कविता

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं

 

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं

 

चाँद-तारे तोड़ लाना अपनी फितरत में नहीं,

उँगलियों से ताज गढ़ना अपनी कूबत में नहीं,

एक टुकड़ा आसमां और एक प्यारी सी सुबह,

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं।

 

एक अनजानी गली में पुल बनाता आहटों के,

ज़िंदगी के बांसुरी में गीत भरता चाहतों के,

हर क़दम आवाज बनकर छल रहे हैं शाम तक,

तेरे घर से लौटती तनहाइयाँ अब साथ हैं।

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं।

 

नदी पार सन्नाटा  रेतमहल है अपना,

नींद में उतरता है सपना ही सपना,

आयेंगे लौट वे, हवायें ये कहती हैं,

आँगन और देहरी को अब भी विश्वास है।

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं।

 

रात-रात जाग-जाग खोजा है उनको,

फैला है आसमां खबर भेजूं किसको,

जागते सितारों ने भेजा आमन्त्रण है,

रिश्तों के आँगन में पतझड़ का राज है।

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं।

 

सुबह खिले फूलों पर नाम तेरा लिख दिया,

परिचय की गंध को चौखट पे टांग दिया,

दिन के सिरहाने पर कलप रही प्यास है

ताल-ताल पुरवैया मन तो उदास है।

इन्द्रधनुषी तितलियों के पंख मेरे पास हैं।

 

 

 

 

 

टाट-सी लड़कियां

 

संकरी गली के

तंग चबूतरे पर

रोज-रोज सुबह-शाम

सिगड़ी सुलगाती हैं

फूंकती हैं, हौंकती हैं

ज़हर बूझे धुँये को

फेफड़ों में भरती हैं।

खंचिया भर बर्तन

मांज-घिस चमका कर

रसोई में धरती हैं

माँ की दुलारी बन

खुद को ही छलती हैं

कहाँ जाये, क्या करें

मूकालाप करती हैं

टाट सी लड़कियाँ।

 

लटिआये बालों में

सोलह बसन्त लिए

कितने ही भैयन की

चिकोटियों का दंश

सहती चुपचाप हैं

आह नहीं, उफ नहीं

रातों में

सपने भी-देखने से डरती हैं

अनब्याहे ब्याह की

प्रतीक्षा में मरती हैं,

प्रतिष्ठा के नाम पर

सिंकती हैं, फुंकती हैं

एक नहीं…कई बार

फंसरी पर झूलती हैं

टाट सी लड़कियाँ।

 

 

बेटी से औरत बन

जब-जब निकलती हैं

कोई फुसलाता है

कोई बहकाता है

भाई के घर से

जब उन्हें भगाता है

रंगीन बादलों की

दुनियाँ दिखलाता है

ज्योंहि चुक जाती हैं

खनकते बाजारों में

बेच दी जाती हैं

या किसी स्टेशन पर

अनाथालय की शक्ल में

छोड़ दी जाती हैं

जहाँ से दिख जाता है

चौराहा

अगली सुबह होते ही

अनजानी खबर बन जाती हैं

टाट सी लड़कियाँ।

 

हमने तो पोंछे हैं

गन्दे पांव टाटों पर

जल्दी ही फेंका है

गली के कबाड़ों पर,

मर्दों की,

बेगैरत भीड़ में

अब भी

सहमती, ठिठुरती

हांफ रहीं लड़कियाँ

टाट सी लड़कियाँ।

 

 

कितना ही चाहा है

 

हरी-हरी घास पर

चादर भर सपने

कितना ही चाहा है

मिले नहीं अपने

धूप के बगीचे में

गूंगी अभिलाषा है

पलक-पलक दौड़ रही

नयनों की भाषा है

तनहाई बँट गई

गम के सवेरे

कितना ही चाहा है..

बीती है रात अभी

सुधुयों के चलते

कितने ही टूटे हैं

नेह के घरौंदे

मन बढ़ हवाओं ने

दिए ऐसे धोखे

कितना ही चाहा है

मन तो अड़भंगी है

फिर भी यह संगी है

भाग-भाग जाता है

लौट-लौट आता है

ओठों की चाहत पर

संगीन पहरे हैं

कितना ही चाहा है

सुबह गई, शाम गई

प्रीत गई, प्यास गई

तेरे लौट आने की

मन भावन आश गई

सिंदूरी शाम आज

फिर तुम्हें पुकारे

कितना ही चाहा है