राजनीति

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन में शामिल दलों की ओछी हरकतें अंततोगत्वा उन्हीं पर पड़ी भरी, जानिए कैसे?

कमलेश पांडेय

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजद, कांग्रेस, वीआईपी और उनके सहयोगी वामपंथी दलों की हार के कई प्रमुख कारण हैं। चूंकि इनके नेताओं व उनके खासमखास लोगों ने जानबूझकर एक गुप्त रणनीति के तहत एक दूसरे की बढ़त को रोकने के लिए कुछ ओछी चालें चलीं जो अब खुद उनपर ही भारी पड़ चुकी हैं जिनका विस्तृत विश्लेषण अग्रांकित है:-

पहला, यादवों को अत्यधिक टिकट देने की रणनीति:

राजद ने यादव बहुल सीटों पर अधिकतर यादव उम्मीदवार उतारे, जिससे एनडीए ने बड़ी संख्या में यादव बहुल सीटें जीत लीं; जबकि राजद का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा। यह यादव वोट के बंटाव का नतीजा और एनडीए के मजबूत अभियान का फलक रहा। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि खेतिहर और दुधारू जाति यादवों में बड़े पैमाने पर राम-कृष्ण भक्त पाए जाते हैं जो अब हिंदुत्व के प्रबल पक्षधर के रूप में गोलबंद हुए हैं। इससे यूपी-बिहार में राष्ट्रवादी समाजवाद को मजबूती मिली है, जबकि सेक्युलर समाजवाद धराशायी हो चुका है।

दूसरा, ईबीसी और सहयोगी पार्टियों की नाकामी:

महागठबंधन की सहयोगी पार्टियां खासकर कांग्रेस का संगठन कमजोर और टिकट वितरण गलत था। यही वजह है कि कांग्रेस को महज छह सीट मिली, क्योंकि पार्टी के अंदर विद्रोह और असंतोष दिखा और बूथ स्तर पर उनकी उपस्थिति भी न्यूनतम रही। वहीं, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का चुनाव प्रचार भी डिप्लोमैटिक नहीं समझा गया। वहीं, वामपंथियों की समाप्त हो रही विश्वसनीयता और सियासी प्रासंगिकता से भी महागठबंधन का मजबूत सहयोगी राजद-कांग्रेस गच्चा खा गई।

तीसरा, मुस्लिम तुष्टिकरण का नकारात्मक असर:

महागठबंधन की मुस्लिम समर्थक छवि ने भी असर डाला, जिससे सीमांचल तक में हार मिली। राजद और कांग्रेस आजतक यह नहीं समझ पाए कि वो जितनी मुस्लिम सरपरस्ती दिखाएंगे, उतना ज्यादा हिन्दू समाज गोलबंद होगा। ऐसा इसलिए कि जहां पर मुस्लिम बहुतायत में हैं, वहां पर सभी हिंदुओं की नाक में दम किये रहते हैं। इसलिए पीएम नरेंद्र मोदी ने नारा दिया था कि एक हैं तो सेफ हैं। जबकि इससे पहले यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने साफ कहा था कि बंटोगे तो कटोगे। इससे हिन्दू जनमानस गोलबंद होता जा रहा है। कश्मीर हिंसा, पाकिस्तान का षड्यंत्र और बंगलादेश का नया पैंतरा ग्रेटर बंगलादेश से भी हिंदुओं की एकजुटता बढ़ रही है। 

चतुर्थ, राजद के “जंगलराज” की छवि से बिहार के मतदाता भयभीत:

 बिहार में 2015 में नीतीश कुमार की मदद से और 2020 में पढ़ाई, कमाई और दवाई का वायदा करके राजद ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली थी। वह बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी। इसलिए उसने कांग्रेस को भी झुका दिया और तेजस्वी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मनवा लिया। इससे परेशान बीजेपी ने राजद की जंगलराज की छवि पुनः गढ़कर राजद समेत विपक्ष को कमजोर किया। क्योंकि बीजेपी को इस बात का डर था कि मजबूत राजद या विपक्ष से जदयू के छिटकने का भय पूरे पांच साल बना रहेगा। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में जो ‘राजद द्वारा कांग्रेस की कनपट्टी पर कट्टा सटाकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मनवाने की बात’ कही, उसपर लोगों को सहसा विश्वास हो गया। क्योंकि 1990-2005 की घटनाएं 40 प्लस के लोगों के दिलोदिमाग में तरोताजा हो गईं और उन्होंने अपने युवाओं-महिलाओं के मूड को बदल दिया।

