राजनीति

चुनौतियों के पहाड़ पर खड़े हैं हेमंत सोरेन

योगेश कुमार गोयल

            हेमंत सोरेन पिछले दिनों झारखण्ड के 11वें मुख्यमंत्री बन गए, वे दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने हैं। हालांकि तीन बड़े दलों के गठबंधन की सरकार को चला पाना उनके लिए इतना आसान नहीं होगा। दरअसल झारखंड विधानभा चुनाव में सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तथा प्रदेश की सभी 81 विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव में सोरेन की अगुवाई में झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने 47 सीट हासिल करते हुए पूर्ण बहुमत हासिल किया था। झामुमो को 30, कांग्रेस को 16 और राजद को एक सीट मिली हैं। इसके अलावा तीन सीटें जीतने वाली बाबूलाल मरांडी की झाविमो भी गठबंधन सरकार को समर्थन दे रही है। 2014 के चुनाव में सोरेन ने अपने दम पर चुनाव लड़कर झामुमो को 19 सीटों पर जीत दिलाई थी जबकि झाविमो (पी) को 8 तथा कांग्रेस को सिर्फ 6 सीटें मिली थी। उस दौरान भाजपा सर्वाधिक 37 सीटें हासिल करते हुए अपनी सहयोगी आजसू द्वारा जीती 5 सीटों की मदद से सरकार बनाने और पहली बार लगातार पांच साल तक सरकार चलाने में सफल रही थी।

            बात करें हेमंत सोरेन की तो उन्होंने पहली बार जुलाई 2013 में झारखण्ड के मुख्यमंत्री की शपथ ली थी और झामुमो-राजद-कांग्रेस के साथ मिलकर एक साल पांच महीने पंद्रह दिन तक सरकार चलाई थी। बहरहाल, सत्ता संभालते ही जिस प्रकार सोरेन ने पहली कैबिनेट बैठक में ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के विरोध तथा पत्थलगढ़ी को लेकर दर्ज मुकद्दमे वापस लेने और अब खरसावां गोलीकांड के शहीदों के परिजनों को सरकारी नौकरी देने का ऐलान करने तथा राज्य में सूचना आयुक्तों की जल्द नियुक्ति करने की घोषणा करने सहित कई बड़े निर्णय लिए हैं, उससे उन्होंने अपनी प्राथमिकताओं का अहसास करा दिया है। गौरतलब है कि झामुमो आदिवासियों के मुकद्दमे वापस करने की समर्थक रही है और पत्थलगड़ी आन्दोलन में केस वापसी को सोरेन के लिए बड़ी चुनौती माना जा रहा था। 2017 में इस आन्दोलन के कारण राज्य में करीब दस हजार आदिवासियों पर राजद्रोह का मुकद्दमा दर्ज किया गया था।

            सोरेन के समक्ष इस मामले के अलावा भी अनेक चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो उनके लिए सहयोगी दलों कांग्रेस और राजद को लगातार साथ लेकर चलते रहने की होगी क्योंकि इन दलों के साथ चलते हुए सोरेन अपने मनमुताबिक फैसले लेकर अपनी सरकार को इतनी सहजता से नहीं चला पाएंगे। चूंकि उनकी सरकार मुख्यतः कांग्रेस की बैसाखियों पर टिकी है, इसलिए हर कदम पर कांग्रेस को खुश रखते हुए साथ लेकर चलना उनके लिए इतना सहज नहीं होगा। जिस प्रकार महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे कांग्रेस के समर्थन से सरकार चला रहे हैं और महाअघाड़ी सरकार में गठबंधन में शामिल होने के बावजूद कांग्रेस उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही है, कमावेश ऐसा ही आने वाले दिनों में झारखण्ड में भी देखने को मिल सकता है। सही मायनों में सोरेन चुनौतियों के ऐसे पहाड़ पर खड़े हैं, जहां से चुनाव के दौरान किए गए अपने सारे वायदों को पूरा करना और झारखण्ड को विकास के मार्ग पर अग्रसर करना उनके लिए बड़ी चुनौती होगी।

