हिंदी विश्व-भाषा और भारत विश्व-गुरु कैसे बने?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

विश्व हिंदी दिवस और प्रवासी भारतीय दिवस, ये दोनों इतने महत्वपूर्ण दिवस हैं कि इन्हें भारत की जनता और सरकारें यदि पूरे मनोयोग से मनाएं तो अगले कुछ ही वर्षों में भारत सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से विश्व की महाशक्ति बन सकता है। जो लोग भारत को विश्व गुरु बना हुआ देखना चाहते हैं, उनकी जिम्मेदारी तो और भी ज्यादा है। विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को था और प्रवासी भारतीय दिवस 9 जनवरी को। ये दोनों दिवस साथ-साथ आते हैं लेकिन इस वर्ष इन दिवसों पर भारत में धूम मचना तो दूर, पत्ता भी नहीं खड़का। कोरोना की महामारी में सावधानी जरुरी है लेकिन इसी दौरान ‘झूम’ पर झूम-झूमकर रैलियां हुईं, संगोष्ठियां हुईं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुए लेकिन इन दोनों महत्वपूर्ण दिवसों को हमारे प्रचारतंत्र, नेताओं और समाजसेवियों ने याद तक नहीं किया।

विश्व हिंदी-दिवस पहली बार 1975 की 10 जनवरी को नागपुर में आयोजित हुआ था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका उद्घाटन किया था। कई देशों के हिंदीप्रेमी उसमें शामिल हुए थे। अब तक लगभग दर्जन भर विभिन्न देशों में ये सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन इसकी ठोस उपलब्धियां क्या हैं? हिंदी के बैलगांड़ी आज भी वहीं खड़ी है, जहां वह अब से 46 साल पहले खड़ी थी। क्या हिंदी किसी विश्व-मंच पर आज तक प्रतिष्ठित हुई? क्या संयुक्तराष्ट्र संघ की छह आधिकारिक भाषाओं में वह आज तक शामिल हो पाई? भारत तो 54 देशों के राष्ट्रकुल का सबसे बड़ा देश है। क्या कभी राष्ट्रकुल में हिंदी की प्रतिष्ठा हुई? जिन राष्ट्रों में हमारे भारतीय लोग बहुसंख्यक हैं, क्या वहां हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला? क्या वहां छात्रों को अनिवार्य रुप से हिंदी पढ़ाई जाती है? क्या कोई भी विषय की पढ़ाई का माध्यम वहां हिंदी है?

मान लें कि मैंने ऊपर जो काम बताए हैं, वे काम सरकारों के हैं लेकिन क्या जनता ने भी हिंदी को विश्व-भाषा का दर्जा दिलाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए? हम भारतीय लोग और खास तौर से हम हिंदीभाषी लोग ही अपने महत्वपूर्ण अधिकारिक काम हिंदी में नहीं करते तो विदेशों में रहनेवाले भारतीयों को दोष क्यों दें? हिंदीभाषी लोग अपने हस्ताक्षर तक हिंदी में नहीं करते। वे अपने खातों और कानूनी दस्तावेजों पर अंग्रेजी में दस्तखत करते हैं जबकि स्वभाषा में हस्ताक्षर करने को कोई ताकत नहीं रोक सकती। विदेशों में रहनेवाले भारतीय नागरिक यदि अपने हस्ताक्षर हिंदी में करने लगे तो उनकी अलग पहचान बनेगी और वे जानेंगे कि भारत की भाषा हिंदी है, जो विश्व-भाषा बनने के योग्य है। पिछले 50-55 साल में मैं लगभग 80 देशों में गया हूं। मेरे किसी भी पारपत्र (पासपोर्ट) पर दस्तखत अंग्रेजी में नहीं हैं। किसी भी विदेशी बैंक ने मेरे हिंदी हस्ताक्षरवाले चेक को अस्वीकार नहीं किया है।

