कोई पानी डाल दे तो मैं भी चौंच भर पीलूं: चुपचाप मरते परिंदों की पुकार

तेज़ होती गर्मी, घटते जलस्रोत और बढ़ती कंक्रीट संरचनाओं के कारण पक्षियों के लिए पानी और छांव जैसी बुनियादी ज़रूरतें भी दुर्लभ होती जा रही हैं। परिंदे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं, और अगर वे गायब हो गए तो यह धरती और भी सूनी हो जाएगी। आधुनिक समाज एसी चलाने में सक्षम है लेकिन पक्षियों के लिए एक कटोरा पानी रखने में असफल। हर व्यक्ति अपने स्तर पर छोटे-छोटे प्रयास करके इस स्थिति को बदल सकता है — जैसे छत या बालकनी में पानी रखना, पेड़ लगाना, और बच्चों में करुणा की भावना जगाना। यह सिर्फ परिंदों के लिए नहीं, बल्कि इंसानियत के लिए भी एक परीक्षा है — कि क्या हम वाकई इंसान हैं?

-प्रियंका सौरभ

गर्मी अब सिर्फ तापमान नहीं रही, यह अब एक त्रासदी बन गई है — खासकर उनके लिए जिनकी आवाज़ न अख़बार में छपती है, न टीवी पर आती है, और न ही सोशल मीडिया की ट्रेंडिंग लिस्ट में। बात हो रही है उन छोटे-छोटे परिंदों की, जो इस तेज़ धूप, सूखी हवाओं और कंक्रीट के जंगल में चुपचाप प्यास से तड़प कर मर जाते हैं। “कोई पानी डाल दे तो मैं भी चौंच भर पीलूं…” — यह पंक्ति अब किसी कविता की कोमल कल्पना नहीं रही, यह एक जीवित सच्चाई है, एक निरीह पुकार, जो हर दोपहर किसी छत पर, किसी सूखी डाल पर, किसी तपती खिड़की की जाली के पीछे से उठती है।

शहरों ने छीन ली परिंदों की छांव

हमने पेड़ काटे, तालाब पाटे, छज्जों को सीमेंट से बंद कर दिया और टीन की छतों से सूरज को और गर्म कर दिया। आधुनिकता के नाम पर हमने अपने घरों को एसी से ठंडा किया, लेकिन परिंदों के लिए एक घूंट पानी छोड़ना भूल गए।

पक्षियों के घोंसले बनाने की जगहें कम होती जा रही हैं। अब उनके लिए न पेड़ बचे, न परछाई, न ही वह परंपरागत संस्कृति जिसमें हर घर की मुंडेर पर मिट्टी का एक कटोरा पानी से भरा होता था।

प्यास से मरते परिंदे: आँकड़े नहीं, चेतावनी हैं

कई पर्यावरण संस्थाएं बता रही हैं कि गर्मी में पक्षियों की मृत्यु दर में लगातार वृद्धि हो रही है। खासतौर पर गोरैया, कबूतर, मैना, बुलबुल जैसे छोटे पक्षी गर्मी की दोपहर में बेहोश होकर गिर जाते हैं, और यदि उन्हें समय पर पानी न मिले, तो मर भी जाते हैं। पर क्या इनकी मौतें किसी समाचार का हिस्सा बनती हैं? क्या इन पर कोई सरकारी घोषणा होती है? क्या इनका कोई “एनजीओ सम्मेलन” बुलाया जाता है?

