राजनीति

हुमायूं कबीर, अरशद मदनी और महमूद मदनी के बयान आखिर कैसे भारत का माहौल खराब कर रहे हैं?

कमलेश पांडेय

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। सहिष्णु मुल्क है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर देश है लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि राजनेताओं की दंगाई प्रवृत्ति को शह दिया जाए। गुलाम भारत में, आजाद भारत में जो राजनीतिक नौटंकी दिखाई दे रही है, इस जनद्रोही प्रवृत्ति पर अविलंब अंकुश लगना चाहिए।

कहना न होगा कि जिस तरह से ‘मुस्लिम नेता व धर्मगुरु’ यथा- हुमायूं कबीर, अरशद मदनी और महमूद मदनी के सार्वजनिक बयान भारत का माहौल खराब कर रहे हैं, वह बेहद चिंता की बात है। ऐसा इसलिए कि पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना की तरह ही ये लोग विवादित और उत्तेजक बयान दे रहे हैं जो सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ाने वाले हैं। 

लिहाजा, ऐसे बयानों पर हमारे सही राजनेताओं का खामोश रहना, प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा त्वरित एक्शन नहीं लेना और सक्षम न्यायिक अधिकारियों द्वारा ऐसे मसलों पर स्वतः संज्ञान नहीं लेना इस आशंका को बल देता है कि इन नए नए जिन्ना को नया नया पाकिस्तान आज नहीं तो कल देना ही होगा। भविष्य में ऐसा नहीं हो, इसके माकूल प्रबंधन किये जाने चाहिए। 

साथ ही, अफगानिस्तान से म्यामांर तक शांतिपूर्ण स्थिति हर हाल में बनाए रखने की कूटनीति व सियासत को तवज्जो देनी चाहिए और इस दिशा से भटकते नेताओं की नकेल कसना प्रशासनिक व न्यायिक अधिकारियों की प्रथम दृष्टि होनी चाहिए।  सैन्य अधिकारियों को आसेतु हिमालय में उधम मचाने वाले लोगों को सैंतने की खुली छूट मिलनी चाहिए। इस मामले में अमेरिकी या चीनी हस्तक्षेप बिल्कुल अस्वीकार्य होना चाहिए।

अब पहले हुमायूं कबीर के बयान पर गौर फरमाते हैं। इन्होंने बंगाल में बाबरी मस्जिद निर्माण को लेकर धमकी भरे बयान दिये हैं जिसमें उन्होंने कहा कि मस्जिद बनानी होगी और इसके लिए अगर जरूरत पड़ी तो शहीद भी होंगे। उनके ऐसे उकसावे वाले बयान से सामाजिक तनाव और सांप्रदायिक दंगल की आशंका बढ़ रही है जिससे माहौल बिगड़ रहा है। उनकी बयानबाजी को राजनीतिक स्वार्थ साधने वाली और समाज में फूट डालने वाली माना जा रहा है। 

ऐसे में भारत के बहुसंख्यक लोगों की इच्छा है कि कबीर जैसे लोगों को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि किसी भी विदेशी आक्रांता के नाम पर भारत में अब कोई नया निर्माण नहीं होगा और पुराने निर्माणों को भी चरणबद्ध ढंग से हटाया जाएगा या फिर नामान्तरित किया जाएगा।

अब मौलाना अरशद मदनी के बयान पर नजर डालते हैं क्योंकि उन्होंने भारत-पाक रिश्तों और कश्मीर मामले पर सावधानी से विवादित बयान दिये हैं। उन्होंने भारत के अंदर मुसलमानों के खिलाफ नफरत की पॉलिसी की आलोचना की और पाकिस्तानी आर्थिक स्थिति पर चिंता जताई जो कई लोगों को विरोधाभासी और देशविरोधी लगा। इसके अलावा, उन्होंने भारत में मुसलमानों के प्रति भेदभाव और निशाने पर लिए जाने की बात कही जिससे विवादित माहौल बन गया है। 

