समाज

भारत: जनसंहारों से चिंतित दुनिया को प्रेरणा देता एक उजला देश


अमरपाल सिंह वर्मा

मौजूदा दौर में समूची दुनिया में लगातार गहराती हिंसा, युद्ध, जातीय संघर्ष और धार्मिक उन्माद चिंता का विषय बने हुए हैं। कई देशों में आम नागरिक सीधे निशाने पर हैं. कहीं घर उजड़ रहे हैं और कहीं सत्ता के संघर्ष में निर्दोष लोग बलि चढ़ रहे हैं। इस वैश्विक चिंता के दौर में हाल ही में जनसंहार की रोकथाम का जिम्मा संभालने के लिए संयुक्त राष्ट्र में नव नियुक्त सलाहकार चलोका बेयानी ने पूरी दुनिया को आगाह करते हुए कहा कि अनेक देशों में टकरावों और युद्धों के दौरान आम लोगों को जानबूझ कर निशाना बनाए जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिससे अत्याचार और गंभीर मानवाधिकार अपराधों का जोखिम तीव्र गति से बढ़ा है। उन्होंने 9 दिसम्बर को जनसंहार के भुक्तभोगियों की समृति व गरिमा और इस अपराध की रोकथाम के अन्तरराष्ट्रीय दिवस के अवसर पर इस बात पर  भी भी चिंता जताई है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के प्रति सम्मान में आ रही गिरावट एक बेहद खतरनाक संकेत है।

 बेयानी की यह चेतावनी एक ओर जहां समस्या की गंभीरता को दर्शाने वाली है वही दूसरी ओर पूरी मानवता के सामने संकट को व्यापक रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन इसी के साथ यह तथ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि भारत को लेकर विश्व के किसी भी मंच पर इस प्रकार की कोई आशंका व्यक्त नहीं की गई है। इस बात पर हर देशवासी को गर्व होना चाहिए कि समूचा विश्व आज भी भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखता है जहां विविध संस्कृतियों, भाषाओं, खान-पान, जाति-धर्मों के बावजूद परस्पर सहयोग, शांति, समन्वय और लोकतांत्रिक संतुलन कायम है।


दुनिया में हमारा देश ही ऐसा है, जहां सैकड़ों भाषाएं, अनेक धर्म, दर्जनों जातियां और अनगिनत सांस्कृतिक धाराएं एक साथ बहती चली आ रही हैं। अनेक विविधताओं के बावजूद हमारा समाज आज भी सह अस्तित्व, भाईचारे और सहयोग की भावना को अपने में समेटे हुए है। हमारे गांवों से लेकर शहरों तक, सबको अलग पहनावा है, अलग बोली है, अपने-अपने त्योहार हैं, अलग खान-पान है फिर भी सब एकजुटता से परिवार, समाज और देश को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं। इसी मजबूत आधार पर देश खड़ा है और यह संदेश देता प्रतीत होता है कि अगर दृढ़ इच्छा हो तो विविधता को भी सबसे बड़ी ताकत बनाया जा सकता है।


कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन हमारे इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय और एक ऐसा धब्बा है जिसे कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अनदेखा नहीं कर सकता। उस दौर की पीड़ा आज भी स्मृतियों में जीवित है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का कत्लेआम भी हमारे लिए सबसे शर्मनाक और पीड़ादायक अध्यायों में से एक है। वह ऐसा दौर था, जब व्यवस्था की विफलता ने निर्दोष लोगों को असहाय बना दिया। लेकिन आज के प्ररिपेक्ष्य में देखें तो अब देश ऐसे किसी भी संगठित खतरे और वैसी खतरनाक परिस्थितियों से बाहर निकल चुका है। वर्तमान में हमें ऐसी किसी त्रासदी की पुनरावृत्ति का डर नहीं सताता है क्योंकि हमारा सामाजिक और संवैधानिक ढांचा पहले से कहीं अधिक सजग, मजबूत और संतुलित बना है। नफरत के नियंत्रण से बाहर हो जाने पर सर्वाधिक शिकार मानवता ही होती है, कश्मीरी पंडितों और सिखों का कत्लेआम इसके उदाहरण हैं पर इनसे सबक लेते हुए देश ने जहां सबक लिया है बल्कि पहले से कहीं अधिक सतर्क, संवेदनशील और संवैधानिक रूप से मजबूत होकर खड़ा है। क्या तेजी से बढ़ते भारत में अब ऐसे अंधकारमय दौर को दोहराए जाने की कल्पना भी संभव है?


इस बात को स्वीकारना होगा कि बीते कुछ सालों में देश के कुछ हिस्सों से हिंसा और सामाजिक तनाव की चंद घटनाएं सामने आई हैं। कहीं भीड़ के हाथों किसी की जान गई है, कहीं धार्मिक पहचान को लेकर आंशिक टकराव की स्थिति बनी है, कहीं उत्तेजक बयान देने वालों ने सामाजिक एकता में विष घोलने का प्रयास किया है मगर ऐसी घटनाओं की संख्या, उनका प्रभाव और उनके फैलाव को हम भारत की विशाल जनंसंख्या और व्यापक सामाजिक ढांचे के संदर्भ में देखें तो यह कोई बड़ी बात नजर नहीं आती। हां, यह जरूर दुर्भाग्यपूर्ण है कि  कुछ ताकतें ऐसे अपवाद स्वरूप मामलों को पूरे देश की छवि खराब करने के लिए उदाहरण के रूप में पेश करने में जुट जाती हैं। सोशल मीडिया, अंतरराष्ट्रीय मंचों और चुनिंदा रिपोर्टों से ऐसा भ्रम फैलाने का प्रयास किया जाता है जैसे देश किसी बड़े मानवीय संकट की ओर बढ़ रहा हो। वे लोग इस वास्तविकता से ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं कि देश का हर नागरिक  शांतिपूर्ण, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी रहा है।


