भारतीय जनतंत्र अपने में अनूठा

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अनिल अनुप

भारतीय जनतंत्र शब्दों में बहुत बड़ा कहा जाता है पर गुणत्व में बहुत सी खामियां हैं। यदि जनतंत्र का आशय देशहित को ताक पर रखना हो तो निश्चय ही भारतीय जनतंत्र अपने में अनूठा है। बड़ा जनतंत्र संख्या को दृष्टिगोचर करता है, भारतीय दुनिया में जनतंत्र सर्वोपरि है। यदि आर्थिक नीतियों का ध्यान रखें, तो भूमि, श्रम, पूंजी, संगठन व जोखिम होते हैं और इसमें भूमि सीमित होती है, इनके आपस के संतुलन से ही आर्थिक प्रगति की कल्पना की जा सकती है। जनसंख्यावृद्धि इसके अनुपातिक होनी चाहिए, परन्तु गणतंत्र की दुहाई देते हुए इस विषय पे ध्यान न दिया गया न दिया जा रहा है। विभाजन के वक्त पूरे देश की आबादी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश मिलाकर 33 करोड़ थी और आज भारतीय गणना के अनुसार सौ करोड़ से अधिक है। भारतीय राजनीतिक पार्टियां देश के हित को नजरअंदाज करते हुए भारतीय नागरिकता कानून को महत्व नही देती है फलस्वरूप देश की सीमाओं से लगे हुए सभी अप्रजातांत्रिक देश के नागरिक हमारे चुनाव प्रक्रिया में बिना किसी परेशानी के शामिल हो जाते हैं और यहां की ढुल-मुल व्यवस्था के चलते सभी सुविधाएं भारतीय नागरिक के रूप में प्राप्त कर लेते है अन्य शब्दों में जो सुविधाएं मूलत: भारतीय नागरिक को प्राप्त होनी चाहिए थीं उनमें बंटवारा हो जाता है। भारतीय जनतंत्र विविध राजनीतिक पार्टी व्यवस्था पर आधारित है क्यूंकि संविधान रचयिताओं का यह प्रयत्न था कि प्रजातंत्र का फल प्रत्येक भारतीय तक पहुंचना चाहिए क्यूंकि बीते हुए 800 वर्षों में साधारण नागरिक को यह अधिकार नही प्राप्त हुआ कि अपने हुक्मरानों का चुनाव वह स्वयं कर सके, ऐसी सुव्यवस्था में एक भयंकर कमी अशिक्षित जनता है जिसे सरलता से धर्म, जाति एवं आरक्षण के नाम पर बहकाया जा सकता है जिसका परिणाम वोटों पर पड़ता है और इस कार्य में हमारे आधुनिक नेता बहुत निपुण समझे जाते हैं उदाहणस्वरूप हाल ही में गुज्जर समुदाय का आरक्षण संबंधित विरोध के चलते देश की करोड़ों की संिम्पत्त स्वाहा तो हुई ही व वसुंधरा राजे की सरकार का भी पतन हो गया। विविध राजनीतिक पार्टी ढर्रा होने के कारण कोई भी समूह कुछ विचारों को एकमत करके एक राजनीतिक पार्टी का रूप दे सकती है और जीतने के बाद इच्छानुसार बिखर भी सकती है। इस व्यवस्था में निर्दलीय सदस्यों की स्थिति अति भयावह है, क्यूंकि उनकी ईमानदारी किसी तरफ नही होती बल्कि अपनी स्वार्थपूर्ति होती है और वर्तमान परिपेक्ष्य में भारतीय राजनीति में वह एक मूल्यवान एवं बिकाऊ वस्तु है। साधारणत: स्थानीय मामलों के कारण निर्दलीय प्रत्याशी जीत जाते हैं और जीत जाने के उपरान्त परिस्थिति के अनुसार अपना मोल भाव करते है, आम जनता को यह समझना चाहिए कि स्थानीय मामला यदि किसी नामचीन राजनीतिक पार्टी द्वारा उठाए जा रहा हो तो उसका प्रभाव अधिक पड़ता है बनिस्बत निर्दलीय प्रत्याशी के।