            अगर हेमंत सरकार के समक्ष मौजूद चुनौतियों की बात की जाए तो मुख्यमंत्री सोरेन के समक्ष चुनौतियों का विशाल पहाड़ सामने खड़ा है और सही मायनों में सोरेन को मुख्यमंत्री पद के रूप में कांटों भरा ऐसा ताज मिला है, जिसमें लगे कांटे पल-पल उनकी राह मुश्किल बना सकते हैं। जनता की आशाओं और अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अनेक चुनौतियां उनके सामने आती रहेंगी। उनके समक्ष सबसे पहली और बड़ी चुनौती है अपनी पार्टी को भीतरघात से बचाते हुए अपनी सबसे बड़ी सहयोगी कांग्रेस की महत्वाकांक्षा पर काबू रख राज्य में राजनीतिक स्थिरता बनाए रखना। दरअसल झारखण्ड राजनीतिक अस्थिरता वाला ऐसा राज्य है, जहां इस राज्य के गठन से लेकर अब तक केवल पिछली भाजपा सरकार ने ही अपना पांच वर्षीय कार्यकाल पूरा किया है। 15 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आए झारखण्ड राज्य में इन 19 वर्षों में अब तक कुल 10 बार मुख्यमंत्री बदल चुके हैं, जिनमें से तीन-तीन बार झामुमो के शिबू सोरेन तथा भाजपा के अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री रहे हैं। एक बार निर्दलीय मधु कौड़ा ने राज्य की कमान संभाली जबकि तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लग चुका है। भाजपा के रघुवर दास को छोड़कर कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका।

            सोरेन के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती होगी 85 हजार करोड़ के कर्ज में डूबे इस आदिवासी राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करना। बताया जाता है कि 2014 में जब रघुवर दास ने झारखण्ड की कुर्सी संभाली थी, तब राज्य पर 37593 करोड़ का कर्ज था, जो पिछले पांच वर्षों में बढ़कर 85234 करोड़ हो गया। प्रदेश के किसानों पर भी 6 हजार करोड़ से ज्यादा का कर्ज है। ऐसे में किसानों को इस कर्ज से उबारने के साथ-साथ राज्य के भारी-भरकम कर्ज को कम करते हुए झारखण्ड को विकास के मार्ग पर ले जाना सोरेन के लिए इतना आसान कार्य नहीं है। प्रदेश की करीब 37 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है। सोरेन कैसे इस गंभीर समस्या से निपटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। सोरेन की पार्टी ने प्रदेश में महिलाओं को सरकारी नौकरी में 50 फीसदी आरक्षण देने और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं को प्रतिमाह दो हजार रुपये देने का वादा किया था, उनके इस वादे पर भी सभी की नजरें रहेंगी। झामुमो और कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्रों में किसानों की कर्जमाफी का ऐलान किया था, ऐसे में कर्जमाफी तथा किसानों का उत्थान करना हेमंत सोरेन सरकार के लिए कड़ी चुनौती बनेगा। अपने-अपने घोषणापत्रों में कांग्रेस ने राज्य के किसानों-आदिवासियों को उनकी भूमि का हक दिलाने और झामुमो ने भूमि अधिकार कानून बनाने का वादा किया था, ये वादे पूरा करना भी सोरेन के लिए बड़ी चुनौती होगी।