ऐसे में भारत के बहुसंख्यक लोगों की इच्छा है कि अब अरशद मदनी जैसे लोगों को यह समझा देना चाहिए कि पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान यानी बंगलादेश बतौर हिस्सा दिया जा चुका है। यह हिंदुओं का हिंदुस्तान है जहां पाकिस्तान व बंगलादेश से हमदर्दी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

अब महमूद मदनी के बयान की चर्चा करते हैं। उन्होंने वंदे मातरम, जिहाद और सुप्रीम कोर्ट पर कट्टरपंथी और विवादित टिप्पणियां की हैं। उन्होंने जिहाद को न्यायसंगत लड़ाई बताई और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर सवाल उठाए। उनके इन बयानों पर राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई है जिसमें कहा गया है कि ऐसे बयान देश के विरोधी हैं और माहौल खराब कर रहे हैं। विहिप समेत कई संगठनों ने उनके बयानों की निंदा की है। 

ऐसे में भारत के बहुसंख्यक लोगों की इच्छा है कि महमूद मदनी जैसे लोगों को भी यह समझा देना चाहिए कि मौजूदा प्रशासन ब्रिटिश प्रशासन नहीं है और भारत का प्रशासन शांतिप्रियता को बढ़ावा देता है। लिहाजा किसी भी तरह की आक्रामक प्रवृत्ति को कुचल दिया जाएगा। 

यहां सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि यदि भारत का प्रशासन इन अराजक तत्वों से शीघ्र नहीं निबटेगा तो ऐसे उग्र लोग देर सबेर भारत के नरम प्रशासन का खात्मा करके ही रहेंगे। ये भारत की स्थिति भी पाकिस्तान-बंगलादेश की तरह कर देंगे। आज जैसे अरब अशांत है, उसी तरह से कल हिंदुस्तान को भी अशांत बना देंगे। इसलिए इनकी शिक्षा व खान-पान को हिंसक बनने से रोकना बदलते वक्त की पहली जरूरत है।

सच कहूं तो ये बयान धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संवेदनाओं को भड़काने वाले हैं और भारत की सामाजिक समरसता को हिला सकते हैं। यह माहौल खराब करना समझा जा रहा है क्योंकि ऐसे बयान उकसावे और विवाद पैदा करते हैं। राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता के लिए ऐसे बयान अप्रामाणिक और खतरनाक माने जा रहे हैं। इसलिए समय रहते ही नए नए जिन्नों की प्रवृत्ति को कुंद करना होगा। इसके लिए हमारी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को कठोर कदम उठाने होंगे। साथ ही धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित करने के लिए यूनिफिकेशन ऑफ इंडिया को बढ़ावा देकर समाजिक समरसता को बढ़ावा दिया जाए और इस राह में बाधक लोगों को अरब मुल्कों की तरफ भेज दिया जाए।

ऐसा इसलिए कि उनके इन बयानों का सामाजिक तनाव पर काफी नकारात्मक असर हुआ है। महमूद मदनी ने मुसलमानों के खिलाफ कथित अत्याचारों का जिक्र करते हुए कहा कि जब जुल्म होगा, तब जिहाद होगा जो एक उग्र और संवेदनशील माहौल बनाने वाला बयान है। ऐसा बयान समाज में धार्मिक पक्षपात और अलगाव को और बढ़ाता है जिससे तनाव की विभीषिका और बढ़ जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम समुदाय को सामाजिक, कानूनी और आर्थिक रूप से कमजोर किया जा रहा है जिससे अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा और बेचैनी बढ़ रही है।

आपको याद होगा कि पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने भी भारत में धार्मिक विभाजन और असुरक्षा के बढ़ते माहौल की चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि ऐसे विभाजन और भेदभाव असहिष्णुता को उत्पन्न करते हैं, जो सामाजिक अशांति और असुरक्षा को बढ़ावा देते हैं। वास्तव में, भारत में धार्मिक नेताओं के विवादित बयानों ने जाति और धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक तनाव और सामाजिक विभाजन को मजबूत किया है। ये बयान सामाजिक सहिष्णुता और भाईचारे को हिला कर धार्मिक कट्टरता, नफरत और हिंसक घटनाओं को बढ़ावा देते हैं। इससे समाज में भय, अविश्वास और अलगाव की भावना फैलती है, जो सार्वजनिक शांति के लिए खतरा बन जाती है।

