होली, रमजान, राम और जान : पत्थरों की नहीं, फूलों की बारिश हो

डॉ घनश्याम बादल

 भारत में सभी धर्मानुयायी अपने-अपने तीज त्यौहार हमेशा से साथ-साथ मनाते आए हैं और इसमें कभी भी किसी तरह का वैमनस्य या प्रतिस्पर्धा अथवा एक दूसरे के प्रति कटुता का भाव देखने को नहीं मिला लेकिन इस वर्ष जब होली 13 एवं 14 मार्च को मनाई जा रही है और रमजान भी शुरू हो चुका है तो ऐसे में रमजान और होली जो कभी सह अस्तित्व एवं सद्भाव के तौर पर देखे जाते थे इस बार कुछ स्थानों पर, कुछ विशेष कारणों एवं व्यक्तियों की वजह से टकराव की स्थिति में दिखाई देते हैं ।

 वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि रमजान और होली का त्यौहार लगभग लगभग एक साथ पड़ा हो । यदि हिजरी संवत और चंद्रमा आधारित पंचांग को उठाकर देखें तो लगभग हर 33 वर्ष बाद इस तरह का संयोग बनता रहा है 1930, 1962, 1994 एवं 2016 में भी रमजान एवं होली का पर्व काफी पास-पास पड़े थे और बहुत प्रेम एवं सौहार्द के साथ यें पर्व मनाए गए किंतु इस बार एक खास किस्म का टकराव सा देखने में आ रहा है । जहां देश इस समय एक हिंदुत्व ओज एवं उभार के साथ आगे बढ़ रहा है, वहीं, मुस्लिम पक्ष भी अपने अस्तित्व एवं वर्चस्व के लिए जूझ रहा है । होली ही नहीं, कई मौकों पर पिछले वर्षों से दोनों पक्षों में विभिन्न टकराव सामने आया है जो एक अच्छा संकेत नहीं है।

   यदि संविधान की दृष्टि से देखें तो भारत बेशक एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है एवं यहां हर धर्म के अनुयायियों को अपने धर्म को मानने का पूर्ण अधिकार है और इसका उपयोग वे लगातार 1947 और उससे पहले भी करते आए हैं लेकिन दूसरा सच यह भी है कि आज़ादी के बाद एक लंबे कालखंड तक राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए एक धर्म विशेष के लोगों का उपयोग किया गया एवं उनके तुष्टि करण हेतु बहुत कुछ किया गया । इसका मुख्य कारण यह था उनका एक बड़े वोट पैकेज के रूप में सामने आना ।

1970 के आस पास मुस्लिम धार्मिक नेताओं एवं संस्थाओं ने उनके लिए एक तरह से ऐसी बाध्यकारी अपील जारी करने की परंपरा सी डाल दी कि वे एक दल या विचारधारा विशेष के पक्ष में लामबंद होकर वोट करने लगे और बदले में उनके हितों की पैरोकारी राजनीतिक दृष्टि से होती गई ।  जहां इस राजनीतिक पक्षधरता से मुस्लिम समाज को काफी सुविधाएं एवं आरक्षण तथा सुरक्षा मिली, वहीं हिंदू समाज के कट्टरपंथी लोगों को यह बात अखरने लगी । परिणाम स्वरूप मनों में दूरी बढ़ती गई जिसका चरम एक तरह से हमने 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में देखा ।

   फिर केंद्र में हिंदुत्व विचारधारा की सरकारें आईं और हिंदू वोटो को लामबंद करने के लिए इन सरकारों ने मुस्लिम समाज का ‘तुष्टिकरण’ लगभग बंद करते हुए हिंदुत्ववाद का ‘संतुष्टिकरण’ शुरू कर दिया।  इस क्रिया की भी प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक था और इसके चलते राजनीतिक क्षेत्र में कट्टरतावादी लोग आगे बढ़े और यह काम दोनों खेमों में हुआ।  हिंदू वर्चस्व की राजनीति के पैरोकारों में भी और मुस्लिम वर्चस्व के राजनीतिक पैरोकारों में भी । धीरे – धीरे सत्ता में आने के लिए अपने-अपने समर्थकों के लिए अड़ने और लड़ने की ज़िद बढ़ती गई । आज इसी ज़िद का परिणाम सामने है होली में रमजान के अवसर पर टकराव के रूप में।