            झारखण्ड में बेरोजगारी और पलायन एक बड़ी समस्या रही है। आश्चर्य की बात यह है कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने और औद्योगिकीकरण के बावजूद यहां बेरोजगारी की दर बहुत ज्यादा है। यह देश में सर्वाधिक बेरोजगारी वाला पांचवां राज्य है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में 2011-12 में 2.5 प्रतिशत बेरोजगारी की दर थी, जो 2017-18 में बढ़कर 7.7 प्रतिशत हो गई। खुद सोरेन ने माना है कि वर्तमान में देश में बेरोजगारी दर जहां 7.2 प्रतिशत है, वहीं उनके राज्य में यह 9.4 फीसदी है। ऐसे में सोरेन के समक्ष राज्य के युवाओं को रोजगार देना प्रमुख चुनौती होगी। झामुमो ने अपने घोषणा पत्र में सरकार बनने के दो साल के भीतर पांच लाख युवकों को नौकरी देने और नौकरी न मिलने तक बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया था। खाद्यान्न की कमी और भुखमरी से मौतों को लेकर झारखण्ड कई बार सुर्खियों में रहा है। यहां प्रतिवर्ष ज्यादा से ज्यादा 40 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न ही उत्पादन हो पाता है जबकि जरूरत है 50 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न की। खाद्यान्न में कमी के इस बड़े अंतर को पाटना हेमंत सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

            हेमंत सोरेन हों या उनके पिता शिबू सोरेन, दोनों ही शराबबबंदी की मांग करते रहे हैं। हेमंत खुद शराबबंदी की मांग उठाते रहे हैं तो शिबू सोरेन तो शराब और सूदखोरों के खिलाफ आन्दोलन करके ही बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे थे। दरअसल यहां आदिवासी इलाकों की शराब की दुकानें एक बड़ा मुद्दा रहा है, जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि शराब के कारण ही यहां का पुरूष समाज की मुख्यधारा से कटा रहता है। आदिवासी इलाकों में शराब के प्रचलन ने गरीबी बढ़ाई है। इसी को भांपते हुए हेमंत सोरेन ने अपने घोषणापत्र में शराबबंदी का वायदा किया था। सरकार को भारी राजस्व देने वाले शराब के कारोबार पर सोरेन किस हद तक अंकुश लगा पाते हैं, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा। झामुमो ने अपने घोषणा पत्र मेें सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का वादा किया था, इस लोकलुभावन वादे को वे कैसे पूरा करेंगे, यह भी देखना होगा क्योंकि पिछले पांच वर्षों में घर-घर तक बिजली पहुंचाने की घोषणाएं तो बहुत बार हुई लेकिन बिजली उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ।

            खूंटी, लातेहार, रांची, गुमला, गिरिडीह, पलामू, गढ़वा, सिमडेगा, दुमका, लोहरदगा, बोकारो, चतरा इत्यादि प्रदेश के करीब 13 जिले अभी भी नक्सल प्रभावित हैं, जिन्हें नक्सल मुक्त बनाना सोरेन की गठबंधन सरकार के लिए बेहद मुश्किल होगा क्योंकि यह कार्य केन्द्र सरकार की सहायता के बिना संभव नहीं होगा। भ्रष्टाचार इस आदिवासी बहुल राज्य की जड़ें खोखली करता रहा है, राज्य की छवि सुधारने के लिए इस दिशा में सोरेन सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे। सोरेन ने स्थानीय लोगों को सरकारी नौकरियों में 75 फीसदी आरक्षण देने जबकि उनकी सहयोगी कांग्रेस ने हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था। इन चुनावी वादों को सोरेन सरकार कैसे पूरा करेगी, इस ओर भी सभी की नजरें केन्द्रित रहेंगी। बहरहाल, हेमंत सोरेन भले ही कांग्रेस तथा राजद के कंधों पर सवार होकर राज्य के 11वें मुख्यमंत्री बन गए हैं लेकिन उनके समक्ष विभिन्न मोर्चों पर जनता की आशाओं और आकांक्षाओं पर खरा उतरने की कड़ी चुनौतियां रहेंगी। झारखण्ड राजनीतिक तौर पर बेहद अस्थिर और मुश्किल आर्थिक-सामाजिक चुनौतियों वाला राज्य माना जाता रहा है, जो आर्थिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में शामिल है, ऐसे में गठबंधन के साथियों को खुश रखते हुए सोरेन तमाम चुनौतियों से किस हद तक पार पाने में सफल रहेंगे, यह आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि उनके लिए सहयोगियों को हर कदम पर साथ लेकर आगे बढ़ना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।