वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बढ़ता कर्ज का बोझ

world economyजनवरी के आखिरी सप्ताह में ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ की दावोस में बैठक हुई और जनवरी के आखिरी सप्ताह में ही, इस बैठक से ठीक पहले ‘ऑक्सफेम’ रिपोर्ट जारी हुई। ‘फोर्ब्स’ ने भी दुनिया में 1,645 बिलेनियरों के होने की जानकारी दी। ‘ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स’ के आंकड़ों के अनुसार, ‘दुनिया के 400 सबसे धनवान लोगों की संयुक्त सम्पत्ति में पिछले साल, 2014 में, 92 बिलियन डॉलर का इजाफा हुआ है, और अब उनकी कुल संयुक्त सम्पत्ति 4.1 ट्रिलियन डॉलर हो गई है।’ ‘ऑक्सफेम’ यह जानकारी देता है, कि साल 2014 में दुनिया के सबसे धनवान 1 प्रतिशत लोगों के कब्जे में 48 प्रतिशत वैश्विक सम्पत्ति है, और 2 प्रतिशत लोगों के पास 87 प्रतिशत वैश्विक सम्पत्ति है। इस तरह 80 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 5.5 प्रतिशत वैश्विक सम्पत्ति है, जो वैश्विक व्यवस्था के लिये खतरा और चेतावनी है।
बढ़ती हुई आर्थिक असमानता और पूंजी का निजी क्षेत्रों में संकुचन मौजूदा आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना को विस्फोटक स्थितियों के उस मुहाने पर पहुंचा चुकी है, जहां से वापस होने की राहें बंद हैं। हालांकि, ऑक्सफेम की अपेक्षायें उन वित्तीय ताकतों और उनकी वैश्विक वित्तीय संरचना से है, जो इस खतरे के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, कि ‘दुनिया के वित्तीय एवं राजनीतिक अभिजात्य वर्ग को अब इस मुद्दे की अनदेखी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस अनुपात के साथ इसे और जारी रखा नहीं जा सकता। इतनी असमानतायें न सिर्फ आर्थिक विकास को प्रभावित करेंगी, बल्कि इससे छोटे निजी क्षेत्रों पर भी खतरा मंडराने लगेगा।’
वैश्विक वित्तीय ताकतों की सरकारों से साझेदारी का ही परिणाम है, कि ‘ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डवलपमेंट’ की रिपोर्ट के आधार पर दुनिया की 12 प्रतिशत आबादी गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जी रही है। जिनके लिये वित्तीय ताकतों के साथ राज्य की सरकारें जिम्मेदार हैं, जिन्होंने वैश्विक मंदी को भी लाभ कमाने का जरिया और आम जनता के लिये चलाये जाने वाले सामाजिक विकास योजनाओं में भारी कटौती करने तथा उनके सामाजिक एवं वैधानिक अधिकारों के अपहरण का जरिया बना लिया। यही कारण है, कि वैश्विक स्तर पर जन असंतोष और जन प्रदर्शनों का स्वरुप बदल गया। यह प्रतिरोध जन विरोधी पूंजीवादी सरकारों के साथ वैश्विक वित्तीय ताकतों एवं विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी वित्तीय इकाईयों के खिलाफ हो गया है।
राज्य के नियंत्रण से बाहर हुई वित्तीय पूंजी ने सरकारों के ऊपर कर्ज का इतना बोझ बढ़ा दिया है, कि वैश्विक मंदी के बाद से सरकारें दिवालिया होने के खतरों से घिर गयी हैं। साल 2007 में शुरू हुए वित्तीय संकट के बाद से अब तक वैश्विक कर्ज में 57 ट्रिलियन डॉलर का इजाफा हुआ है। मैकिन्जी कंसल्टेंट्स द्वारा कराये गये 47 देशों के शोध का परिणाम है, कि कुल और सकल घरेलू उत्पाद, दोनों ही स्तर पर, 2008 के वित्तीय संकट के बाद से, कर्ज बढ़ा है। परिणामस्वरुप कई देशों में नये किस्म की वित्तीय आपदा पैदा हो गयी है, और कई देशों में सीमित विकास का संकट पैदा हो गया है। इस बीच वर्तमान विश्व व्यवस्था में संभावनाओं से ज्यादा आशंकायें बढ़ी हैं। समाज के बहुसंख्यक वर्ग के जीवन स्तर में भारी गिरावट आयी है।
सरकारों के ऊपर लदा वैश्विक कर्ज साल 2014 के अंत में 199 ट्रिलियन डॉलर पहुंच चुका है और सकल घरेलू उत्पाद पर कर्ज 269 से बढ़ कर 286 प्रतिशत हो गया है। जबकि साल 2007 में वैश्विक कर्ज 142 ट्रिलियन डॉलर और जीडीपी का प्रतिशत 269 प्रतिशत था। रिपोर्ट के अनुसार कर्ज का यह उच्च स्तर आर्थिक विकास पर सवाल खड़ा करता है, कि कई देशों पर आर्थिक संकट का खतरा मंडरा रहा है और यह खतरा अमेरिका और यूरोपीय देशों सहित विकासशील देशों पर मंडरा रहा है। वैश्विक मंदी की शुरुआत ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने से हुई और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की हालत आज भी खराब है। सच यह है कि विश्व व्यापी वित्तीय संकट के टलने की घोषणा मुक्त बाजारवादी देश भले ही कर रहे हैं, लेकिन यह दौर आज भी जारी है। कर्ज का संकट हर एक देश की अर्थव्यवस्था पर भारी है। सरकारें जिसका बोझ अपने देश की आम जनता पर डाल इस संकट से उबरने की नीतियों पर चल रही हैं। जिसका लाभ वित्तीय ताकतों को मिलता है। वो देश जो अपने कर्ज में कटौती करने में सफल हुए हैं, वो हैं, अर्जेन्टीना, रोमानिया, मिस्र, सऊदी अरब और इजरायल। लेकिन यूरोपीय देशों की हालत में सुधार नहीं हुआ है। यूरोपीय संघ कर्ज के संकट से घिर गया है।
सरकारों पर बढ़ते इस कर्ज की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि संकटग्रस्त देशों की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिये यह कर्ज दिया और लिया गया। इस बात की संभावनायें व्यक्त की गयी थी, कि वैश्विक मंदी की चपेट में आये संकटग्रस्त इन देशों की अर्थव्यवस्था में इस कर्ज से विकास की नयी संभावनायें बनेंगी। और यह दौर बीत जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जो हुआ, वह सिर्फ इतना हुआ कि इन देशों की अर्थव्यवस्था के संभलने की संभावनायें खत्म होती चली गयीं और उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया। वित्तीय ताकतों ने सरकारों से साझेदारी कर न सिर्फ भारी मुनाफा कमाया बल्कि उन देशों की सरकारों को वित्तीय गिरफ्त में ले लिया।
आज स्थिति यह है, कि दुनिया के ज्यादातर देशों की सरकारें वैश्विक वित्तीय इकाईयों और संस्थानों की पकड़ में हैं। उनकी अर्थव्यवस्था पर इन इकाईयों का अधिकार हो गया है। वास्तविक अर्थों में सरकारें इतनी कमजोर हो गयी हैं, कि अपने देश की आम जनता का ख्याल तक नहीं रख सकतीं। उनका जन विरोधी होना सरकारों की पहचान बन गयी है। वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बढ़ता कर्ज का बोझ, आर्थिक असमानतायें और पूंजी का निजी क्षेत्रों में संकुचन एक और बड़े संकट को आमंत्रित कर चुका है।
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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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