कविता

इक दिवाली ये भी है

बिजलियों से जगमगाई, इक दिवाली ये भी है

रोशनी घर तक न आई, इक दिवाली ये भी है

 

दीप अब दिखते हैं कम ही, मर रही कारीगरी

मँहगी है दियासलाई, इक दिवाली ये भी है

 

थी भले कम रोशनी पर, दिल बहुत रौशन तभी

रीत उल्टी क्यों बनाई, इक दिवाली ये भी है

 

देखते ललचा के लाखों, कुछ के तन कपड़े नए

फुलझड़ी ने मुँह चिढ़ाई, इक दिवाली ये भी है

 

खाते हैं कुछ फेंक देते, और जूठन छोड़ते

बस सुमन देखे मिठाई, इक दिवाली ये भी है