भारतीय न्यायपालिका को चेक एवं बैलेंस सिस्टम की जरूरत 

वीरेंद्र सिंह परिहार

 न्याय में अत्यधिक देरी, न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति में गोपनीयता और न्यायिक अधिकारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो के कारण न्यायिक सुधारो की मांग देश में पिछले कई वर्षों से की जा रही है लेकिन अब  जस्टिस यशवंत वर्मा के प्रकरण के चलते यह एक राष्ट्रव्यापी ज्वलंत  मुद्दा बन गया है. इस संबंध में बहुत पहले जस्टिस  ब्यकंट चलैया समिति जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता, न्यायिक  जवाबदेही और अनुशासन की बात पर जोर दे  चुकी है. देश में इसके लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की जरूरत सतत महसूस की जाती रही. इस  संबंध में 2014 में सत्ता में आने पर मोदी सरकार ने न्यायपालिका में सुधारो के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया लेकिन अक्टूबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने उसे यह कहते हुए निरस्त कर दिया की संविधान द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अधिकार है और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग से इस अधिकार में हस्तक्षेप का डर होगा.

यद्यपि  1030 पेज के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह  स्वीकार किया कि कॉलेजियम प्रणाली में कुछ खामियां हैं जैसे पारदर्शिता की कमी. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में सरकार और याचिकाकर्ता से मदद भी चाही गई. इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार से एमओपी जिसे मेमोरेंडम ऑफ  प्रोसीजर कहते हैं वह बनाने को कहा गया जिसे मोदी सरकार ने जुलाई 2015 में ही प्रस्तुत कर दिया. इसमें यह लेख किया गया कि कॉलेजियम जिन नामों पर विचार करें, उन नामों की योग्यता और पात्रता साफ-साफ दिखने चाहिए.  कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित नाम की ईमानदारी और निष्ठा पूरी तरह असंदिग्ध होनी चाहिए. किसी सेशन जज को हाई कोर्ट का जज बनते समय उसके पूर्व के 15 वर्ष का पूरे कामकाज का ब्योरा संलग्न किया जाना चाहिए. एक स्थाई पारदर्शी और एक समान सचिवालय बनना चाहिए. उसका मुखिया और प्रक्रिया भी तय होना चाहिए लेकिन बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार की इस पहल को भी गंभीरता से नहीं लिया गया और मामला जहां का तहा अटका पड़ा है.

 जस्टिस  ब्यकट चलैया  ने भी एक न्यायिक आयोग जैसी संस्था के गठन की जरूरत महसूस की थी और कमोबेश उसी तर्ज पर मोदी सरकार द्वारा न्यायिक नियुक्त आयोग का गठन किया गया था पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस आपत्ति के साथ इसे खारिज कर दिया कि विधि मंत्री और दो  विधि विशेषज्ञ जो इस कमेटी के सदस्य होंगे, उससे न्यायिक आजादी में दखल होगा पर लोगों को यह समझ में नहीं आया कि उक्त आयोग में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ दो वरिष्ठतम जज तो होते ही, इसके साथ ही दोनों विधि विशेषज्ञों के चुनाव में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ मुख्य न्यायाधीश को भी उनके चयन का अधिकार होता पर सर्वोच्च न्यायालय न्यायालय की आजादी के नाम पर भारतीय संविधान की मूल अवधारणा चेक एंड बैलेंस सिस्टम से ऊपर खड़ा होना चाहती है.

2011 में जब लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे द्वारा आंदोलन किया जा रहा था और इसके समर्थन में पूरा देश सड़कों पर आ गया था. तब उसे समय विपक्ष की तत्कालीन नेता सुषमा स्वराज  ने विपक्ष में होते हुए भी यह कहा था कि लोकपाल के मामले में चुनी हुई सरकार की कोई भूमिका ही ना हो, यह कतई उचित नहीं है. ठीक यही बात न्यायपालिका के संदर्भ में भी कहीं जा सकती है. चेक एंड बैलेंस सिद्धांत के साथ ही न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका दोनों को ही नियंत्रित करती है लेकिन न्यायपालिका पर कोई नियंत्रण ही ना हो, यह भारतीय संविधान की मूल अवधारणा संतुलन एवं निरोध के खिलाफ है. न्यायपालिका के  मामले में भी यदि जस्टिस वर्मा  के घर में आग ना लगी होती तो सच्चाई सामने न पाती. सच्चाई यह है कि दुनिया के किसी भी देश में भारत के अलावा न्यायपालिका सर्वशक्तिमान नहीं है.

यह विडंबना है कि देश के सभी लोक सेवकों को अपने और अपने परिवार की आमदनी बताने का दायित्व है लेकिन देश के 25 उच्च न्यायालय के 763 जजों में से केवल 57 ने ही अपने संपत्ति की घोषणा की है. जस्टिस वर्मा की तरह यह किसी दूसरे लोक सेवक के यहां यदि करोड़ो के नोट बरामद होते तो उसके विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज हो जाता.  यह कहा जा सकता है कि जजों के मामलों में भारतीय संविधान में दिया गया समानता का अधिकार पूरी तरह बेमानी है. इसलिए बेहतर यह होगा कि न्यायपालिका स्वतः इस दिशा में आगे बढ़कर सरकार और प्रबुद्ध जनों से चर्चा कर जजों की मनमानी एवं भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए एक न्यायिक आयोग गठित करने की दिशा में आगे बढ़े ताकि जवाबदेही एवं पारदर्शिता जो लोकतंत्र का मूलाधार है, उसके दायरे में न्यायपालिका भी आ सके  

वीरेंद्र सिंह परिहार

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