वीरेन्द्र सिंह परिहार
शायद देश के बहुत लोगों को यूपीए सरकार का वह बिल अब भी याद में हो जब उसके द्वारा साम्प्रदायिक एवं लांछित हिंसा रोकथाम विधयेक 2011 बिल का ड्राफ्ट किया गया था। यह बताना भी उल्लेखनीय है कि यह बिल सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किया गया था। इस ड्राफ्ट का लब्बोलुआब यह था कि हिन्दू आक्रामक हैं जबकि मुस्लिम, ईसाई और दूसरे अल्पसंख्यक पीड़ित है। यह बिल जब ड्राफ्ट हुआ, उसमें ऐसा कुछ मान लिया गया कि दंगा सिर्फ हिन्दू करते हैं, मुसलमान, ईसाई और दूसरे पंथ मात्र इसके शिकार होते हैं। इस प्रस्तावित विधेयक में मुस्लिम, ईसाई और सिखो के साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी अल्पसंख्यकों के समूह में शामिल किया गया था। यह बात और है कि वर्ष 1989 से ही देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम लागू है। कुल मिलाकर इस प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से पूरी तरह से अलगाववाद को पुख्ता और मजबूत करने का प्रयास किया गया।
यह विधेयक इतना विभेदकारी था कि हिन्दू केवल क्षतिपूर्ति के लिये दावा कर सकते थे। यदि यह विधेयक पास होकर कानून बन जाता तो न सिर्फ इससे साम्प्रदायिक हिंसा करने वालो को संरक्षण मिलता बल्कि इसके बहाने हिन्दू समाज, हिन्दू संगठन और हिन्दू नेताओं को कुचले जाने की भरपूर आशंका थी। विडम्बना यह कि यह प्रस्तावित बिल हर्ष मंदर, तीस्ता सीतलवाड़, सैयद शहाबुद्दीन और शबनम हाशमी जैसे घोर हिन्दू विरोधियों द्वारा ड्राफ्ट किया गया था। इस प्रस्तावित विधेयक में और बातें तो अपनी जगह पर थीं, पर इसमें अल्पसंख्यक वर्ग के किसी व्यक्ति के आपराधिक या राष्ट्र विरोधी कृत्यों का शाब्दिक विरोध भी अपराध माना जाता। इस तरह से बांग्लादेशी घुसपैठियों के निष्कासन की मांग करना, धर्मान्तरण पर रोक लगाने की मांग, कामन सिविल कोड लागू करने की मांग करना अपराधों की श्रेणी में आ जाता। भारतीय संविधान का मूल सिद्धान्त यह है कि किसी भी आरोपी को तब तक निर्दोष माना जायेगा, जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाये लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक में आरोपी तब तक दोषी माना जाता, जब तक वह अपने आप को निर्दोष न सिद्ध कर दे। इसमें सिर्फ आरोप लगा देने पर से पुलिस अधिकारी वगैर किसी छानबीन के या जाँच-पड़ताल के हिन्दू को जेल भेज देता।
वस्तुतः यह प्रस्तावित विधेयक उस सोच का विस्तार था जिसके तहत राहुल गांधी को लश्करे तोयबा और जेहादी आतंकवाद की तुलना में हिन्दू आतंकवाद ज्यादा खतरनाक दिखाई देता था। यह बात और है कि हिन्दुओं के व्यापक राष्ट्रव्यापी विरोध के चलते यह प्रस्तावित विधेयक पास नहीं हो सका वरना यदि यह विधेयक पास हो जाता तो हिन्दुओं का भारत में जीना ही दूभर हो जाता। अलगवावादी, जेहादी मानसिकता वाले और राष्ट्र विरोधी तत्व खुलकर हिन्दू समाज और देश के विरूद्ध खुला अभियान छेड़ देते। इस तरह से हिन्दू अपने ही देश में न सिर्फ द्वितीय श्रेणी के नागरिक हो जाते बल्कि उनके अस्तित्व पर भी खतरे की घंटी बज जाती लेकिन उस वक्त उक्त प्रस्तावित विधेयक को किसी कारणवश कांग्रेस पार्टी कानून का रूप न दे पाई हो, लेकिन उसकी सोच तो मूल रूप से वहीं अंग्रेजो वाली ही है कि ‘बांटो और राज करो।’
उसी धारा को आगे बढ़ाते हुये कर्नाटक की कांग्रेस सरकार एक ऐसा कानून लाने जा रही है जिससे मुस्लिम तुष्टिकरण का लक्ष्य साधने के साथ हिन्दू समाज भी विभाजित हो सके। इस कानून का नाम ‘रोहित वेमूला एक्ट 2025’ रखा गया है। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ावर्ग और मुस्लिमों को शामिल किया गया है। साम्प्रदायिक एवं लांछित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 की तुलना में जहाँ उस प्रस्तावित विधेयक में अन्य पिछड़ा वर्ग नहीं था, वहीं कर्नाटक सरकार के ‘रोहित वेमूला एक्ट’ में तुष्टिकरण की नीति को विस्तार देते हुये अन्य पिछड़ा वर्ग को भी रखा गया है। यह कानून शिक्षण संस्थानों में लागू किया जायेगा।
