हिन्दी का विकास हो रहा है !

संजय कुमार बलौदिया

आज हिन्दी अखबारों के भले ही करोड़ों पाठक है। हिन्दी अखबारों के करोड़ों पाठकों के आधार पर कहा जाता है कि हिन्दी फल-फूल रही है। लेकिन शायद हम यह भूल जाते है कि आज के हिन्दी अखबार अब सिर्फ हिन्दी के नहीं रहे है, बल्कि वह हिंग्लिश भाषा के हो गए है। साथ ही अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है।

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में, बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की गई। पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने हिंदी को आसान बनाने के नाम पर धड़ल्ले अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया और अब हिंदी का वाक्य बिना अंग्रेजी के शब्द के पूरा ही नहीं होता है। क्या हिंदी को आसान बनाने के लिए बोलियों और भारतीय भाषाओं से शब्द नहीं लिए जा सकते है। अगर बोलियों और भारतीय भाषाओं के शब्दों को हिन्दी को आसान बनाने में प्रयोग किया जाता, तो अंग्रेजी वर्चस्व कैसे बना रहता। संसार की इस दूसरी बड़ी बोली जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीनकर उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के सभी अखबार जुट गए हैं।

हिंदी और पत्रकारिता दोनों का आपस में रिश्ता रहा है। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। हिन्दी को पालने-पोसने में हिन्दी पत्रकारिता ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन अब वहीं हिंदी पत्रकारिता करने वाले अखबार अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाये रखने में जुट गए है। अब तो हिंदी अखबार एक कदम आगे बढ़कर अपने पाठकों को अंग्रेजी भी सिखाने लगे हैं। इसके लिए निर्धारित पृष्ठों पर अंग्रेजी शब्द देकर उच्चारण को सुधारने या अंग्रेजी वाक्य बनाने भी सिखाए जा रहे है। आज कई अखबारों और चैनलों की भाषा हिंदी न होकर हिंग्लिश रह गई है।

ठीक इसी तरह हिंदी सिनेमा भी तेजी से फल-फूल रहा है। आज हमारी फिल्में तो हिन्दी में है, लेकिन उनके नाम अंग्रेजी में हो गए है जैसे – वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, देल्ही बेली, फाइंडिंग फेनी और क्रीचर 3 डी आदि। ऐसा लगता है कि हिन्दी सिनेमा के पास भी फिल्मों के लिए हिंदी के शब्द कम पड़ गए है। इसके बावजूद हिन्दी सिनेमा व्यवसाय तेजी बढ़ रहा है, तो इसकी भी वजह हिंग्लिश ही है।

संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा 14 सितम्बर 1949 को दिया गया था इसी वजह से 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले छह दशक से भी ज्यादा समय हो गया है, लेकिन हमारे देश में हिंदी अभी तक प्रशासनिक काम-काज की भाषा नहीं बन पाई है। आज भी चाहे प्रश्न-पत्र हो या सरकारी चिट्ठी, राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। पूरी दुनिया में बार-बार यह बात साबित हुई है कि शिक्षा में जितनी सफलता मातृ-भाषा माध्यम से प्राप्त होती है उतनी सफलता विदेशी भाषा माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती। लेकिन हमारे नीति निर्माता यह मानकर बैठे है कि अंग्रेजी के बिना हमारा विकास हो ही नहीं सकता। इसी का नतीजा है कि देश में उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता कानूनी नहीं है, लेकिन उसे अनिवार्य की तरह लागू करने की कोशिश तेजी से हो रही है। हमारे देश में यह मान लिया गया है कि अंग्रेजी ही ज्ञान की एकमात्र भाषा है। आज दुनिया के लगभग सभी गैर-अंग्रेजी भाषी देश अपने देशों से अंग्रेजी भाषा के प्रभाव को समाप्त करने में लगे हैं। लेकिन हम लोग अपनी सारी शिक्षा, संस्कृति, संचार अंग्रेजी भाषा के हवाले किए जा रहे हैं।

करीब सौ साल पहले तक हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने अंग्रेजी सीखने के बावजूद अपनी मातृभाषा में काम किया। लेकिन हम लोग अंग्रेजी सीखने के लिए अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करने से भी पीछे नहीं हट रहे है। अन्य भाषाओं को सीखने की बात ही कहां रह जाती है। जबकि अमेरिका जैसा देश भी अपनी मातृभाषा के साथ ही अन्य भाषाओं को सीखने की कोशिश करता है। इसी तरह चीन, जापान भी अपनी भाषा में ही काम कर रहे है और अन्य भाषाओं को भी सीख रहे है। लेकिन हम लोग अंग्रेजी के पीछे इसलिए पड़े है ताकि अच्छी नौकरी मिल जाए। यह भी जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी की डिग्री या अंग्रेजी सीखने के बाद भी नौकरी मिल ही जाए। फिर भी हम लोग अपने बच्चों पर अंग्रेजी सीखने के लिए दबाव बनाते रहते है।     

 

 

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,237 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress