
सतयुग , त्रेता , द्वापर में , विकसी इस युग में आई ,
गौरवान्वित हो पूर्वजों से, जग में सुकीर्ति भी पाई ।
पश्चिम से जो आँधी आई , पूरब में वो आकर छायी ,
बदला सब कुछ इस युग में, पश्चिम की संस्कृति भायी ।
निज भाषा, सुवेष और व्यंजन, संस्कृति आज भुला डाले ।
नवयुग में नव-संतति ने , नव-संस्कृति के रंग सँभाले ।।
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विश्व जब सोया पड़ा था , जागता था देश अपना ,
ज्ञान वेदों का दिया तब , मिला सबको दिव्य सपना ।
अवनि पर सबसे पुरानी, संस्कृति जानी गई जो ,
आज भूली जा रही है , देश में अपने वही क्यों ?
सभ्यता- संस्कृति विदेशी , वेष-भूषा सब निराली ,
अभिरुचि बदली है सबकी , इसी में दिखती खुशहाली ।।
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– शकुन्तला बहादुर