प्रस्तावित कानून के अनुसार यदि इन वर्गों का कोई विद्यार्थी किसी सामान्य वर्ग का विद्यार्थी, शिक्षक या संस्थान से जुड़े किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध शिकायत करता है तो उस अपराध को संज्ञेय और गैर-जमानती माना जायेगा जिसमें अधिकतम तीन वर्ष की सजा का प्रावधान है। यदि कोई शैक्षणिक संस्था ऐसी शिकायतें प्राप्त होने पर कार्यवाही नहीं करती तो उन पर भी सख्त कार्यवाही करने का प्रावधान है और राज्य सरकार उसकी आर्थिक सहायता तक बंद कर देगी। किसी संस्थान के विरूद्ध उपरोक्त कानून के उल्लंघन के विरूद्ध बार-बार शिकायते मिलती हैं तो उसकी मान्यता भी रद्द की जा सकती है। इतना ही नहीं, संस्था प्रमुख को एक वर्ष के कारावास और दस हजार रूपये तक जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। खास बात यह कि यदि न्यायालय किसी आरोपी को दोषी ठहराता है तो राज्य सरकार शिकायतकर्ता को 1 लाख रूपये की आर्थिक सहायता भी देगी।
अब यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति निवारण एक्ट बहुत पहले से लागू है लेकिन इस प्रस्तावित एक्ट में एस.सी.एस.टी. के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग एवं मुस्लिम को भी शामिल किया गया है। इसका निहितार्थ यह कि यदि कोई मुस्लिम छात्र, सवर्ण जाति के छात्रों, शिक्षकों एवं संस्थानों से जुड़े व्यक्ति के विरूद्ध इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत शिकायत करेगा तो भले ही वह जातीय भेद-भाव से जुड़ी न हो तो उस पर भी संज्ञेय और गैर जमानती धाराएं लगाई जा सकेंगी और शिकायतकर्ता को शासन की ओर से 1 लाख रूपये तक की आर्थिक सहायता भी प्राप्त होगी। अब यह कौन नही जानता कि भारत में जहाँ तक दंगों का इतिहास है, वहाँ अमूमन मुस्लिम ही आक्रमणकारी पाये जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से तो वह हिन्दुओं के त्यौहारों और उनके जुलूसों जैसे रामनवमी, हनुमान जयंती, महाशिवरात्रि और बसंत पंचमी के जुलूसों पर पथराव, तलवारबाजी और कई तरह की हिंसा करते देखते मिल जाते हैं पर कर्नाटक के सरकार का रवैया वही है कि हिन्दू आक्रामक है और मुस्लिम पीड़ित। बड़ी सच्चाई यह भी कि तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के तहत कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल करने का अभियान लम्बे वक्त से चला रही है ताकि उन्हें संविधान की मंशा के विपरीत आरक्षण का लाभ मिल सके। ‘रोहित वेमूला ऐक्ट’ के पीछे भी यही प्रयास दिखाई देता है। गौर करने की बात यह भी है कि इस प्रस्तावित कानून का नाम एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर रखा जा रहा है जो ओबीसी समुदाय का था लेकिन अपने को अनुसूचित जाति का बताकर फर्जी प्रमाण-पत्र के आधार पर छात्रवृत्ति प्राप्त की और तत्पश्चात कैम्पस में जातीय द्वेष फैलाने में अहम भूमिका निभाई। उसके भाषणों और वक्तव्यों में सामान्य वर्ग निशाने पर होता था। असलियत में जब उसकी जातीय पहचान सामने आने लगी, तब उसने आत्महत्या कर लिया। ऐसे व्यक्ति के नाम पर कोई कानून बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता पर कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य जब एकमात्र किसी भी कीमत पर राजनीतिक फायदा पाने की प्रवृत्ति हो तब उससे और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है ?
