क्या टायलेट्स शर्मकथा हो गये हैं ?

सुनील कुमार महला

भारतीय सनातन संस्कृति में महिलाओं को युगों-युगों से बहुत ही सम्माननीय स्थान दिया जाता रहा है और आज भी नारी हम सभी के लिए सम्माननीय और गौरवमयी है। हमारे वेदों में प्रथम शिक्षा ‘मातृ देवोभाव:’ से प्रारंभ किया जाता है अर्थात माता देवताओं के समान होती है लेकिन बावजूद इसके आज कुछ छोटी-छोटी अव्यवस्थाओं से महिलाएं शर्मसार हों रहीं हैं। मसलन, देश में आज घर-घर टायलेट बनाने का जबरदस्त अभियान चल रहा है लेकिन आज भी देश में ऐसे बहुत से स्थान हैं यथा दफ्तर, थाने, स्कूल-कॉलेज, घर के बाहर या फील्ड में, जहां टायलेट्स की कमी का सामना देश की महिलाएं कर रहीं हैं। यह स्थिति तब है जब भारत में स्वच्छ भारत मिशन चल रहा है। अच्छी बात यह है कि आज भारत के 90 फ़ीसदी घरों में शौचालय है, जिनमें से तक़रीबन 40 फ़ीसदी 2014 में नई सरकार के आने के बाद बने हैं।

कहना ग़लत नहीं होगा कि शौचालय के काम ने काफी गति पकड़ी है और इस दिशा में काफी काम भी हुआ है लेकिन अलग-अलग कारणों से नए बने शौचालयों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। कहीं पानी की कमी है तो कहीं नल टूटे हैं अथवा कहीं पर इन टायलेट्स में साफ-सफाई की व्यवस्थाएं माकूल और अच्छी नहीं होतीं हैं। बहुत बार यह भी देखा जाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट्स के ताले भी टंगे हुए मिलते हैं। यह ठीक है कि पब्लिक भी इन शौचालयों को सही तरीके से इस्तेमाल नहीं करती है और इनको गंदा और अस्वच्छ छोड़ देती है लेकिन साफ-सफाई से बचने के लिए ऐसे शौचालयों पर ताले टांगने को क्या उचित और ठीक ठहराया जा सकता है ? बहुत बार मीडिया में खबरें छपने के बाद ऐसे टायलेट्स के ताले खुलते हैं। बहुत बार शहरों में टायलेट्स की अव्यवस्थाओं, अस्वच्छता अथवा शहरों में महिलाओं के लिए टायलेट्स की व्यवस्थाएं न होने आदि को देखते हुए यह लगता है कि टायलेट एक शर्म कथा हो गई है।

 ऐसा भी नहीं है कि सरकारें इस दिशा में कोई सकारात्मक कार्य नहीं कर रहीं हैं। पिछले कुछ सालों में टायलेट्स/शौचालयों पर बहुत काम हुआ है। राजस्थान में बीकानेर प्रदेश का पहला ऐसा शहर बन गया है जहां महिलाओं के लिए पिंक बस शौचालय की व्यवस्था की गई है जो कि विभिन्न आधुनिक सुविधाओं यथा डायपर चेंजिग रूम, सेंसर लाइट्स, बेबी फीडिंग रूम, बेबी डायपर चेंजिंग टेबल, छोटे पंखे, सेनेटरी वेंडिंग मशीन, अटेंडेंट चेयर, दो इंडियन व दो वेस्टर्न टॉयलेट, हैण्ड वॉश बेसिन आदि से युक्त हैं। टॉयलेट में पैनिक बटन भी लगाया गया है जिससे आपात स्थिति में महिला इस बटन का उपयोग कर सकेगी। जानकारी मिलती है कि इसमें एक स्लज टैंक, एक हजार लीटर क्षमता का वाटर टैंक, जनरेटर की भी सुविधा है। एक फीडबैक मशीन भी स्थापित है, जिसका बटन दबाकर महिला पिंक बस में उपलब्ध सुविधाओं पर अपनी राय भी व्यक्त कर सकती है।

आज देश में घर-घर शौचालय जरूर मौजूद हैं लेकिन लाखों महिलाओं के लिए आज भी शौचालय कहीं न कहीं एक बड़ा सिरदर्द बने हुए हैं। ऐसी महिलाओं के हिस्से में सिर्फ संकोच है, क्यों कि आज भी देश में अनेक दफ्तरों, स्कूलों-कॉलेजों, सार्वजनिक स्थानों और फील्ड पर शौचालय या तो उपलब्ध नहीं हैं अथवा उपलब्ध भी हैं तो कहीं ड्रेनेज सिस्टम खराब है तो कहीं गंदगी के बड़े-बड़े ढ़ेर और बदबूदार वातावरण। यह एक कटु सत्य है कि आज घर के बाहर महिलाओं के लिए टायलेट्स या तो मिलते ही नहीं है अथवा मिलते भी हैं तो वे गंदगी और बदबू से बुरी तरह से ओतप्रोत रहते हैं और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा। यह लेखक इस संदर्भ में एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक में यह खबर पढ़ रहा था कि मात्र टायलेट जाने के डर से कामकाजी महिलाएं कम पानी पी रहीं हैं, यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है। इस संदर्भ में राजस्थान राज्य महिला आयोग की अध्यक्षा तक का भी ‘टायलेट दर्द’ छलककर मीडिया में सामने आया है। मेडिकल साइंस का मानना है कि डिलीवरी के बाद या बढ़ती उम्र की महिलाओं में लघुशंका ज्यादा आती है और उन्हें इसे रोकने में काफी दिक्कतों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

वास्तव में आज विभिन्न बस स्टैण्ड्स, रेलवे स्टेशनों, बाजारों, भीड़-भाड़ वाले इलाकों, विभिन्न फील्ड्स, सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट्स की उचित व माकूल साफ-सफाई की जरूरत है। टायलेट्स की संख्या भी बढ़ाये जाने की जरूरत है। सरकार को महिलाओं के मान-सम्मान, उनकी सेहत/स्वास्थ्य की चिन्ता करते हुए यह चाहिए कि वह महिलाओं की इस समस्या की ओर प्रमुखता से अपना ध्यान केंद्रित करे। इस संबंध में सरकार यदि चाहे तो वह शौचालय की अनुपलब्धता वाले स्थानों पर मोबाइल शौचालय बसों/व्हीकल्स आदि पर भी विचार कर सकती है।

सुनील कुमार महला

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