हमारा संविधान इस मामले में देश की ढाल बना हुआ है जो प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार, समान सुरक्षा और समान अवसर की गारंटी देता है। देश में स्वतंत्र न्यायपालिका, सक्रिय मीडिया, मजबूत चुनाव प्रणाली और जागरूक समाज ने  मिलकर एक ऐसा सुरक्षा कवच बना दिया है, जिसके आगे हर संगठित हिंसा, तानाशाही सोच या जनसंहार जैसी अमानवीय प्रवृत्तियां उभर ही नहीं पा रही हैं। अनेक ऐसे उदाहरण हैं, कोई प्रशासनिक या सामाजिक चूक होने पर न्यायपालिका तत्काल हस्तक्षेप करती है। मीडिया सक्रिय होकर आवाज बुलंद  करता है और लोकतांत्रिक संस्थाओं के दबाव समूह सरकार को जवाबदेह बनाते हैं। इसी वजह से हमारा देश जनसंहार जैसी कानूनी परिभाषा वाली प्रत्येक स्थिति से दूर है।


अक्सर जनसंहार से आम लोगों का आशय केवल बड़ी संख्या में लोगों की सामूहिक हत्या ही होता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के हिसाब से इसकी परिभाषा कहीं अधिक व्यापक है। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार किसी राष्ट्रीय, नस्लीय, जातीय या धार्मिक समूह को आंशिक या पूर्ण रूप से नष्ट करने की नीयत से यदि किसी समूह के सदस्यों की हत्या की जाए, उन्हें गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाया जाए, उन पर ऐसी जीवन परिस्थितियां थोपी जाएं जिनसे उनका भौतिक विनाश हो, समूह में बच्चों के जन्म को रोकने के उपाय किए जाएं या बच्चों को जबरन किसी अन्य समूह में भेज दिया जाए तो ये सभी कृत्य जनसंहार की श्रेणी में आते हैं। इसका साफ मतलब  है कि जनसंहार केवल बंदूक, बम या तलवार से नहीं होता, इसे नीतियों, योजनाओं, संगठित उपेक्षा और अमानवीय व्यवस्थाओं के मार्फत भी अंजाम दिया जा सकता है। इस पैमाने हमारा देश आज भी पूरी तरह सुरक्षित श्रेणी में बेदाग खड़ा नजर आता है।


  संयुक्त राष्ट सलाहकार बेयानी ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब किसी क्षेत्र में इन जोखिमों का स्वरूप लगातार हिंसक होने लगता है, तब उनका कार्यालय चेतावनियां जारी करता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय स्थापित किया जाता है। इस प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ अफ्रीकी संघ, यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रीय संगठनों और अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रणालियों से भी निकट संपर्क रखा जाता है। वह कहते हैं कि जब एक बार खतरे की घंटी बज जाती है तो इसका अर्थ यह होता है कि संकट अपनी सीमा लांघने के बेहद करीब पहुंच चुका है। इस तथ्य से पता चलता है कि विश्व के कई हिस्से आज गंभीर दयनीय मानवीय परिस्थितियों से जूझ हैं लेकिन भारत उन संकटग्रस्त क्षेत्रों में शामिल नहीं है। इसका श्रेय देश के लोकतंत्र, शासन व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने को है।


 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को जानबूझ कर नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें लगातार होती रहती हैं। कभी मानवाधिकार के नाम पर, कभी अल्पसंख्यकों के नाम पर और कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। देश में हर दिन करोड़ों लोग बेखौफ होकर अपने काम पर जाते हैं, अलग-अलग धर्मों के लोग एक-दूसरे के साथ व्यापार करके ही आजीविका चलाते हैं, विभिन्न जाति-धर्म के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते हैं और समाज में समरसता बनी हुई है। देश की इस तस्वीर पर हर किसी को गर्व होना चाहिए। इस परिदृश्य में सरकार की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरकार की ओर से कानून-व्यवस्था बनाए रखने से लेकर सामाजिक कल्याण योजनाओं के सफल क्रियान्वयन तक, प्रशासनिक की जवाबदेही से लेकर डिजिटल निगरानी तक हर काम किया जा रहा है। सरकारी तंत्र की निरतंर सक्रियता से ही कोई भी टकराव बड़े संकट का रूप नहीं ले पाता है। आतंकवाद के खिलाफ कठोर कार्रवाई, दंगों में तत्काल एक्शन, पीडि़तों को मुआवजा और दोषियों को सजा जैसी प्रक्रियाओं से जाहिर है कि देश में किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार की अराजकता को खुली छूट देने का सवाल ही उत्पन्न नहीं होता है। टकरावों से जूझ रहे विभिन्न देशों के बीच शांति, सह अस्तित्व, लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के साथ आगे बढ़ रहा भारत ऐसा देश है, जो हर देश को प्रेरणा देता है। दुनिया में किसी को भी संयम, शांति, विकास, सह जीवन और स्थिरता की मिसाल को महसूस करना हो तो वह भारत आए।

अमरपाल सिंह वर्मा