कहने को तो रोहित वेमूला आम्बेडकर स्टूडेंट यूनियन से जुड़ा था पर उसकी विचारधारा वामपंथी और इस्लामी विचारधारा से प्रेरित थी क्योंकि जहाँ तक डा अम्बेडकर का सवाल है, इस्लाम और मुसलमानों के प्रति उनका रवैया एकदम स्पष्ट था। सरदार पटेल के अलावा वह देश के ऐसे दूसरे राजनेता थे जो 1947 में देश के विभाजन को लेकर हिन्दू-मुस्लिम आबादी की अदला-बदली के पक्षधर थे क्योंकि उन्हें पता था कि पाकिस्तान में जो हिन्दू बचे हैं , आगे चलकर उनका जीवन नरक हो जायेगा तो भारत में बचे मुसलमान राष्ट्र की मुख्य धारा में कभी भी शामिल नहीं होंगे लेकिन इस्लामपरस्त और हिन्दू विरोधी मानसिकता के चलते रोहित वेमूला ने अगस्त 2015 में कुख्यात आतंकवादी याकूब मेनन को फाँसी दिये जाने के विरोध में हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में एक सेमिनार आयोजित किया और उसके समर्थन में जुलूस निकाला। उल्लेखनीय है कि याकूब मेनन 1993 में मुम्बई में हुये सीरियल ब्लास्ट का एक प्रमुख सूत्रधार था जिसमें 257 लोग मारे गये थे और सैकड़ों घायल हुये थे। इस में मारे गये लोगों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल थे पर रोहित वेमूला जैसे लोग पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने के बजाय आतंकवादियों के पक्ष में खड़े थे। तभी तो ऐसे लोग कांग्रेस पार्टी के लिये आदर्श बने हुये हैं।
कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह विधेयक उच्च शिक्षण संस्थानों में एस.सी., एस.टी. छात्रों के साथ भेदभाव को रोकने के लिये लाया जा रहा है पर असलियत में कांग्रेस पार्टी अपने खिसकते जनाधार को फिर से पाने के लिये प्यासी मछली की तरह छटपटा रही है। इसके लिये जाति और सम्प्रदाय आधारित राजनीति ही उसकी दृष्टि में येन केन प्रकारेण सत्ता पाने का एकमात्र उपक्रम रह गया है। वस्तुतः यह प्रस्तावित बिल शैक्षणिक संस्थानों में जातीय विद्वेष फैलाने और उसकी जड़े गहरी करने का काम करेगा। असलियत में यह प्रस्तावित बिल ‘लांक्षित एवं साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम’ की ही दिशा में अगला कदम कहा जा सकता है। गौर करने की बात यह कि हमारे संविधान निर्माता जाति और वर्ग विहीन समाज की कल्पना करते थे पर संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस पार्टी बराबर संविधान की भावना के उलट काम कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश का प्रबुद्ध राष्ट्रीय समाज कांग्रेस पार्टी के ऐसे कृत्यों को लेकर उसे जरूर सबक सिखायेगा।
वीरेन्द्र सिंह परिहार