लोकमंगल की कामना की भाषा है हिन्दी

10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस विशेष

डॉअर्पण जैन ‘अविचल

भाषाएँ परस्पर संवाद और संचार की माध्यम होती हैं, जिनकी व्यापकता इस बात से सिद्ध होती है कि उनमें कितना सृजन लोकमंगल को समर्पित है। वैश्विक रूप से हिन्दी वर्तमान ही नहीं अपितु कालातीत रूप से सुदृढ़, सुस्थापित और सुनियोजित संपदा का बाहुल्य है। वर्षों से हिन्दी को हीनता बोधक दिखाने की यह कुदृष्टि वर्तमान में जाकर कमज़ोर हो रही है, जब अमेरिका या जापान का कोई व्यापारी हिन्दुस्तान में दुनिया का सबसे महँगा फ़ोन बेचना चाहता है तो उसका विज्ञापन हिन्दी में तैयार करवाता है, जब सोशल मीडिया की अलग दुनिया बसाई जाती है तो उसके भी भाषाई तरकश में हिन्दी का तूणीर अनिवार्यत: रखा जाता है।

सिलिकॉन वैली में बैठने वाले इंजीनियर भी हिन्दी भाषा के घटकों को एकत्रित करने के लिए प्रोग्रामिंग करते हैं और गूगल जैसा दुनिया का सबसे तेज़ सर्च इन्जन भी हिन्दी की महत्ता को स्वीकार करता है। यूएन अपनी मौलिक भाषाओं में हिन्दी को भी स्थान देता है ताकि विश्व के सबसे बड़े देश तक अपनी बात आसानी से पहुँचा सके, बीबीसी जैसी सर्वोच्च समाचार एजेंसी भी हिन्दी संस्करण बाज़ार में लाती है ताकि हिन्दुस्तान में जगह बना सके।

सैंकड़ों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, फिर भी हिन्दुस्तानी शैक्षणिक मठाधीशों को कार्यव्यवहार में उसी गुलामी की भाषा अंग्रेज़ी स्वीकार है जिसने भारत को गिरमिटियों और सपेरों का देश साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज जब सरकारें और यूँ कहें कि सारा देश भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव मना कर अमृत काल की ओर बढ़ रहा है, देश से गुलामी के प्रतीकों को हटाया जा रहा है, ऐसे शहरों और स्थानों का नाम बदला जा रहा है जो गुलाम भारत की यादों को ताज़ा करते हैं, उस दौर में गुलामी की भाषा को कण्ठहार बनाना कौन-सी समझदारी है!

बहरहाल, यदि हिन्दी की वैश्विक स्थिति देखी जाए तो गर्व करने के सैंकड़ों अवसर उपलब्ध हैं, जैसे कि वर्तमान में हिन्दी, एशियाई भाषाओं से ज़्यादा एशिया की प्रतिनिधि भाषा है। साथ ही, भारत की राजभाषा होने के साथ-साथ फ़िज़ी की भी राजभाषा है। मॉरिशस, त्रिनिदाद, गुयाना, और सूरीनाम में हिन्दी को क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है।

एथनोलॉग के मुताबिक, हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है और आँकड़ों पर नज़र दौड़ाई जाए तो 140 करोड़ लोगों की भाषा होने के कारण हिन्दी विश्व में अग्रणीय भाषा है। अमेरिका के 80 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई की सुविधा है। हिन्दी का कथा साहित्य, फ़्रेंच, रूसी, और अंग्रेज़ी से अव्वल है।

भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है, और सबसे बड़े बाज़ार की भाषा सबसे बड़ी होती है, उसके बावजूद भी भारतीय सरकार या कहें तथाकथित गुलामी से प्रेरित लोगों को आज भी अंग्रेज़ी में अपना भविष्य नज़र आता है जबकि अंग्रेज़ी विश्व बाज़ार में पाँचवें स्थान से भी नीचे है।

हिन्दी हेय की नहीं, बल्कि गर्व की भाषा है। समृद्ध साहित्य में वसुधैव कुटुंबकम् जैसी लोकमंगल की कामनाएँ विपुल हैं। किन्तु भारत के कई राज्यों में यहाँ तक कि कई हिन्दी भाषी राज्यों में भी अंग्रेज़ी विद्यालयों में बच्चों को हिन्दी बोल भर देने पर दंडित कर दिया जाता है, यह दुर्भाग्य है।

आज मध्यप्रदेश सहित छत्तीसगढ़ इत्यादि राज्यों में मेडिकल व इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी अब हिन्दी में होने लग गई, लोकाचार की भाषा के रूप में हिन्दी की लोक स्वीकृति है।

समग्रता के झण्डे को थामे चलने वाली एकमात्र जनभाषा हिन्दी होने के बाद भी अपने ही देश में आज हिन्दी के साथ दुर्व्यवहार जारी है। अब जबकि विश्व ने भी भारतीय संस्कृति की पहचान और परिचय के रूप में हिन्दी को स्वीकृति दे ही दी है, फिर हमें क्या आवश्यकता है गुलामी के मुकुट को माथे पर धारण करने की?

अब तो तत्काल हिन्दी को स्वीकार कर भारतीय भाषाओं के वैभव को उन्नत करना चाहिए। अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, मैंडरिन, जर्मनी अथवा अन्य विदेशी भाषाओं को सीखना-सिखाना चाहिए किन्तु उन्हीं भाषाओं को सबकुछ मानकर अपनी जनभाषा से दूरी बनाना न तो तार्किक है और न ही न्यायोचित।

हिन्दी की वैश्विक स्थिति को और अधिक मज़बूत करने के लिए, विधि, विज्ञान, वाणिज्य, और नई तकनीक के क्षेत्र में पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। इसके लिए सभी को मिलकर हिन्दी के विकास में योगदान देना होगा। साथ ही, गुलाम देश की तरह नहीं, बल्कि आज़ाद और विश्व गुरु देश की तरह व्यवहार करते हुए लोकमंगल की भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

डॉअर्पण जैन ‘अविचल

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