जनादेश प्रजातंत्र का एक महत्वपूर्ण अधिकार है परन्तु इसको सुव्यवस्थित रूप से कार्यरत करना आवश्यक ही नही बल्कि जनतंत्र को सफल बनाने का प्रथम चरण है। हमारे देश में 18 वष की आयु के प्रत्येक नागरिक को जनादेश देने का अधिकार है। अब प्रश्न है नागरिक कौन है नागरिकता का प्रश्न भारत के विभाजन के साथ ही सामने आया। जो लोग अपनी इच्छा से भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए उनकी नागरिकता मूलत: खत्म हो जानी चाहिए थी जैसा कि पाकिस्तान से जो लोग भारत आए उनके साथ हुआ था और नागरिकता समाप्त होने के साथ ही उन भारतीयों की संपत्ति जो पाकिस्तान में थी बिना कोई मुआवजा दिये जब्त कर ली गई। भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक ढीलेपन के कारण जो लोग यहां से पाकिस्तान गए उन्हें वहां पर नागरिकता के साथ साथ उन्हें सस्ते दामों में जमीन जायदाद मिल गई और उनकी जायदाद जो भारत में थी उन्हें दुश्मन की जायदाद बता दिया गया पर उस संपत्ति को आने वाले भारतीयों को न ही दिया गया और न सरकार ने उस पर कब्जा किया। समय बीतने के साथ और भारत को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के उपरान्त पाकिस्तान गए हुए हर एक परिवार से कम से कम एक सदस्य जिनकी संपत्ति उस समय भारत में थी यहां लौट आए और पुन: उस पर कब्जा कर लिया। इस तरह से एक ही परिवार की दो मुल्कों में संपत्ति हो गई बिना अप्रवासी भारतीय नियम लागू हुए। जो भारतीय पाकिस्तान से आए उन्हें यहां रिफ्यूजी करार दिया गया और क्यूंकि उन्हें रातों रात पूर्वी पंजाब और पूर्वी बंगाल से खाली हाथ आना पड़ा था इससे उनकी हालत भिखारियों से बदत्तर हो गई थी। इसका एक ज्वलंत उदाहरण हाल ही में देखा गया जब कश्मीरी मूल पण्डितों को रातों रात श्रीनगर छोड़ना पड़ा और आज विस्थापित स्थिति में वे दिल्ली एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में पड़े हुए हैं। ऐसी उक्त परिस्थिति में भारतीय नागरिक की परिभाषा बदलनी चाहिए थी जो भारतीय प्रजातंत्र में वोट बैंक के चलते नही बदली गई। भारतीय अनियंत्रित सीमा क्षेत्र क्यूं नही नियंत्रित किए गए इसका कारण राजनेता ही बता सकते हैं पर जो भी कारण हो यह देशहित में नही है पर इसके चलते अस्थिर जनसंख्या अर्थात सीमा पार निवासी बिना किसी बाधा या रूकावट के हमारे देश में केवल घुसपैठ ही नही वरन् गैरकानूनी हथियारों का कारोबार भी करते हैं और जघन्य अपराधों को अंजाम देने के बाद वापस पलायन कर जाते है जो हमारी देश की सुरक्षा व्यवस्था के परे है। यदि देशहित में उचित विवेचना की जाए तो आज के आतंकवाद का विकराल रूप उक्त कारणों से है।यह सत्य है वह परिवार जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे और उनके जो सदस्य भारत में देशप्रेम में नही वरन अपने स्वार्थ हेतु आए छ: दशक में उन्होंने अपना परिवार बढ़ा लिया और सबको भारत की नागरिकता के हकदार बना दिया और इसके विपरीत जो रिफ्यूजी यहां आए उनकी भारतीयता लम्बे समय तक असमंजस में पड़ी रही और आर्थिक विषमता इससे जुड़ी एक अहम समस्या थी जो अभी तक बनी हुई है। भारत में जन्में लोग कानूनन भारतीय बन जाते हैं और उचित समय आने पर वो अपना जनादेश दे सकते हैं। भारतीय मूल के लोग जो विदेशों में रह रहे हैं और उनकी नागरिकता भारत में बनी हुई है उन्हें भी जनादेश का अधिकार है। जनादेश का अधिकार जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में भी है जहां के लोग गत छ: दशकों से सरकारी सिब्सडी का आनंद ले रहे हैं और भारत के हित में कोई भी कार्य करने में उनका रवैय्या हमेशा ढीला ही रहता है। उनकी सुरक्षा के लिए देश के कितने ही सुरक्षा कर्मियों ने अपनी आहुती दी पर फिर भी आज वो आजाद कश्मीर की रट लगाए हुए हैं।