विधि-कानून

तलाक और हिन्दू विवाह संशोधन विधेयक

डा. प्रेरणा चतुर्वेदी

हाल ही में केन्द्रीय मंत्रीमण्डल द्वारा हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 और स्पेशल मैरिज एक्ट-1954 में संशोधन के मकसद से तैयार विवाह कानून (संशोधन) बिल-2010 को संसद में पेश करने की मंजूरी मिली। जिसके प्रावधान के अनुसार वैवाहिक संबंध में स्त्री तो असमाधेय गतिरोध के आधार पर तलाक का प्रस्ताव रख सकती है मगर पुरूष नहीं। न ही स्त्री द्वारा प्रस्तावित तलाक का वह विरोध ही कर सकता है। किन्तु यदि पुरूष तलाक की याचना करे तो स्त्री को उसके विरोध का पूरा अधिकार है।

हालांकि ऊपरी तौर पर देखने से यह विधेयक स्त्री पक्ष को मजबूती देता देख रहा है। क्योंकि वैसे भी वैशिवक संदर्भों में आज भी स्त्री ही वैवाहिक संबंधों में यौन प्रताड़ना, शरीरिक प्रताड़ना, मानसिक प्रताड़ना, घेरलू हिंसा की शिकार और घुट-घुट कर वैवाहिक संबंध को ढोने के लिए बाध्य होती रही है। आज भी 51 प्रतिशत महिलाएं पतियों द्वारा पीटे जाने को गलत न मानकर अपनी नियती मानती हैं। इसलिए यह बिल विवाह से उबारने की राह तलाशने का अवसर दे सकता हैं ।

किन्तु भारतीय परम्परा में हिन्दू विवाह सात जन्मों के बंधन से जुड़ा हुआ पवित्र रिश्ता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में पति-पत्नी दोनों की समान सहभागिता को ही धर्मशास्त्र में उचित बताया गया है।। अगिन को साक्षी मानकर बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद से प्रारंभ हुआ यह संबंध जीवन की आखिरी डोर टूटने तक चलता है और यह चलता रहे इसी की कामना पति एवं पत्नी तथा उनके शुभेच्छु समय-समय पर करते रहते हैं।

विवाह पश्चात हिन्दू धर्म में विवाह विच्छेद को स्वीकारा अवश्य गया है किन्तु अति कठिनतम परिस्थितियों में। बाद में समाज द्वारा विवाह-विच्छेदी पुरूष और स्त्री के लिए सामाजिक उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी इसीलिए था, कि कोर्इ पति-पत्नी का विवाह-विच्छेद न हो। स्वतंत्रता पश्चात भी विवाह कानून में संशोधनों द्वारा यह प्रयास रहा की विवाह संबंध टूटने के बजाय जुड़ जाए। इसीलिए तलाक की याचिका दाखिल करने के बाद अदालत की तरफ से पति-पत्नी को पुनर्विचार हेतु छ: माह से अठारह माह का समय निर्धारित था। इस दौरान प्राय: संगे-संबंधियों द्वारा समझाने अथवा परिस्थितिजन्य कारणों या बच्चों के भावात्मक लगाव से अधिकांशत: पति-पत्नी पुन: वैवाहिक जीवन साथ-साथ बिताने को तैयार हो जाते थे और परिवार टूटने से बच जाता था। लेकिन आज ‘यूज एण्ड थ्रो बनाम उपभोक्तावादी संस्कृति के जमाने में ‘तुरंत इच्छा तुरंत पूर्ति के तहत तलाक को कानूनी अमलीजामा पहनाकर आसान बनाने की प्रक्रिया हिन्दू धर्म, आस्था से ही खिलवाड़ नहीं अपितु पूरे भारतीय परिवार और विवाह संस्था के लिए घातक सिद्ध होगी।

इसमें कोर्इ दो राय नहीं है कि आज महिलाएं शिक्षा के माध्यम से जागरूक हुर्इ है और अपने अधिकारों के प्रति भी। लेकिन वास्तव में घरेलू हिंसा की शिकार ग्रामीण, कस्बों की जो अशिक्षित महिलाएं हैं वे तलाक के नए संशोधन से अन्जान ही है। यदि वास्तव में देखा जाए तो यह संशोधन बिल पास होने के बाद ‘तुरंत विवाह-तुरंत तलाक प्रक्रिया जैसे विदेशों में व्याप्त है, उसी को बढ़ावा मिलेगा। इंसान को किसी भी बात को सोचने-समाझने के लिए भरपूर वक्त चाहिए और जीवन का इतना अहम फैसला केवल एक पक्ष की याचिका और दलील पर हो, यह उचित नहीं हैं।

वर्तमान समय में विभिन्न अदालतों में तलाक के कुल दो लाख मामले चल रहे हैं। जिनमें से मात्र 30 प्रतिशत मामले ही ऐसे हैं जिनमें तलाक आखिरी रास्ता है। मगर शेष मामलों में संबंध सुधारने की गुंजाइशें हैं। इस संशोधित बिल के प्रस्ताव के मुताबिक तलाक के बाद स्त्री को पति की सम्पति में निशिचत हिस्सेदारी मिलना तय है जिससे उसकी आर्थिक कठिनार्इ दूर हो सकेगी। क्योंकि अब तक मात्र 20 प्रतिशत ही महिलाएं पतियों से तलाक के बाद गुजारा भत्ता प्राप्त कर पाती थी। यह भी सराहनीय है।

किन्तु फिर भी इस हिन्दू विवाह संशोधन बिल से हिन्दू धर्म, समाज और परिवार को जो आघात लगेगा। उससे विकलांग सामाजिकता ही पनपेगी, सुदृढ़ समाज और व्यकित का विकास संभव नहीं होगा। किसी भी एक पक्ष को अधिकाधिक स्वतंत्रता दिए जाने से उसके स्वछंद होने का भय बढ़ जाता है। विवाह विच्छेद का सबसे बड़ा खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है इसलिए विवाह संशोधन बिल का प्रस्ताव बनाने एवं संसद में इस पर बहस के समय यह भी एक पक्ष होना चाहिए कि पति-पत्नी के बीच यदि बच्चे हो तो उन्हें संबंध सुधारने के लिए विचार हेतु न्यूनतम छ: माह व अधिकतम अठारह माह अवधि दी जाए। साथ ही परिवारिक सत्र न्यायालयों में भी मैरिज काउंसलरों द्वारा पति-पत्नी को परामर्श की व्यवस्था करार्इ जाए। विवाह पूर्व पुरूष एवं स्त्री भी अपने रूचि, इच्छा, शिक्षा, व्यवसाय, धर्म, जाति, परिवार, आचार-व्यवहार के अनुरूप ही जीवनसाथी का चयन करें जिससे वैवाहिक संस्था सुरक्षित रह सके। विवाह विच्छेद दो व्यकितयों के बीच ही संबंध विच्छेद नहीं करता बलिक, एक परिवार, समाज और एक पीढ़ी का भविष्य खतरे में डालता है। इसीलिए तलाक को आसान बनाना स्वागतयोग्य नहीं वरन समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।