पंचम, महिलाओं और युवाओं का समर्थन एनडीए की ओर:

इस चुनाव में महिलाओं ने ज्यादा मतदान किया, क्योंकि उनके लिए नीतीश कुमार द्वारा विगत 20 वर्षों में कई महिला कल्याण की योजनाएं ब्रेक के बाद चलाई गई थीं जो बेहद प्रभावी रहीं। इससे नीतीश कुमार और बीजेपी दोनों को फायदा हुआ, क्योंकि सभी योजनाएं एनडीए सरकार के कार्यकाल में चलाई गई थीं। महिलाओं को त्रिस्तरीय पंचायती राज निकायों में 50 आरक्षण, स्कूली लड़कियों को साइकिल व पोशाक वितरण, जीविका दीदीयों को 10,000-10,000 की मदद, आंगनबाड़ी सेविकाओं और आशा दीदीयों के मानदेय बढ़ाने की बातों से महिलाओं का उत्साह एनडीए के पक्ष में बढ़ा, जिससे महागठबंधन को बहुत घाटा हो गया।

छठा, कांग्रेस की कमजोर संगठनात्मक स्थिति और गलत रणनीति:

कांग्रेस के टिकट वितरण में दलबदलुओं को जगह देना और खराब चुनावी प्रबंधन ने पार्टी की छवि कमजोर की और संगठनात्मक संकट पैदा किया, वहीं, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की प्रचार रणनीति भी सफल नहीं हुई।

सातवां, एनडीए का मजबूत संगठन और प्रभावी राजनीतिक संदेश:

एनडीए ने झारखंड और मध्यम वर्ग के मतदाताओं को भी सफलतापूर्वक जोड़कर भारी बहुमत हासिल किया।

आठवां, गठबंधन का समन्वय बिगड़ना:

राजद और कांग्रेस के बीच सीट समन्वय में विवाद हुआ, जिससे लगभग एक दर्जन सीटों पर दोस्ताना लड़ाई लड़ी गई। इससे पूरी चुनावी लड़ाई ही कमजोर पड़ी। जिस वीआईपी के मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, उनका खाता तक नहीं खुला जबकि मुस्लिम मतदाताओं में इससे नाराजगी बढ़ी, क्योंकि उनके किसी कद्दावर नेता को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया।

इस प्रकार राजद, कांग्रेस, वीआईपी और सहयोगी दलों की हार का असली कारण उनका कमजोर संगठन, गलत रणनीति, जातिगत समीकरणों में असंतुलन, महागठबंधन में तालमेल की कमी, और एनडीए के मजबूत चुनावी अभियान थे। बिहार के मतदाताओं ने महिला-युवा हित और शासन स्थायित्व को ज्यादा महत्व दिया।

नवम, दूसरे चरण के मतदान की पूर्व संध्या पर लाल किला दिल्ली की बम ब्लास्ट की घटना से उपजी दहशत की भावना:

11 नवम्बर को होने वाले दूसरे चरण के मतदान की पूर्व संध्या पर यानी 10 नवम्बर की शाम को दिल्ली के लाल किला मेट्रो गेट नम्बर 1 के समीप की बम ब्लास्ट की आतंकी घटना से दिल्ली समेत पूरे देश में उपजी दहशत की भावना से आतंकियों के कथित सहयोगी समझे जाने वाले विपक्षी दलों की जनसाख को बट्टा लगा क्योंकि रात से मतदान वाले दिन तक टीवी पर इसी आतंकवादी घटना से जुड़ी लोमहर्षक खबरें चलती रहीं, जिससे राष्ट्रवादी व भाजपा समर्थक मतदाता एकजुट हुए। इससे एनडीए को जबरदस्त लाभ मिलने की बातें चर्चा में हैं। 

सच कहूं तो बिहार में महागठबंधन के डूबने की जिम्मेदारी दोनों प्रमुख दलों – राजद और कांग्रेस – पर साझा रूप से मानी जा रही है, लेकिन दोनों की कमजोरियों और संघर्षों की मद्देनजर अलग-अलग कारण भी सामने आए हैं।

पहला, राजद की जिम्मेदारी:

राजद में परिवारिक विवाद और नेतृत्व संकट (तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव के बीच संघर्ष) ने पार्टी की अंदरूनी राजनीति को कमजोर किया। साथ ही 

तेजस्वी यादव के नेतृत्व को लेकर भ्रम और जनता के बीच उनका विश्वास मजबूत न होना महागठबंधन के समग्र प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव डाल गया। लालू परिवार के विवाद, टिकट वितरण और संगठन की कमजोरियों ने भी राजद को नुकसान पहुंचाया। राजद का मुस्लिम-यादव वोट बैंक ओवैसी के सक्रिय होने से कमजोर हुआ।

दूसरा, कांग्रेस की भूमिका:

कांग्रेस का संगठन बिहार में कमजोर है, जिससे वह वोट बैंक मजबूत करने में असमर्थ रही। वहीं, सीट बंटवारे और गठबंधन में तालमेल की कमी ने कांग्रेस और राजद के बीच टकराव बढ़ाया, जिससे महागठबंधन कमजोर हुआ। वहीं, कांग्रेस के अंदर भी कई नेताओं में असहमति और रणनीतिक गलतियों से विपक्ष कमजोर पड़ा। कांग्रेस ने महागठबंधन के लिए कोई ठोस नैरेटिव या नई राजनीति नहीं गढ़ पाई।

इस प्रकार, राजद के अंदरूनी विवाद और कमजोर नेतृत्व के साथ-साथ कांग्रेस की कमजोर संगठनात्मक क्षमता और गठबंधन में मतभेद, दोनों ने मिलकर महागठबंधन के टूटने और बिहार चुनाव में उसकी हार के लिए जिम्मेदारी साझा की है। राजनीतिक विशेषज्ञ इसे महागठबंधन की असमंजसपूर्ण रणनीति और नेतृत्व की बड़ी कमी मानते हैं, जो एनडीए के मजबूत और एकजुट प्रदर्शन के सामने फिसल गई।

बिहार में महागठबंधन के हारने के सियासी मायने बहुत गंभीर और व्यापक हैं। इस महागठबंधन के टूटने का भी खतरा बढ़ गया है, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी तंज कसा है। इसका मतलब राज्य की राजनीति में बड़े बदलाव को दर्शाता है। जहाँ एनडीए ने बड़ी जीत दर्ज कर विपक्षी गठबंधन को काफी कमजोर कर दिया है। वहीं, महागठबंधन के पिछड़ने से आरजेडी और कांग्रेस में सीट बंटवारे और नेतृत्व को लेकर टकराव सामने आया, जिससे चुनाव में उनका प्रदर्शन खराब रहा। इसके कारण एनडीए ने 2025 के विधानसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत हासिल किया, खासकर भाजपा की बढ़त स्पष्ट रही। 

महागठबंधन के टूटने के बाद बिहार में राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है: पहला, एनडीए ने महिला मतदाताओं और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का समर्थन हासिल कर अपनी पकड़ मजबूत की। दूसरा, महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी गंभीर रूप से हारी और उसकी मुसलमान समर्थक छवि ने भी नुकसान पहुंचाया। तीसरा, बिहार की जातीय राजनीति में बदलाव आया है, कुछ जगह जातीय वोट बैंक टूटे हैं और युवा मतदाताओं का रुझान भी एनडीए की ओर झुका। चतुर्थ, महागठबंधन के खत्म होने से राज्य में विपक्ष कमजोर हुआ है, जिससे एनडीए की सत्तास्थिरता और मजबूत हुई है।

देखा जाए तो इसका व्यापक असर न केवल बिहार की राजनीति पर पड़ेगा, बल्कि पड़ोसी राज्यों जैसे झारखंड में भी गठबंधन समीकरण प्रभावित होंगे। पश्चिम बंगाल व उत्तरप्रदेश पर भी इसके गहरे असर होंगे। बिहार में महागठबंधन का टूटना सामाजिक और राजनीतिक गठजोड़ों में बदलाव लाएगा, जिससे अगले वर्षों में राजनीतिक समीकरण नए सिरे से बनेगा। संक्षेप में, महागठबंधन के पिछड़ने का मतलब है बिहार में एनडीए का सुप्रीमो बनना, विपक्ष के लिए नई चुनौतियां, और राजनीतिक समीकरण में बड़े स्तर पर परिवर्तन, जो आम चुनाव 2029 के पहले अस्तित्व में आ सकता है।

कमलेश पांडेय