संघीय व्यवस्था को मानते हुए वोटर लिस्ट बनाना राज्य क्षेत्र के अधिकार में आता है और इसके लिए अलग विभाग की व्यवस्था है पहले यह विभाग अस्थाई था, चुनाव के दौरान यह क्रियाशील हो जाता था। अब यह विभाग स्थाई रूप से कार्यरत है क्यूंकि पहले चुनावों का मध्यांतर राज्य या केन्द्र में पांच वष का होता था पर आज के दल-बदल के परिवेश में आज ये कहना मुिश्कल है कि कौन सी सरकार कितने दिन चलेगी। यहां यह कहना अनुचित न होगा कि बड़े स्तर पर रूपये का आदान प्रदान भी इसका एक बड़ा कारण है। इतनी बड़ी जनसंख्या जो जनादेश देती है उसकी सही तौर पर जांच-पड़ताल नही की जाती है, ऐसा देखने में आया है जो नागरिक और उनके पारिवारिक सदस्य सालों से एक ही स्थान पर रहते है उनका नाम वोटर लिस्ट में नही रहता है और होता भी है तो बदला हुआ होता है जबकि उसी क्षेत्र में अस्थाई रूप से रहने वाले या काम करने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम वोटर लिस्ट में मुस्तैदी से दर्ज किया जाता है। ऐसी कोई व्यवस्था नही है कि कोई अधिकारी स्वयं जाकर बनाई गई सूची की अपने स्तर पर दोबारा जांच करे। दुभाग्र्य से चुनाव आयोग उम्मीदवारों के आचार संहिता की बात तो करता है पर मतदाता सूची की खामियों पर चुप्पी साध लेता है जो प्रजातंत्र का मूल है। यह भी देखने में आया है कि राजकीय सरकारी तंत्र मतदाता सूची को अपने अनुसार प्रभावित करता है। ऐसी भी कोई व्यवस्था नही है कि यदि किसी वास्तविक वोटर का नाम विभागीय कारणों से मतदाता सूची में मौजूद न हो और नियत दिन पर वह मतदान न कर सके तो उसका अमूल्य वोट बाद में प्राप्त हो सके ऐसा कोई प्राविधान नही है। भारतीय जनतंत्र प्रत्यक्ष नही है जैसा कि स्विटजरलैण्ड का प्रजातंत्र है, यहां उम्मीदवार की विजय के पश्चात् उसके नेतृत्व क्षमता की खामियां उजागर होने पर चयनित उम्मीदवार को पुन: मतदान कर वापस बुलाने का प्राविधान नही है, जिस विभाग को मुख्य चुनाव मतदाताओं की ही पूर्ण जानकारी न हो वे चुनाव ही निष्पक्ष निबटा दें यही बहुत है, भारी जनसंख्या वाले इस देश में पुर्नमतदान की तो वे कल्पना भी नही कर सकते। अन्य शब्दों में मतदाता सूची बनाने वाला विभाग और चुनाव आयोग मतदाता सूची की प्रामाणिकता को महत्व नही देते जो आज की स्थिति में बेहद चिन्ताजनक है, इसी के चलते आज देश के राज्य और केन्द्र के प्रतिनिधियों में बाहुबली, माफिया और समाज के निकृष्ट लोागों की संख्या बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि सदन में असंसदीय भाषा का खुलेआम प्रयोग हो रहा है और सदन का अध्यक्ष उसे रोकने में नाकाम रहता है केवल संसदीय ब्यौरे से इन अशोभनीय शब्दों को हटाने की बात कह देता है। इसी पृष्ठभूमि के चलते चुनाव में बूथ पर कब्जा व राष्ट्रनेताओं का अपने प्रतिद्विन्दयों पर पर सार्वजनिक रूप से अशब्दों का प्रयोग करना जैसे हाल ही में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी यादव ने वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार के बारे में कहा या लालू प्रसाद यादव ने वरूण गांधी व सुषमा स्वराज पर फिब्तयां कसीं। आज के