राजनीति

राजनीति के हमाम में सारे ‘ नंग-धड़ंग संग हैं ’

-आलोक कुमार-

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आजादी के 67 सालों पश्चात हमारे देश में कितना कुछ बदल गया है, समाज, विचार, रहन-सहन, आबोहवा, राजनीति सभी में बदलाव आया है। बस, नहीं बदला, तो हमारे जनप्रतिनिधियों का रवैया या यूँ कहें कि हमारे जनप्रतिनिधि बदलना ही नहीं चाहते। उनका स्वहित आज भी उतना ही सर्वोपरि  है,जितना पहले हुआ करता था। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले उनका कुछ मंतव्य देशहित में भी होता था, लेकिन आज उसमें देशहित का कोई स्थान नहीं  है। वैसे भी आज कल एक कथन काफी प्रचलित है “राजनीति के हमाम में तमाम राजनीतिक दल नंगे हैं” और जो काफी हद तक सही भी है, क्योंकि जब भी सियासतदारों पर खतरा पैदा होता है वे पूर्वाग्रहों व विचारधाराओं के परे ‘एक’ ही होते रहे हैं। चाहे वह राजनेताओं को प्राप्त होने वाली सुविधाओं की बात हो या देश की सर्वोच्च न्यायालय के अहम आदेशों के पालन का मसला हो। गौरतलब है कि अपराधियों के चुनाव लड़ने पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक और राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में लाने के केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश के खिलाफ पूरी सियासत एकजुट हो गई थी। संसद के सत्र में इन दोनों फैसलों के खिलाफ विधेयक लाकर उन्हें रद्द करने की तैयारी में पूरा राजनीतिक तबका एकजुट नजर आया था।

स्पष्ट है कि तमाम दावों के बावजूद भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से देश का राजनीतिक तबका खुद को मुक्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। राजनीतिक तबके ने जिस कानून को जनता के हाथ में ताकत देने का सबसे बड़ा हथियार बताते हुए राजनीतिक शुचिता की दुहाई दी थी, वह सदैव उसी से डरी-सहमी हुई दिखती आई है । इसको समझने के लिए ज्यादा पूर्व में जाने की जरूरत नहीं है ,यूपीए की केंद्रीय कैबिनेट ने तय किया था कि राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे में आने से रोकने के लिए इस कानून में संशोधन किया जाएगा। सरकार इस मामले पर सभी पार्टियों की राय भी ले चुकी थी , उस समय के मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने भी इस कानून में संशोधन के सरकार के प्रस्ताव को संसद में समर्थन देने का भरोसा दिलाया था । इस मामले में लगभग सभी राजनीतिक दलों ने देश के सामने ऐसा दिखावा किया था कि इस मसले पर सबों की राय एक है। उस समय एक मामले की सुनवाई के दौरान केंद्रीय सूचना आयोग ने तय किया था कि सभी छह पार्टियां जिन्हें चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता मिली हुई है, वे इस कानून की परिधि में आते हैं।

ज्ञातव्य है कि कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, बसपा और राकांपा राष्ट्रीय दल हैं। इनमें सिर्फ भाकपा ने इस आदेश का सम्मान करते हुए आरटीआई आवेदन के जवाब में सूचना मुहैया करवाई थी और पार्टी में लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किया था । बाकियों ने इस मामले में दलील दी थी  कि वे सार्वजनिक संस्थाएं नहीं हैं लिहाजा वे आरटीआई के दायरे में नहीं आते हैं। ज़्यादातर राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं का कहना था कि दलों की जिम्मेदारी नीति को लेकर आम लोगों के प्रति है न कि किसी संस्था के प्रति। कुछ का कहना था कि जब राजनीतिक दलों के कामकाज की निगरानी के लिए चुनाव आयोग है तब नई संस्था का क्या औचित्य ? हालांकि राजनीतिक दलों के कुतर्कों से देश की जनता सहमत नहीं थी और ना आज है किन्तु उनकी इस धूर्तता पर किसी को ख़ास अचरज भी नहीं हुआ था । आजादी के साढ़े छह दशकों से ऊपर के काल में राजनीतिक तबके के विरोधाभासी चाल और चरित्र से जनता अवगत व अभ्यस्त हो चुकी है l

वहीं, दूसरी ओर जेल से चुनाव लड़ने पर रोक और दो साल से ज्यादा सजा होने पर सदन की सदस्यता स्वत: खत्म होने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ भी राजनीतिक तबके में रोष ही दिखा था। न्यायालय के फैसले के पश्चात लोकसभा सत्र के सुचारु संचालन के उद्देश्य से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में राजनीति का अपराधीकरण रोकने के संदर्भ में आया यह फैसला ही चर्चा के केंद्र में रहा था । सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से असहमति जताई थी। जेल में बंद नेताओं को चुनाव नहीं लड़ने दिए जाने के राजनीतिक दुरुपयोग की चिंता सबको खूब सताई। कांग्रेस, भाजपा, वाम दल, सपा, राजद समेत सभी राजनीतिक दलों ने चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से जल्द से जल्द जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन संबंधी विधेयक लाने की मांग की थी । सभी दलों में इन निर्णयों को लेकर अपनी –अपनी चिंता  प्रकट के थी और सबने इस स्थिति का समाधान व संसद की सर्वोच्चता बरकरार रखने की मांग की थी । संसद और विधायिका की सर्वोच्चता कायम रखने के लिए विधेयक लाने से भी किसी ने इंकार नहीं किया था और इसके लिए संसद के सत्र का समय बढ़ाए जाने के लिए भी सभी इच्छुक थे । आकंड़े बताते हैं कि देश में लगभग ३० प्रतिशत नेता दागी हैं। लोकसभा के ५४३ सांसदों में से १६२ (३० प्रतिशत)सांसदों पर आपराधिक केस चल रहे हैं जिसमें से ७६ यानी १४ प्रतिशत पर गंभीर मामलों के तहत आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। राज्यसभा की बात करें तो २३२ सांसदों में से ४० यानी १७ प्रतिशत पर आपराधिक केस दर्ज हैं जिनमें से १६ यानी ७ प्रतिशत पर गंभीर मामलों के तहत आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। वहीं देश के ४०३२ विधायकों में से १२५८ यानी ३१ प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक केस दर्ज हैं जिनमें से १५ प्रतिशत पर गंभीर मामलों के तहत आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। निर्दलीय जीतने वाले ४२ प्रतिशत सांसदों/विधायकों पर आपराधिक केस दर्ज हैं। नेताओं की इस पर अपनी दलील थी उनका मानना था कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से संसद के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग जाएगा । यहाँ चंद प्रश्न स्वतः ही उभरते हैं कि क्या संसद की सर्वोच्चता कानून से ऊपर है ?क्या जनप्रतिनिधियों के द्वारा स्वहित की पूर्ति हेतू सर्वोच्च न्यायालय को पंगु करने का अघोषित निर्णय लिया जाना कहीं से भी देशहित में था ?

पिछले कुछ सालों में उजागर हुए तमाम घोटालों-घपलों के पीछे सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता को नकारा नहीं जा सकता। यहाँ तक कि जिन नेताओं को कभी सज़ा नहीं होती थी, सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें सज़ा देकर देश के जनमानस में कानून के प्रति आदर का भाव पुनः जागृत किया था। ऐसे में अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर राजनीतिक तबका यदि न्यायालय के जनहितैषी फैसलों को बहुमत के आधार पर बदलते रहने की मंशा का परित्याग नहीं करती है तो क्या यह देश की जनता के साथ न्याय होगा ?