विश्वसनीयता के संकट से जूझती हिंदी पत्रकारिता

डॉ घनश्याम बादल

30 मई 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन की ऐतिहासिक शुरुआत को याद करते हुए हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। 

बेशक, हिंदी पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली है लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता की देश में सबसे ज्यादा समाचार पत्रों एवं चैनल होने के बावजूद भी वह जगह नहीं है जो उसे मिलनी चाहिए। 

आज हिंदी पत्रकारिता अनेक संकटों से जूझ रही है। उनमें से कुछ बाह्य संकट हैं तो कुछ उसने खुद पैदा किए हैं। 

    आज हिंदी पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट घरानों के अधीन है। इससे स्वतंत्रता प्रभावित हुई है और कमाई व विज्ञापन आधारित अर्थ केंद्रित पत्रकारिता हावी हो गई है। सूचनाओं की विश्वसनीयता में गिरावट आई है. फेक न्यूज़, अफवाहों और आधी-अधूरी खबरों का चलन बढ़ा है।  इंटरनेट, सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म  पारंपरिक पत्रकारिता के समक्ष एक बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। अच्छे खासे संसाधन होने के बावजूद हिंदी मीडिया शहरी और राजनीति-केंद्रित खबरों पर ज़्यादा आश्रित हो गया है जिससे सामाजिक मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। यदि एक नज़र हिंदी के समाचार पत्रों पर डाले तो अधिकांश नकारात्मक खबरों के बल पर ही ज़िंदा हैं । भेदभाव भरी रिपोर्टिंग और कॉपी पेस्ट वाले संपादकीय हिंदी पत्रकारिता का स्तर और भी गिरा रहे हैं .अब क्योंकि संपादक की डेस्क मैनेजमेंट ,मालिकों की जी हुजूरी तक सीमित रह गई है इसलिए हिंदी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर भी बड़े प्रश्नवाचक चिन्ह लगे हैं । 

     एक समय था जब हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी की परिपाटी वाले पत्रकारों की बड़ी संख्या थी. राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, लाला जगत नारायण, जगदीश किंजल्क जैसे एक से बढ़कर एक प्रखर पत्रकार हिंदी पत्रकारिता ने दिए हैं लेकिन आज ऐसे लोग न के बराबर रह गए हैं। 

    एक युग वह भी था जब हिंदी पत्रकारिता ने जनजागरण का कार्य किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल मुकुंद गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों का का बोलबाला था जिन्हें सिद्धांतों से डिगाने की हिम्मत न राजनीति में थी ,न पैसे में । संपादक के रूप में उन्हें अखबार के मालिकों तक के आगे झुकना मंज़ूर नहीं था मगर अब वह बात कहां?

संकट अनेक है लेकिन फिर भी कुछ बात तो है हिंदी पत्रकारिता में जो आज भी ‘देश की पत्रकारिता’ के रूप में पहचान रखती है। हिंदी पत्रकारिता ने न केवल आमजन तक सूचनाएं पहुंचाईं अपितु भारत जैसे बहुभाषी देश में हिंदी माध्यम से करोड़ों लोगों को समाचार उपलब्ध कराए जो एक बड़ी उपलब्धि है। इंटरनेट के माध्यम से हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स, टीवी चैनल्स और यूट्यूब चैनल्स ने ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँच बनाई है। अब हिंदी पत्रकारिता सिर्फ अखबारों तक सीमित नहीं है। राज्यों और जिलों में सशक्त क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता विकसित हुई है,  एक दौर वह भी था जब ख़बरों की सत्यता और विश्वसनीयता के लिए केवल अंग्रेजी अखबारों को ही मानक माना जाता था लेकिन आज ऐसी बात नहीं है और इससे कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय तो नहीं ही है। 

       समय के साथ हिंदी में डिजिटल कंटेंट की माँग बढ़ रही है। पोडकास्ट, यूट्यूब चैनल्स और ब्लॉगिंग के माध्यम से नई पीढ़ी हिंदी पत्रकारिता से जुड़ रही है। डेटा जर्नलिज्म और खोजी पत्रकारिता भी अब हिंदी पत्रकारिता का एक अनन्य अंग बन चुका है। भविष्य में तो ख़ैर हिंदी पत्रकारिता में डेटा आधारित रिपोर्टिंग और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की अहम भूमिका होगी ही।