प्रजातंत्र में गठबन्धन एक ऐसी बीमारी है जो अपने स्वार्थहित के लिए की जाती है, कल का दुश्मन आज का दोस्त और आज का दोस्त कल दुश्मन बन जाता है जैसे उत्तर प्रदेश की बहन जी एक समय बाहुबली मुख्तार अंसारी की जानी दुश्मन थी दोनों अब दोनो दोस्त बन चुके हैं, हमारे पत्रकारों द्वारा पूछने पर मुख्तार अंसारी की बहन जी के प्रति समर्पित भावना कहती है कि मायावती को ही देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए। देश की बागडोर ऐसे ही घटिया और मक्कार बाहुबली माफियाओं के हाथ में खिसकती जा रही है। इसका प्रमाण समय समय पर आम जनता को मीडिया के जरिए मिलता रहता है कि जनप्रतिनिधियों को राष्ट्रगान के रचयिता का नाम नही पता होता, संवैधानिक नीतियों की जानकारी नही होती और तो और बजट पेश करने के समय सदन में उपस्थित नही होते क्यूंकि उन्हें कुछ आता ही नही और सदन की मर्यादा का कोई ज्ञान भी नही होता। पाकिस्तान, इटली की ये अवस्था है जहां तीन चौथाई जनप्रतिनिधी बाहुबली और माफिया है और आम जनता से उन्हें कोई विशेष सरोकार नही है अत: ये आवश्यक है कि चुनाव आयोग इन मामलों को गंभीरतापूर्वक ले और इस प्रक्रिया में बाधा बनने वाले लोगों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही करे। आज तो विज्ञान का जमाना है मतदान के बाद जो निशान लगाए जाते हैं उसे हटाया जा सकता है और ऐसा भी देखने में आया है कि एक व्यक्ति दस वोट डालने में समर्थ है हम इसी से प्रजातंत्र का अंजाम समझ सकते हैं। सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता ऊपर बताई गई खामियों से अवगत हैं, स्थान अनुसार और समयानुसार उसका उपयोग कर लेते हैं, इसी कारण से चुनावों के दौरान हिंसा की बहुत सी घटनाएं सुनने में आती हैं जिसके चलते जान-माल की भारी हानि भी होती है। चुनाव आयोग ने आचार संहिता के द्वारा उम्मीदवारों के व्यक्तिगत या पार्टी से जुड़े बेतहाशा चुनावी खर्चे की बात तो कही है पर इस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नही लगा पाई। आज भी पैसे, शराब, कपड़े और कम्बल आदि बांटे जाने की खबरें मीडिया के द्वारा लगातार मिल रही हैं। खर्चे का इतना लम्बा चौड़ा ब्यौरा देखकर और साधारण जनता, जिसमें अनपढ़ और पिछड़ा वर्ग भी शामिल है उनका पैसे के प्रति लोभ और व्यक्तिगत स्वार्थ को देखकर आज कोई राष्ट्रवादी व्यक्ति अपने बल पर चुनाव लड़ने की बात सोच भी नही सकता। ऐसा भी देखने में आया है कि कई उम्मीदवार नांमाकन तो करते हैं पर पार्टी से पैसा मिलने के बाद ठीक चुनाव के मुहाने पर अपना नाम वापस ले लेते हैं। संविधान रचयिताओं ने संभवत: इस पर कोई विचार नही किया होगा और चुनाव आयोग भी इस पर रोक लगाने में असमर्थ मालूम होता है।भारत की स्वतंत्रता के साथ जो नामचीन राजनीतिक पार्टियां सामने आईं उनमें कांग्रेस,जनसंघ और कम्यूनिस्ट पार्टी शामिल थी समय बीतने के साथ इन पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में आमूल परिवर्तन होते रहे। कांग्रेस पार्टी जिसने देश की स्वतंत्रता में मुख्य भूमिका निभाई उसका चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी से बदलकर हाथ के पन्जे तक सीमित हो गया हांलाकि महात्मा गांधी ने अपना दूरदर्शिता के कारण यह सुझाव दिया था कि कांग्रेस पार्टी का