंदोलनकारियों का बलिदान इस यात्रा का हिस्सा रहा। आख़िरकार 15 नवंबर 2000 को झारखंड एक अलग राज्य बना। यह दिन बिरसा मुंडा की जयंती पर मनाया गया और यही झारखंडवासियों की पीढ़ियों का सपना था।

गुरुजी का राजनीतिक सफर : सत्ता से संघर्ष तक

गुरुजी शिबू सोरेन सिर्फ एक आंदोलनकारी नहीं थे, वे एक दूरदर्शी राजनेता भी थे। उन्होंने संसद में पहुँचकर झारखंड के सवाल को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया। वे कई बार सांसद बने, मंत्री बने और झारखंड के मुख्यमंत्री भी रहे।

हालांकि उनका सफर कभी आसान नहीं रहा। आरोप-प्रत्यारोप, राजनीतिक साज़िशें और उतार-चढ़ाव हमेशा उनके साथ रहे। लेकिन हर बार उन्होंने संघर्ष को स्वीकार किया और झारखंड की जनता के बीच लौट आए।
आज भी आम लोग उन्हें “गुरुजी” कहकर पुकारते हैं, क्योंकि वे किसी राजनेता से ज़्यादा जनआंदोलन के प्रतीक रहे हैं।

हेमन्त सरकार का निर्णय : भावनाओं और इतिहास को सम्मान

02 सितम्बर 2025 को झारखंड की कैबिनेट बैठक में मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया।
निर्णय यह था कि गुरुजी शिबू सोरेन की स्मृति और योगदान को झारखंड की आधिकारिक पहचान का हिस्सा बनाया जाएगा। यह केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह उस भावनात्मक कर्ज़ की अदायगी है जो झारखंड की मिट्टी और लोग गुरुजी पर हमेशा मानते रहे हैं।

अब राज्य के सरकारी भवनों, विश्वविद्यालयों, योजनाओं और प्रमुख स्थलों का नाम गुरुजी के नाम से जोड़ा जाएगा। यह निर्णय आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाएगा कि झारखंड आज जिस मुकाम पर है, वह लाखों आंदोलनकारियों के बलिदान और गुरुजी जैसे नेताओं की दृष्टि का परिणाम है।

सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

गुरुजी का योगदान केवल राजनीति तक सीमित नहीं था। वे झारखंडी संस्कृति, आदिवासी रीति-रिवाज और भाषा के भी संरक्षक थे। उन्होंने हमेशा कहा कि यदि संस्कृति मर जाएगी, तो समाज भी खत्म हो जाएगा।
इसलिए उन्होंने आदिवासी त्योहारों, पारंपरिक गीत-संगीत और सामुदायिक जीवन को बचाने पर ज़ोर दिया।
आज जब कैबिनेट ने उनके नाम को स्थायी रूप से अमर करने का निर्णय लिया है, तो यह केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक है।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गुरुजी

झारखंड आंदोलन और गुरुजी का संघर्ष केवल एक राज्य की लड़ाई नहीं थी बल्कि यह पूरे हिंदुस्तान में हाशिए पर खड़े समुदायों की आवाज़ था। उनकी लड़ाई ने यह संदेश दिया कि लोकतंत्र में पहचान, अस्मिता और अधिकार की लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती। गुरुजी ने हिंदुस्तान की संसद में खड़े होकर कहा था – “झारखंड कोई टुकड़ा भर जमीन नहीं, यह एक संस्कृति है, एक पहचान है।” आज उनके उसी संदेश को कैबिनेट के इस निर्णय ने और मज़बूती दी है।

भावी पीढ़ियों के लिए संदेश

आज का युवा, जो स्मार्टफोन और इंटरनेट की दुनिया में जी रहा है, उसके लिए गुरुजी की कहानी केवल एक इतिहास नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है। उन्होंने बिना हथियार, बिना आधुनिक साधनों के केवल जनशक्ति और सच्चाई के बल पर एक राज्य का सपना पूरा किया। यह संदेश आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा मार्गदर्शक रहेगा कि संघर्ष चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, यदि इरादे मज़बूत हों तो असंभव भी संभव बन जाता है।

हेमन्त सोरेन सरकार का यह निर्णय झारखंड की आत्मा को सम्मान देने जैसा है। गुरुजी शिबू सोरेन केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक युग हैं। उनका नाम इस मिट्टी के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा और अब सरकारी पहचान में अमर होकर आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाता रहेगा कि – “यह राज्य सिर्फ खनिजों और जंगलों का भंडार नहीं, बल्कि संघर्षों और बलिदानों की धरोहर है।”

आज जब हम गुरुजी को याद करते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि यह संकल्प भी होना चाहिए कि हम उनके सपनों का झारखंड बनाएँ – एक ऐसा झारखंड जहां हर गरीब, हर किसान, हर मजदूर और हर आदिवासी को न्याय और सम्मान मिले। वही सच्चे अर्थों में  उनकी श्रद्धांजलि होगी ।

अशोक कुमार झा

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