समाज

इफ्तार की दावत

-विजय कुमार

रमजान का महीना प्रारम्भ होते ही इफ्तार की दावतों का दौर चल पड़ता है। जहां तक मुझे पता है, सूर्योदय से सूर्यास्त तक भूखे रहने के बाद जब मुसलमान कुछ खाते-पीते हैं, तो उसे इफ्तार कहते हैं; पर जो रोजा नहीं रखते, वे इफ्तार कैसे कर सकते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रोजे के बाद इफ्तार की परम्परा नयी नहीं है। कुछ मुसलमान व्यक्तिगत, तो कुछ सामूहिक रूप से यह करते हैं। कई सम्पन्न मुसलमान या दयावान हिन्दू पुण्यलाभ हेतु गरीब मुसलमानों को सार्वजनिक स्थानों पर रोजा इफ्तार कराते हैं; पर अब यह एक राजनीतिक नाटक बन गया है। बड़े-बड़े हिन्दू राजनेता भी जालीदार गोल टोपी लगाकर इन दावतों में फोटो खिंचवाते हैं।

इस नाटक का प्रारम्भ भारतीय राजनीति के एक महान दलबदलू हेमवती नंदन बहुगुणा ने किया था। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को समझाया कि 1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बंगलादेश के निर्माण से भारत के मुसलमान मानसिक रूप से बहुत आहत हैं। उनके दिल पर मरहम लगाने के लिए यदि आप रोजा इफ्तार का आयोजन करें, तो बहुत अच्छा होगा।

बस तब से यह पाखंड प्रारम्भ हो गया। अब तो कांग्रेस से होता हुआ यह सब दलों तक पहुंच गया है। इस सत्र में भाजपा के सांसद शाहनवाज खान ने इसे प्रारम्भ कर लीड ले ली है। यह इफ्तार दावतें अपनी राजनीतिक हैसियत दिखाने का भी एक साधन हैं। किसके घर कौन-कौन आया, उससे क्या भावी समीकरण बनेंगे, इसकी चर्चा मीडिया में खूब होती है। अब कुछ ही दिन में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक ऐसी दावतें देंगे।

कुछ मुसलमान नेता अपना कद इसी से नापते और फिर दूसरों को बताते हैं कि उन्हें किस-किस नेता ने इफ्तार पर बुलाया। इफ्तार के निमन्त्रण पत्रों को वे ठीक से संभाल कर भी रखते हैं, जिससे भविष्य में राजनीतिक लाभ कमाया जा सके।

कोई व्यक्तिगत रूप से यह करे, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है; पर जब सरकारी खर्च पर यह आयोजन हो, तो दिल को चोट जरूर लगती है। सूचना अधिकार के कार्यकर्ता यह जानने का प्रयास करें कि शाहनवाज की इफ्तार दावत में क्या-क्या परोसा गया और उसमें कितना खर्च हुआ ?

वे हर नेता द्वारा की जाने वाली इन दावतों के खर्च का हिसाब एकत्र कर सकें, तो पता लग जाएगा कि नेताओं द्वारा महंगाई के लिए मचाया जाने वाला शोर धूर्तता और पाखंड के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो पत्रकार इन दावतों में समाचार एकत्र करने जाते हैं, वे भी अपने मालिकों के डर से इनका शाही मीनू जनता को नहीं बताते।

यह वायरस अब भारत से होता हुआ विदेश तक पहुंच गया है। पिछले दिनों अमरीका के राष्ट्रपति बराक हुसेन ओबामा ने भी इफ्तार दावत देकर उसमें ग्राउंड जीरो पर बनने वाली मस्जिद को समर्थन दिया। स्पष्टतः इस दावत का आयोजन शुद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण से हुआ था, किसी धार्मिक या मजहबी उद्देश्य से नहीं।

कुछ उलेमाओं ने इन इफ्तार दावतों के विरुद्ध फतवा भी जारी किया है; पर राजनीतिक पाखंड के इस दौर में उनकी बात सुनता कौन है ? इसलिए अब अगले 20-25 दिन तक इन दावतों का दौर और मीडिया में इनके राजनीतिक लाभ-हानि के चर्चे चलेंगे।

यदि आपको भी ऐसी किसी दावत का निमन्त्रण मिले, तो चूकना नहीं। डेढ़ से दो हजार रु. प्रति प्लेट वाले ऐसे लजीज शाकाहारी और मांसाहारी व्यंजन कब-कब मिलते हैं ? इसलिए ‘माले मुफ्त दिले बेरहम’ समझकर खूब खाना। बिल चुकाने के लिए नेता जी और उनकी पीठ पर हमारी सेक्यूलर सरकार है ही।