विघटन कर दिया जाए क्यूंकि चुनाव हथकण्डों में आदशों की बलि चढ़ जाएगी और भारतीय जनसंघ जिसकी लौ को श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना बलिदान देकर भी जलाए रखा ने अपने उसे अटल बिहारी एण्ड कम्पनी ने अपने मूल्यों से समझौता कर भारतीय जनता पार्टी में बदल दिया, सोशलिस्ट पार्टी तो जैसे अपना वजूद ही खो बैठी और किसके साथ गठबन्धन करे इसी पशोपेश में पड़ी रही और आम जनता का विश्वास खो बैठी, भारत की कम्यूनिस्ट पार्टीयां तो जैसे तय ही नही कर पाई कि उन्हें चीन का साथ देना चाहिए या रूस का…और उधेड़बुन में तरह तरह के राजनैतिक पैंतरे बदलती रही। इस बीच छोटी छोटी पार्टियां व निर्दलीय उम्मीदवार अपने स्वार्थपूर्ति हेतु कुकुरमुत्तों की तरह उगते रहे पर राष्ट्र की उिन्नत में उनका योगदान शून्य रहा। छठे दशक की शुरूआत से पहले ही केन्द्र में एक अकेली पार्टी की सरकार का गठन होना संभव नही रहा और सरकार गठन के लिए के लिए दूसरी राजनीतिक पार्टियों का सहारा लेना पड़ा, यह स्वयं में एक बहुत कठिन कार्य है क्यूंकि इस प्रकार के संगठित राजनीतिक दल देशहित की जगह पार्टी या व्यक्तिगत स्वार्थों पर अधिक बल देते हैं। ऐसी स्थिति में सभी पार्टियां अपने प्रतिनिधी उन सभी जगहों पर तैनात करवा देते हैं जहां से आय का स्त्रोत हो। इस प्रकार के धन की आवश्यकता राजनीतिक प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त के लिए होती है। चुनाव पूर्व गठबन्धन और चुनाव बाद के गठबन्धन यह भारतीय राजनीति में मिलीजुली सरकारों की देन है, इस प्रकार के गठबन्धनों में पार्टी हित सर्वोपरि होता है न कि देशहित और किसी तरह सरकार में शामिल होने का या सत्ता में आने का जोड़ तोड़ इन पार्टियों का मुख्य उद्देश्य होता है। भारतीय संविधान रचयिताओं ने इसकी कल्पना भी नही की होगी अन्यथा इस पर अंकुश लगाने के लिए उन्होंने निश्चय ही कोई नियम बनाया होता। एक और नई व्यवस्था भारतीय जनतंत्र में सामने आई कि राजनैतिक पार्टियों का सिंहासन एक ही परिवार के लोगों को एक के बाद एक मिलने की परंपरा बन गई भले ही वे उसके योग्य हों या न हों उदाहरण के तौर पर लालू-राबड़ी यादव व राबड़ी के परिवारवाले, मुलायम-अखिलेश सिंह यादव, विजयराजे-माधवराव-वसुन्धरा राजे-ज्योर्तिरादित्य सिंधिया, करूणानिधी-स्टालिन, शेख-फारूख-उमर अब्दुल्ला, सोनिया-राहुल गांधी, सुनील-संजय दत्त, नवीन-बीजू पटनायक, बनारसी दास-अखिलेश दास, बाल-राज ठाकरे आदि। देश की राजनीति बहुत कुछ मुम्बई फिल्म इण्डस्ट्री की स्टारपुत्र/पुत्री प्रथा से मिलता जुलता है।राजनीतिक दलों ने अपने फायदे के लिए आसान रास्तों को अपनाया जो अनैतिक भी थे। संविधान में धर्मनिरपेक्षता हिदायती सिद्धान्तों में है पर इसे मूल अधिकारों में परिवर्तित कर दिया गया, चुनाव के समय जातिवाद धर्मवाद सभी का सहारा इतने खुले रूप में लिया गया कि भारतीय समाज गठित होने के बजाय छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गया। आज की स्थिति में जाति और धर्म के नाम पर मतदान किया जाता है प्रत्याशी के गुण व अवगुणों का मापदण्ड नही होता है फलस्वरूप चयनित उम्मीदवारों की मानसिकता और सोच देशहित के स्तर की न होकर सीमित दायरों में बंधी हुई है और कुछ मायनों में वे बाध्य भी हो जाते हैं क्यूंकि