पक्षी नहीं बचेंगे, तो हम भी नहीं बचेंगे

परिंदे सिर्फ आसमान की शोभा नहीं हैं, वे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के अभिन्न अंग हैं। वे कीट नियंत्रण करते हैं, परागण में मदद करते हैं, बीज फैलाते हैं, और सबसे ज़रूरी — वे जीवन के संगीत को बनाए रखते हैं। अगर पक्षी गायब हो गए, तो यह धरती और अधिक वीरान हो जाएगी — और हम भी।

हमें यह समझना होगा कि ये नन्हें जीव प्रकृति की बड़ी चेतावनियाँ लेकर आते हैं। जब वे प्यास से मर रहे हैं, तो समझिए कि पानी की कमी अब हमारी ओर भी बढ़ रही है।

“बर्ड फ्रेंडली” नहीं, “लाइफ फ्रेंडली” बनिए

आज ज़रूरत इस बात की है कि हम “बर्ड फ्रेंडली” समाज बनें। यह कोई बड़ा आंदोलन नहीं, सिर्फ छोटी-छोटी चीज़ें हैं। छत या बालकनी में एक मिट्टी का पानी भरा कटोरा रखें। पेड़ लगाएं, खासतौर पर नीम, पीपल, अमरूद जैसे देशी वृक्ष। बच्चों को परिंदों के बारे में बताएं — दया, संवेदना और जुड़ाव सिखाएं। गर्मियों में पशु-पक्षियों के लिए छाया और पानी की व्यवस्था करें। मंदिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों जैसे स्थलों को भी प्रेरित करें कि वे पक्षियों के लिए पानी की व्यवस्था करें। यह काम किसी सरकार का इंतज़ार नहीं करता। यह आपके हाथ में है। 

व्यंग्य की एक बूंद: “बिजली का बिल तो भरेंगे, पर परिंदों को पानी नहीं देंगे” 

हम एसी चलाने के लिए हज़ारों की बिजली जला देंगे, लेकिन एक कटोरा पानी रखने में कंजूसी कर जाते हैं। हम स्मार्ट सिटी बनाने के लिए करोड़ों बहा देंगे, लेकिन स्मार्टनेस इतनी नहीं कि बेजुबानों के लिए भी कुछ छोड़ सकें। हमारे समाज में अब ‘करुणा’ भी इंस्टाग्राम रील बन गई है — दिखावा भर, असर नहीं।

शहर की छत से गाँव के चौपाल तक — एक पुकार

गाँवों में भी अब पुराने तालाब सूख रहे हैं, बावड़ियाँ टूट चुकी हैं, और पशु-पक्षियों के लिए पीने का पानी अब मुश्किल हो गया है। एक समय था जब गाँव में हर कुएँ की मेड़ पर परिंदे पानी पीने आते थे। आज वही कुएँ सीमेंट से बंद कर दिए गए हैं। शहरों ने गाँवों को “विकास” तो दिया, पर वह विकास पक्षियों के लिए विनाश बन गया।

जलवायु परिवर्तन: परिंदों से पहले असर इनके पड़ता है

जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला और सीधा असर बेजुबानों पर पड़ता है। तापमान में जरा सी वृद्धि भी इनके लिए प्राणघातक हो सकती है। इंसान तो पंखा चला लेता है, बर्फ खा लेता है, डॉक्टर के पास चला जाता है। पर चिड़िया कहां जाए? कबूतर किससे कहे कि वह प्यासा है?

समापन: क्या हम सच में इंसान हैं?

हम खुद को बुद्धिजीवी, संवेदनशील, शिक्षित और विकसित कहते हैं — लेकिन क्या कोई भी ऐसी सभ्यता वाकई “विकसित” कहलाने लायक है जो अपने साथ रहने वाले जीवों को मरता देखे और फिर भी चुप रहे? हर गर्मी हमें यह सोचने का मौका देती है — कि इस बार क्या हम अपने घर की छत, खिड़की, बालकनी या आंगन में एक कोना ऐसा बना सकते हैं जहां कोई छोटा परिंदा अपनी चौंच भर पानी पी सके?

शायद जवाब देने की ज़रूरत नहीं। बस अगली बार जब सूरज सिर पर हो, तो किसी परिंदे की ओर देखिए…और याद रखिए —

“कोई पानी डाल दे तो मैं भी चौंच भर पीलूं…”

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