     भले ही कभी भी और किसी का भी वर्चस्व क्यों न रहा हो पर सच यह भी है कि भारत में मात्र किसी एक धर्म विशेष के साथ ही चलकर तरक्की संभव नहीं है. दूसरा सच यह भी है कि कम या ज़्यादा हर वर्ग, धर्म और क्षेत्र तथा भाषा भाषियों ने अपने ख़ून पसीने से हिंदुस्तान बनाया है। बात यह भी गलत नहीं है कि एक पक्ष अपने धर्म के प्रति बहुत अधिक कट्टर रहा है तो दूसरा काफी लचीला। हालांकि एक पक्ष के सभी लोग कट्टर हों, ऐसा नहीं है और प्रतिपक्षी गुट के भी सभी लोग बहुत उदार हों, यह भी सच नहीं है मगर उग्रता के दृष्टिकोण से मुस्लिम पक्ष हमेशा भारी रहा है पर 1992 के बाद से ही हिंदुत्ववादी भी कम नहीं रहे।

 1992 से 2023 – 24 के आते-आते भव्य राममंदिर अस्तित्व में आया और इसके साथ ही हिंदुत्ववादी नेताओं में यह बात गहरे से घर कर गई कि मंदिरों के सहारे सत्ता में आया और लौटा जा सकता है ।

    धर्म, मजहब अपनी जगह ठीक हैं और ये आस्था का सबब हैं जहां तर्क काम नहीं करता लेकिन दूसरा सच यह भी है कि तर्क के बिना राष्ट्र का जीवन नहीं चल सकता । किसी भी राष्ट्र का गौरव उसकी तरक्की में होता है. जब तक कोई राष्ट्र तरक्की पसंद नीतियां अपनाता है तो वह आगे बढ़ता चला जाता है और जब वह पोंगापंथी के जाल में फंस जाता है तब सारी तरक्की न केवल नष्ट हो जाती है अपितु भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है । इसके उदाहरण एक नहीं, अनेक राष्ट्र बने हैं। 

   ख़ैर रंग, मस्ती, संस्कृति और भाईचारे का त्योहार होली है तो सभी पसमांदा लोगों के लिए दुआ करने का महीना रमजान भी है । थोड़ा सा साहित्यिक लपेटा मारें तो रमजान में ‘राम’ भी है और ‘जान’ भी है तो वहीं होली पावनता का पर्व है । सारे गिले, शिकवे भुलाने, रूठो को गले लगाने और प्रेम में के रंग में रंगने का त्यौहार है । राजनीतिक नेतृत्व का यह कहना कि यदि आपको रंग पसंद नहीं है तो घरों में रहें, एक व्यवहारिक मश्विरा है पर यह बाध्यकारी नहीं होना चाहिए । वहीं रंग खेलते ,नाचते, गाते रंग-बिरंगे चेहरे वाले होरियारों पर बेहतर हो कि पत्थरों की नहीं, फूलों की वर्षा हो और रमजान के महीने में हमेशा की तरह इफ्तार पार्टियां हिंदुओं की तरफ से हों और ऐसा होगा भी, यही विश्वास हिंदुस्तान की पहचान है ।

    कट्टरता केवल कड़वाहट और नफ़रत लाती है जबकि थोड़ा सा झुक कर सलाम करने से या होली पर पैर छूकर बधाई देने से जीवन के रंग खिल उठते हैं। यह बात नई पीढ़ी को समझने का जिम्मा बुजुर्गों का है और बुजुर्गों को तरक्की का तर्क समझाने की ज़िम्मेदारी युवा वर्ग की। उम्मीद है इस बार की होली और रमजान आपस में गले मिलकर एक नई तरक्की पसंद भारत का पथ प्रशस्त कर अनुकरणीय उदाहरण पेश करेंगे।

डॉ घनश्याम बादल

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