    हिंदी पत्रकारिता की एक खास बात इसका लचीलापन भी है. यदि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहयोग बढ़े तो राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत वैकल्पिक मीडिया मॉडल बन सकता है। भविष्य में “पाठक-समर्थित पत्रकारिता” जैसे मॉडल हिंदी में भी फल-फूल सकते हैं ।

आज हिंदी पत्रकारिता संक्रमण काल से गुजर रही है। एक ओर वह कॉरपोरेट और तकनीकी दबावों से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर डिजिटल युग में उसके सामने नए अवसर भी हैं। यदि हिंदी पत्रकारिता जनहित, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रख सके, तो उसका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।

    लेकिन आज भी हिंदी पत्रकारिता में कई सुधार जरूरी हैं ताकि वह फिर से जनविश्वास अर्जित कर सके और लोकतंत्र का सशक्त स्तंभ बन सके।

    हिंदी पत्रकारिता की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखनी है तो पत्रकारों पर राजनीतिक या कॉरपोरेट दबाव नहीं होना चाहिए और दबाव हो भी तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। खबरें निष्पक्ष और तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, न कि किसी एजेंडा के अनुसार। फेक न्यूज़ और अफवाहों पर नियंत्रण के लिए फैक्ट-चेकिंग टीमों का गठन हो । आज हर खबर की सत्यता की जांच समय की मांग है। भ्रामक हेडलाइन और ‘क्लिकबेट’ यानी सुर्खियों से शिकार संस्कृति पर भी लगाम कसे जाने की सख़्त जरूरत है। किसानों, आदिवासियों, महिलाओं, मज़दूरों, बेरोजगारी आदि जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जाएगी तो हिंदी पत्रकारिता अधिक प्रभावशाली होकर सामने आएगी। 

हिंदी पत्रकारिता के उज्जवल भविष्य के लिए अत्यावश्यक है कि क्षेत्रीय पत्रकारों को आर्थिक व कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए, उन्हें डिजिटल टूल्स, डेटा जर्नलिज्म, और एथिकल रिपोर्टिंग का नियमित प्रशिक्षण दिया जाए। अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए हिंदी पत्रकारिता को भाषा की शुद्धता और उच्च आदर्श व निष्पक्षता का मानक तय करना होगा । भाषा की दृष्टि से भी गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। व्याकरण, शैली और शब्द चयन में  बहुत सुधार आवश्यक है।

      इनके साथ-साथ ‘पेड न्यूज’ के दौर में प्रायोजित समाचार और खबरों के बीच स्पष्ट अंतर दिखना चाहिए और ‘पेड न्यूज़’ की प्रवृत्ति पर सख्त नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी है। खबर और विज्ञापन को स्पष्ट रूप से अलग नज़र आना ही चाहिए। 

     अब अखबार केवल हार्ड कॉपी के रूप में नहीं अपितु ई पेपर के रूप में भी फल फूल रहे हैं । ऑनलाइन पत्रकारिता में त्वरित रिपोर्टिंग के दबाव में  अक्सर तथ्यात्मक गलतियाँ होती हैं पर इसे रोकना होगा। सोशल मीडिया पर पत्रकारिता करते समय भी पेशेवर मानकों का पालन आवश्यक है।

      इन सबसे बढ़कर हिंदी पत्रकारिता के दिशा निर्देशकों पाठकों की भागीदारी बढ़ाने की और विशेष ध्यान देना होगा। ओपन कमेंट सेक्शन, फीडबैक कॉलम और जन संवाद के माध्यम से पाठकों की राय को महत्व दिया जाए व जनहित पत्रकारिता को प्राथमिकता मिले तो हिंदी पत्रकारिता सब संकटों से पार पाकर नई ऊंचाइयों पर दिखाई देगी इसमें संदेह नहीं है  मगर संदेह है तो केवल इस बात का कि आज के अर्थप्रधान युग में निरर्थक खबरें, निहितस्वार्थ, राजनीतिक दबाव, मालिकों की मनमानी, कमजोर संकल्प वाले संपादक और बदहाली में जी रहे स्थानीय संवाददाता और उन पर मंडराता माफियाओं के साया क्या ऐसा होने देगा ?

 यदि हिंदी पत्रकारिता को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ बनना है तो उसे अपने सिद्धांतों, भाषा, और ज़िम्मेदारी का पुनः मूल्यांकन करना होगा और तकनीकी, पारदर्शिता और जनसरोकार को प्राथमिकता देकर ही यह विश्वसनीयता प्राप्त की जा सकती है।

डॉ घनश्याम बादल 

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