उनके मतदाता भी जाति विशेष या धर्म विशेष के ही होते हैं, ऐसी स्थिति में आम नागरिक को मत देने का अधिकार सही परिणाम नही दिला पाते। इस स्थिति के लिए सभी राजनीतिक दल उत्तरदायी हैं और वे अपने उम्मीदवारों का चयन उस क्षेत्र के जाति अथवा धर्म विशेष के बाहुल्य को देखकर करते हैं जो प्रजातंत्र और देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए हानिकारक है। भारतीय प्रजातंत्र में इतना पैसा लगा हुआ है कि उसकी थाह पाना मुिश्कल है, प्रश्न ये है कि यह पैसा किन लोगों का है और क्यूंकर लगाया गया है कोई भी मूर्ख पैसा लगाने के बाद अपने स्वार्थ की अनेदेखी नही कर सकता, अन्य शब्दों में भारतीय राजनीतिक खिलाड़ियों को यह जानकारी है कि यदि एक बार चुनाव जीत जाएं व सत्ता में आ जाए तो उनके काले कारनामों पर आसानी से पर्दा डाला जा सकता है। झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबु सोरेन इस बात का जीवित प्रमाण हैं कि भारतीय न्यायप्रणाली राजनेताओं पर किसी भी प्रकर का अंकुश नही लगा सकती। आज के परिवेश में शायद ही कोई राजनेता हो जिस पर दर्जनों के हिसाब से सिविल और क्रिमिनल केस लिम्बत न हैं। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गलियारों में खुलेआम धन कमाया जा रहा है पर न्यायपालिका एवं एक्जीक्यूटिव इस पर प्रतिबंध लगाने में असमर्थ हैं जो काला धन देते हैं वे बोल नही सकते और जिनके पास यह धन आता है उनके पास इसका कोई हिसाब नही होता। टाईम्स ऑफ इण्डिया ने कुछ चुनावी उम्मीदवारों की घोषित सम्पत्ति का ब्यौरा दिया है जो इस प्रकार हैचार्टइसमें उस सम्पत्ति का कोई ब्यौरा नही दिया गया है जो अघोषित है इसमें उन राजनीतिज्ञों के कालेधन का ब्यौरा नही है जो इस समय सत्ता में हैं या भारतीय राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। इनमें बिहार और उत्तर प्रदेश के माफियाओं का कोई जिक्र नही है। धन के चलते अब भारतीय राजनीति में फिल्मी कलाकार, क्रिकेटर व बाहुबली ही मैदान में आ सकते हैं और देश का भविष्य अपने सीमित दायरों के अनुसार निहित करते हैं।चुनाव आयोग पहले तो नििष्क्रय सा प्रतीत होता था पर टी.एन सेशन ने इसके महत्व और मजबूती को विशेष मानयता दिलाई, इसी के चलते आज चुनाव आयोग निर्भय होकर सभी राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता बनाती है और काफी हद तक दलों को विवश भी कर देती है कि वे इसका पालन करें पर यदि राज्य सरकारें व केन्द्र सरकार उचित सहयोग न प्रदान करें तो आचार संहिता धरी की धरी रह जाती है। प्रजातंत्र एक समझदारी का गठबंधन है जो प्रत्येक देशवासी के हित में होना चाहिए ऐसे तंत्र में नाकारात्मक कार्यां की बहुत गुंजाईश है क्यूंकि इसमें खूद को अनुशासित करना बेहद आवश्यक है। जब यह अनुशासन अपने स्वार्थ हित के लिए ताक पर रख छोड़ा जाता है तभी विभिन्न प्रकार की विषमताओं का जन्म होता है। राजनेता का कर्तव्य जैसा आज परिलक्षित होता है केवल धन ही कमाना नही है वरन प्रजातंत्र की नींव को मजबूत करना भी है। दूसरे किसी तंत्र में ऐसा खुलापन और स्वतंत्रता नही है अत: यह आवश्यक है कि प्रजातंत्र की गरिमा को बनाए रखा जाए क्यूंकि खोखली नींव पर बुलन्द इमारतें नही खड़ी होती।

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