तल्ख अनुभव बताता है कि इस तरह के बयान साम्प्रदायिक विवादों को हवा देते हैं जिससे समुदायों के बीच झड़पें, भड़काऊ पोस्टर, प्रदर्शन और दंगों की घटनाएं बढ़ जाती हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में हाल के वर्षों में कई सांप्रदायिक तनाव और हिंसात्मक घटनाएं इसी माहौल से उपजी हैं। यह माहौल भ्रष्ट राजनीतिक फायदा उठाने वाले गुटों के लिए भी उपयुक्त होता है, जिससे सामाजिक स्थिरता में कमी आती है।

देखा जाए तो हुमायूं कबीर, अरशद मदनी और महमूद मदनी के विवादित बयानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई न होने के कई कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण यह है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान द्वारा सुरक्षा प्राप्त है जिससे बयानों को कानूनी रूप से प्रतिबंधित करना जटिल हो जाता है जब तक कि वे स्पष्ट रूप से अपराध की श्रेणी में न आएं। भारतीय दंड संहिता की धारा 295 (ए) और 153-ए के तहत ऐसे कार्य जो धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं या धार्मिक वर्गों के बीच शत्रुता बढ़ाते हैं, अवैध हैं लेकिन इन धाराओं को लागू करने में न्यायिक विवेक और साक्ष्यों की मजबूती आवश्यक होती है।

आम तौर पर विवादित बयान अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आ जाते हैं, जिनके खिलाफ कार्रवाई के लिए यह साबित करना जरूरी होता है कि वे सीधे सार्वजनिक शांति को भंग करते हैं या हिंसा के लिए उकसाते हैं। इसके अलावा, न्यायालयों में यह भी देखा जाता है कि धार्मिक नेताओं के बयानों को धार्मिक दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का भी सम्मान होना चाहिए जिससे कार्रवाई को सीमित या सतर्कता से किया जाता है। 

यही वजह है कि धार्मिक नेताओं के बयान राजनीतिक और सामाजिक संवेदनशीलता के कारण कानूनी क्रिया-कलापों का सामना कम करते हैं और बातचीत या राजनीतिक माध्यमों से हल निकालने की कोशिश की जाती है। वहीं, कुछ मामलों में राजनीतिक और सामाजिक कारणों से भी सरकार या प्रशासन कानूनी कार्रवाई में हिचकिचाते हैं क्योंकि ऐसी कार्रवाई सामाजिक विद्रूपता या बड़े सांप्रदायिक तनाव को जन्म दे सकती है। इसलिए विवादित बयानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई में देरी या अड़चनें आती हैं।

बावजूद इसके, हुमायूं कबीर, अरशद मदनी और महमूद मदनी के विवादित बयानों पर राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रियाएँ आई हैं। हुमायूं कबीर के मुर्शिदाबाद में बाबरी मस्जिद की नींव रखने वाले बयान के बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति गरमा गई है। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के इस विधायक के बयान पर विपक्षी दलों ने कड़ी आपत्ति जताई है। कांग्रेस ने इसे सामाजिक और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाला बताया है और कहा कि यह पुराने विवादों को फिर से उभारने की कोशिश है। वहीं, बीजेपी समेत कई दलों ने इसे चुनावी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिश माना है। बीजेपी की उमा भारती ने कहा कि बाबर के नाम से बनी इमारत का वही हाल होगा जो अयोध्या में हुआ था और इसे पूरी तरह अस्वीकार किया।