यह संतोष का विषय हो सकता है कि आजकल दुनिया के दर्जनों विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी है लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर विदेशी लोगों को उनकी सरकारों द्वारा हिंदी इसलिए पढ़ाई जाती है कि उन्हें या तो भारत के साथ कूटनीति या जासूसी के काम में लगाना होता है। हमारे कुछ भारतीय हिंदीप्रेमी मित्रों के प्रयत्नों से कुछ देशों में हिंदी पाठशालाएं खोली गई हैं, यह सराहनीय कदम है।

यदि हिंदी को विश्व-भाषा बनना है तो उसे अभी कई सीढ़ियां चढ़नी होंगी लेकिन सबसे पहले उसे संयुक्तराष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा बनना होगा। इस समय छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, हिस्पानी और अरबी ! इनमें से एक भी भाषा ऐसी नहीं है, जिसके बोलनेवालों की संख्या दुनिया के हिंदीभाषियों से ज्यादा है। अंग्रेजी दुनिया के बस चार-पांच देशों की ही भाषा है। इसे अंग्रेजों के पूर्व गुलाम देशों के दो से पांच प्रतिशत लोग इस्तेमाल करते हैं। जहां तक चीनी भाषा का सवाल है, उसके आधिकारिक मंडारिन भाषाभाषियों की संख्या भी हिंदीभाषियों से कम है। यह तथ्य मुझे चीन के शहरों और गांवों में दर्जनों बार घूमने से मालूम पड़ा है। हिंदी को इन सभी भाषाओं के पहले संयुक्तराष्ट्र की भाषा होना चाहिए था लेकिन जिस भाषा को हमने भारत में ही नौकरानी बना रखा है, वह विश्व मंच पर महारानियों के साथ कैसे बैठ सकती है? बस, यहां संतोष की बात यही है कि अटलजी और मोदीजी, दो ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं, जिन्होंने अपने भाषण वहां हिंदी में दिए। 1999 में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर मैंने संयुक्तराष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देना चाहा तो मालूम पड़ा कि उस समय उसके अनुवाद की ही कोई व्यवस्था नहीं थी।

संस्कृत की पुत्री होने और दर्जनों एशियाई भाषाओं का संगम होने के कारण हिंदी का शब्द भंडार दुनिया की किसी भी भाषा से बहुत बड़ा है। यदि वह संयुक्तराष्ट्र की भाषा बन जाए तो वह विश्व की सभी भाषाओं को कृतार्थ कर सकती है। इससे भारत में चल रही अंग्रेजी की गुलामी भी घटेगी और हमारी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और व्यापार में भी चार चांद लग जाएंगे।

इस समय विदेशों में प्रवासी भारतीयों की संख्या लगभग सवा तीन करोड़ है। दुनिया के ज्यादातर देशों की आबादी भी इतनी नहीं है। अब से 50-55 साल पहले मैं जब न्यूयार्क में पढ़ता था तो किसी से हिंदी में बात करने के लिए मैं तरस जाता था लेकिन अब हाल यह है कि जब भी मैं दुबई जाता हूं तो लगता है कि छोटे-मोटे भारत में ही आ गया हूं। आज दुनिया के सभी प्रमुख देशों में प्रवासी भारतीय प्रभावशाली पदों पर हैं और कुछ देशों में तो वे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री और सांसद हैं। उनमें जातीय, धार्मिक और भाषिक कट्टरता भी बहुत कम है। वे औसतन विदेशियों से अधिक संपन्न भी हैं। उन्होंने इस साल भारत को साढ़े छह लाख करोड़ रु. भेजे हैं। अपनी मातृभूमि को दुनिया में सबसे ज्यादा पैसा भेजनेवाले भारतीय ही हैं। उनके चारित्रिक और पारिवारिक आचरण का उन देशों में गहरा प्रभाव है। यदि इन प्रवासियों को प्रेरित किया जाए तो वे न केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने में जबर्दस्त योगदान करेंगे बल्कि भारतीय संस्कृति को वे विश्व-संस्कृति के तौर पर स्वीकृत भी करवा सकते हैं। जो लोग भारत को विश्व-गुरु बना देखना चाहते हैं, इस मामले में उनकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा है।

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