हाइड्रोपोनिक खेती: भविष्य की दिशा या सीमित समाधान?

सचिन त्रिपाठी 

भारत कृषि प्रधान देश है परंतु कृषि आज भी एक असुरक्षित, अनिश्चित और घाटे का सौदा बनी हुई है। भूमि क्षरण, जल संकट, मौसम की मार, लागत में वृद्धि और बाजार की अस्थिरता ने किसानों को वैकल्पिक तकनीकों की ओर देखने के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसे में ‘हाइड्रोपोनिक’ खेती अर्थात मिट्टी रहित, नियंत्रित वातावरण में पौधों की खेती को कृषि क्षेत्र के भविष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह तकनीक भारत के किसानों के लिए व्यावहारिक और टिकाऊ समाधान बन सकती है?

हाइड्रोपोनिक खेती की शुरुआत नीदरलैंड, इजरायल और अमेरिका जैसे देशों में हुई जहां भूमि और जल की सीमित उपलब्धता ने वैज्ञानिकों को नियंत्रित खेती की दिशा में प्रयोग के लिए प्रेरित किया। आज इजरायल इस तकनीक में वैश्विक अगुवा है जहाँ रेगिस्तानी क्षेत्रों में अत्याधुनिक हाइड्रोपोनिक फार्म फसल उत्पादन कर रहे हैं। अमेरिका और कनाडा में यह तकनीक शहरी कृषि, सुपरमार्केट और ग्रीन रेस्टोरेंट्स के लिए ताज़ी सब्जियों की आपूर्ति का मुख्य आधार बन चुकी है। जापान और सिंगापुर जैसे देश जहां कृषि भूमि सीमित है, वहां हाइड्रोपोनिक्स वर्टिकल फार्मिंग के साथ जोड़ा गया है।

भारत में इस तकनीक को अब धीरे-धीरे अपनाया जा रहा है, विशेष रूप से बड़े शहरों और कुछ विकसित राज्यों में। बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, गुरुग्राम, अहमदाबाद जैसे शहरों में कई निजी स्टार्टअप शहरी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग को बढ़ावा दे रहे हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और तेलंगाना की सरकारों ने इस तकनीक के लिए कुछ प्रोत्साहन योजनाएं भी चलाई हैं। हालांकि भारत में अब तक यह तकनीक प्रायोगिक और व्यावसायिक सीमित क्षेत्रों तक ही केंद्रित है। गांवों या छोटे किसानों में इसका प्रसार नगण्य है।

भारत सरकार की ‘स्मार्ट एग्रीकल्चर’ और ‘डिजिटल इंडिया’ पहल के तहत नवीन कृषि तकनीकों को बढ़ावा देने की दिशा में कुछ प्रयास हो रहे हैं। कृषि मंत्रालय ने ‘प्रिसिजन फार्मिंग’ और ‘कंट्रोल्ड एनवायरनमेंट एग्रीकल्चर’ को प्राथमिकता क्षेत्र बताया है और विभिन्न राज्य सरकारें स्टार्टअप्स को सहायता दे रही हैं परंतु, जमीनी स्तर पर इसे अपनाने में अभी भी कई बाधाएं हैं ,खासकर पूंजी, प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की सीमाओं के कारण।

हाइड्रोपोनिक सिस्टम की स्थापना में प्रति एकड़ ₹25 लाख से अधिक का खर्च आता है। 86% भारतीय किसान सीमांत और छोटे हैं जिनकी वार्षिक कृषि आय ₹1 लाख से भी कम है। यह तकनीक उनके लिए सुलभ नहीं है। यह खेती ‘लो टेक’ नहीं है। पीएच बैलेंस, इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी, नमी नियंत्रण, पोषक घोल का ज्ञान  ये सब आवश्यक हैं। ग्रामीण किसानों के पास इसके लिए प्रशिक्षण और संसाधन नहीं हैं।

सतत और गुणवत्ता युक्त जल तथा बिजली की उपलब्धता इस तकनीक की रीढ़ है। भारत के अनेक गांवों में अभी भी ये आधारभूत सुविधाएं बाधित रहती हैं। हाइड्रोपोनिक उत्पादों की मांग फिलहाल शहरी उच्च वर्ग तक सीमित है। बाजार की सीमाएं और मूल्य अस्थिरता इसे जोखिम भरा बना देती हैं।

भारत में एक समान नीति लागू नहीं की जा सकती। जल संकट से जूझते राज्यों (जैसे राजस्थान, तमिलनाडु) और शहरी क्षेत्रों के पास स्थित बेल्ट्स को प्राथमिकता दी जाए। 

एफपीओ, एसएचजी या कृषि स्टार्टअप्स के माध्यम से साझा हाइड्रोपोनिक यूनिट्स को प्रोत्साहित किया जाए ताकि लागत और जोखिम का बंटवारा हो। केवीके और कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। अनुसंधान संस्थानों को भारतीय जलवायु के अनुकूल प्रणाली विकसित करने की दिशा में कार्य करना चाहिए।  नाबार्ड और अन्य वित्तीय संस्थानों को हाई रिस्क कृषि निवेश के लिए विशेष स्कीम लानी चाहिए। बीमा सुरक्षा और मूल्य गारंटी योजना तकनीक को अपनाने में सहायक होगी।

हाइड्रोपोनिक खेती कोई ‘मैजिक बुलेट’ नहीं है जो सभी समस्याओं का समाधान कर दे। परंतु यह तकनीक भारत के बदलते कृषि संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उपकरण बन सकती है यदि इसे व्यवस्थित, नीति-सहायक और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार लागू किया जाए।

यह तकनीक उन किसानों के लिए व्यवहारिक है जो शहरी मांगों से जुड़े हैं, पूंजी और तकनीकी पहुंच रखते हैं, या जो संगठित समूहों के तहत काम करते हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, एक तकनीक सभी के लिए नहीं हो सकती, लेकिन सही क्षेत्र, सही समूह और सही नीति के तहत हाइड्रोपोनिक खेती भविष्य की दिशा तय कर सकती है।

सचिन त्रिपाठी 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,654 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress