“शिक्षा, संस्कार और समाज की जिम्मेदारी : बदलते छात्र-शिक्षक संबंध और सही दिशा की तलाश”
आज शिक्षा केवल अंक और नौकरी तक सीमित हो गई है। नैतिक मूल्य और संस्कार बच्चों की प्राथमिकता से गायब होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप शिक्षक-छात्र संबंधों में खटास बढ़ रही है और अनुशासनहीनता सामने आ रही है। यदि परिवार, समाज, शिक्षक और प्रशासन मिलकर सही कदम नहीं उठाएँगे तो आने वाली पीढ़ी गलत दिशा में बढ़ सकती है। शिक्षा को केवल ज्ञान का माध्यम नहीं बल्कि चरित्र निर्माण और जीवन-मूल्य का आधार बनाना होगा, तभी हम कह पाएंगे कि हमारे छात्र सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
– प्रियंका सौरभ
समाज का दर्पण कहलाने वाला विद्यालय आज एक गहरी चिंता का विषय बन गया है। जहाँ पहले शिक्षा का अर्थ केवल ज्ञान नहीं बल्कि संस्कार, अनुशासन और नैतिकता था, वहीं अब कुछ घटनाएँ यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हमारे छात्र आखिर किस दिशा में जा रहे हैं। हाल ही में हरियाणा के भिवानी जिले के ढाणा लाडनपुर गाँव के राजकीय सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हुई घटना, जहाँ एक छात्र ने अपने ही शिक्षक पर हमला कर दिया, यह सवाल और गंभीर हो जाता है। यह घटना सिर्फ एक शिक्षक और एक छात्र के बीच का विवाद नहीं बल्कि पूरे शिक्षा-तंत्र और समाज के लिए चेतावनी है।
भारतीय परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान दिया गया है – गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः। लेकिन आज की वास्तविकता यह है कि कई जगहों पर शिक्षक-छात्र संबंधों में खटास बढ़ती जा रही है। पहले शिक्षक की डांट को भी विद्यार्थी प्यार और मार्गदर्शन मानते थे, आज वही डांट अपमान या प्रताड़ना लगती है। मोबाइल और इंटरनेट ने छात्रों को स्वतंत्रता तो दी है, लेकिन साथ ही उनमें अहंकार और अनुशासनहीनता भी बढ़ाई है।
किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व की नींव घर पर रखी जाती है। अगर घर में अनुशासन, संस्कार और मर्यादा का माहौल होगा तो बच्चा वही सीखेगा। लेकिन आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में माता-पिता बच्चों को समय नहीं दे पा रहे। टेलीविज़न, मोबाइल और सोशल मीडिया बच्चों के ‘गुरु’ बन गए हैं। नशे और हिंसा जैसी प्रवृत्तियों तक छात्रों की पहुँच आसान हो चुकी है। नतीजा यह कि जब शिक्षक बच्चे को सही राह दिखाने की कोशिश करता है, तो छात्र उसे रोक-टोक या बंधन मानकर विद्रोह कर बैठता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा संकट यह है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी और अंक तक सीमित रह गया है। नैतिक शिक्षा, जीवन मूल्य और चरित्र निर्माण पर जोर लगभग समाप्त हो गया है। बच्चों को ‘क्या बनना है’ यह तो सिखाया जा रहा है, लेकिन ‘कैसा इंसान बनना है’ यह कहीं खो गया है। प्रतियोगिता की दौड़ में छात्रों पर दबाव इतना बढ़ गया है कि उनमें सहनशीलता और धैर्य की जगह अधीरता और आक्रामकता ने ले ली है।
एक छात्र का अपने शिक्षक पर हमला करना केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं है, बल्कि यह पूरी शिक्षा प्रणाली और समाज के लिए शर्मनाक है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। शिक्षक छात्रों को अनुशासित करने से कतराएँगे, विद्यालय की गरिमा को आघात पहुँचेगा और समाज में गलत संदेश जाएगा कि यदि छात्र ही शिक्षक का आदर नहीं करेंगे तो समाज में वरिष्ठों और बड़ों के प्रति सम्मान कैसे बना रहेगा।
इस तरह की घटनाएँ केवल विद्यालय स्तर की समस्या नहीं हैं, बल्कि यह कानून-व्यवस्था से भी जुड़ी हैं। ऐसे मामलों में तुरंत और सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि छात्र और अभिभावक दोनों यह समझें कि अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसे बच्चों के पुनर्वास और परामर्श की भी व्यवस्था हो।
अगर हमें छात्रों को सही दिशा में ले जाना है तो केवल सजा या डर से यह संभव नहीं होगा। इसके लिए बहुआयामी कदम उठाने होंगे। परिवार को बच्चों के साथ संवाद बढ़ाना होगा और घर में अनुशासन और संस्कार का वातावरण बनाना होगा। शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, मूल्य-आधारित शिक्षा और चरित्र निर्माण की गतिविधियाँ अनिवार्य की जानी चाहिए। शिक्षक को भी बच्चों की मानसिकता को समझते हुए संवाद की शैली बदलनी होगी। डांट या डर की बजाय समझाना और विश्वास दिलाना होगा। विद्यालयों में काउंसलिंग कक्ष अनिवार्य होने चाहिए और आक्रामक प्रवृत्ति वाले बच्चों को समय पर मनोवैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए। समाज और मीडिया को भी अपनी भूमिका निभानी होगी, हिंसक और नकारात्मक सामग्री के प्रभाव को कम करना होगा और सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करने होंगे।
“छात्र किस दिशा में जा रहे हैं?” यह सवाल केवल एक घटना से उपजा हुआ प्रश्न नहीं है, बल्कि पूरे समाज की स्थिति पर एक गहरा चिंतन है। यदि आज ही हम बच्चों को अनुशासन, सम्मान और संस्कार की सही राह नहीं दिखाएंगे तो आने वाली पीढ़ी में शिक्षक-छात्र संबंध और समाज की संरचना दोनों कमजोर हो जाएँगे। समाधान परिवार, विद्यालय, समाज और प्रशासन—सभी के संयुक्त प्रयास में छिपा है। शिक्षा केवल डिग्री दिलाने का माध्यम न होकर चरित्र निर्माण और जीवन मूल्य का संस्कार बने, तभी हम कह पाएंगे कि हमारे छात्र सही दिशा में जा रहे हैं।
डॉ. प्रियंका सौरभ