उधर, अरशद मदनी और महमूद मदनी के बयानों पर भी राजनीतिक दलों ने मिश्रित प्रतिक्रियाएं दी हैं। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इनके बयानों को धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों के हिस्से के रूप में देखा है, जबकि राष्ट्रीय और दक्षिणपंथी दलों ने इसे देशविरोधी और माहौल बिगाड़ने वाला बताया है। उनके बयानों को लेकर राजनीतिक विरोध और संवाद दोनों चल रहे हैं। कुछ वरिष्ठ नेताओं ने सामाजिक एकता बनाए रखने की अपील भी की है।

समग्र रूप से, इन बयानों पर राजनीतिक दलों का रुख इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस समुदाय या क्षेत्र में समर्थक हैं। विरोधी दल विवादित बयानों को सामाजिक विखण्डन और हिंसा भड़काने वाला बताते हुए कड़ी आलोचना कर रहे हैं जबकि संबंधित राजनीतिक दल कभी-कभी इन बयानों को धार्मिक या राजनीतिक अधिकार का हिस्सा मानने की कोशिश करते हैं। परिणामी तौर पर ये बयान और प्रतिक्रियाएँ भारत के राजनीतिक और सामाजिक माहौल में अस्थिरता बढ़ाने वाले कारक बनें हैं। इस प्रकार, इन विवादित बयानों ने राजनीतिक बहस को तीखा बना दिया है और सामाजिक तनाव को भड़काने में भूमिका निभाई है।

यदि देखा जाए तो इन विवादित बयानों और राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं का चुनावी असर तीव्र हो सकता है और यह विभिन्न तरह से देखने को मिल सकता है। 

पहले, ऐसे बयानों से सामाजिक और धार्मिक भावनाएँ भड़कती हैं जो वोटरों को अपने समुदाय के प्रति और पारंपरिक आधारों पर मजबूती से खड़ा कर सकते हैं। इससे धार्मिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ता है जो चुनावी माहौल को तीखा करता है। इनमें से कुछ वोटर धार्मिक पहचान को लेकर संगठित होकर किसी खास दल या उम्मीदवार के प्रति समर्थन जता सकते हैं।

 दूसरे, विपक्षी दल इन विवादित बयानों को अपने चुनावी रणनीति में इस्तेमाल कर सकते हैं, उम्मीदवारों या पार्टियों को कट्टरपंथी या माहौल खराब करने वाला बताकर चुनावी लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं। इससे चुनाव प्रचार और बहसें ज्यादा संघर्षपूर्ण और विभाजनकारी बन सकती हैं जो चुनावी परिणामों को प्रभावित करती हैं।

तीसरे, इन बयानों पर हुई कड़ी मीडिया कवरेज और सार्वजनिक बहसें मतदाताओं की जागरूकता बढ़ाती हैं लेकिन यह भी संभावित है कि इससे कुछ इलाके या समुदायों में विरोध या अल्पमत पैदा हो सकती है जो संपूर्ण वोट प्रतिशत को प्रभावित करती है। यह राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक समरसता के लिए जोखिम भी उत्पन्न करता है।

अंत में, ऐसे विवाद चुनावी दलों के आपसी गठजोड़ और वोट बैंक राजनीति पर भी असर डालते हैं क्योंकि पार्टियां अपने वोटर बेस को ध्रुवीकृत करने और मजबूती देने की रणनीतियों को जोर-शोर से लागू करती हैं। यह लंबे समय में सामाजिक सामंजस्य के लिए चुनौती बन सकता है। कुल मिलाकर, विवादित बयानों पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का चुनावी असर मतदाताओं की राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज करने और चुनावी परिणामों में अप्रत्याशित उलटफेर करने वाला हो सकता है। 

यह स्थिति खासकर संवेदनशील लोकसभा या विधानसभा चुनावों में वोटिंग व्यवहार को बदल सकती है और राजनीतिक परिदृश्य में नई असमर्थन और समर्थन की गहराई जोड़ सकती है। इसलिए, इन बयानों और प्रतिक्रियाओं को चुनावी ताकत के रूप में नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, खासकर उन राज्यों में जहां धार्मिक और सामाजिक मुद्दे मतदाताओं के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

कमलेश पांडेय